दार्जिलिंग भाग-२

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इस तरह धुएँ की रेखाएँ हवा में खींचते हुए यात्रियों को उनके मुकाम तक ले जानेवाली रेलगाड़ियाँ भारतवर्ष में अब बहुत ही कम रह गयी हैं। इसी तरह की एक रेलगाड़ी (ट्रेन) धुएँ की रेखाएँ हवा में खींचते हुए मुसफिरों को  दार्जिलिंग तक ले जाती है।

न्यू जलपायगुडी से दार्जिलिंग ले जानेवाली यह रेलगाड़ी समुद्री सतह से तकरीबन् १०० मीटर की ऊँचाई से अपना सफर शुरू करती है और ६९८२ फ़ीट पर बसे दार्जिलिंग तक हमें ले जाती है। लगभग ८६ कि.मी. की दूरी के इस रेलमार्ग का निर्माण इसवी १८७९ से लेकर इसवी 1881 तक किया गया।

दार्जिलिंग को मैदानी इलाके के साथ जोड़ने के लिए इस रेलमार्ग के निर्माण के पूर्व ही रास्ता बनाया गया था। ‘फ्रेंक्लिन प्रेस्टीज’ नाम के ईस्टर्न बेंगाल रेल कंपनी के एजंट ने दार्जिलिंग की ऊँची पहाड़ियों पर रेलमार्ग निर्माण करने का प्रस्ताव रखा और बंगाल के लेफ्टनंट गव्हर्नर सर अ‍ॅश्‍ले एडन के नेतृत्व की कमिटी ने इसवी १८७९ में इस प्रस्ताव को मंजूरी दे दी और उसी वर्ष इस रेलमार्ग का निर्माण कार्य शुरू हो गया।

इसवी १८८१ में इस रेलमार्ग का निर्माण कार्य पूरा हो गया। उस जमाने में इतनी ऊँचाई तक के रेलमार्ग का निर्माण करना यह काफी जोखिमभरा काम था; लेकिन गिलँडर अर्बटनॉट और कंपनी ने इस काम को कुशलतापूर्वक पूरा कर दिया। इस रेलमार्ग के निर्माण में गोलाकार एवं झिक झॅक पद्धति का उपयोग किया है, जिससे चढ़ाव पर चढ़ना आसान हो।

तो फिर चलें, हम भी इसी रेलगाड़ी से सफर करके दार्जिलिंग चलते हैं।

न्यू जलपायगुडी स्टेशन से निकली यह ट्रेन सिलिगुडी गाँव का चक्कर काटकर सिलिगुडी स्टेशन पर पहुँच जाती है। वहाँ पर थोड़ी देर के लिए रुककर, आगे महानदी नाम की नदी पर बने ब्रिज को पार करके सुकना स्टेशन पर पहुँच जाती है। इस सुकना स्टेशन पर प्रायः इंजिन के लिए आवश्यक जल भर दिया जाता है। अब आसपास हिलस्टेशन का वातावरण दिखाई देता है और ट्रेन रंगतंग स्टेशन पर पहुँच जाती है। अब चहूँ ओर हरे भरे पेड़, बड़े बड़े वृक्षों के जंगल दिखाई देते हैं और दूर ऩजर आते हैं, हिमालय के शिखर।

रंगतंग के बाद आता है चुनभाती स्टेशन । रास्ते से दार्जिलिंग जानेवाले यात्री यहाँ के बंगले में निवास करते थें। इसके बाद आनेवाला स्टेशन है तिनधारिया, जहाँ पर रेल्वे का वर्कशॉप है। इसके बाद गयाबारी स्टेशन से होकर ट्रेन महानदी नाम के स्टेशन पर पहुँच जाती है। शुरुआत में जिस महानदी नाम की नदी का उल्लेख किया था, उस नदी का उद्गमस्थल यहाँ पर है। महानदी स्टेशन के बाद के स्टेशन हैं, कुर्सांग और तुंग।

इस सफर के दौरान कईं बार ट्रेन रोड़ को क्रॉस करती है, तो कभी कभी रास्ते के साथ साथ आगे बढ़ती है। तुंग के बाद सोनदा स्टेशन से निकलने के पश्चात् ट्रेन इस सफर के सबसे अधिक ऊँचाई के ‘घूम’ नाम के स्टेशन पर पहुँच जाती है। यहाँ से आगे उतारवाले रास्ते से ट्रेन दार्जिलिंग की ओर प्रस्थान करती है। दार्जिलिंग जाते हुए वह बटासिया लूप से गुजरती है। इस बटासिया लूप के पास अर्थात् गोलाकार मोड़ के पास गोरखा सैनिकों की स्मृति में बनाया गया स्तंभ है और इसी लूप से जब ट्रेन गुजरती है, तब दृष्टिक्षेप में आ जाता है, दार्जिलिंग। लगभग नौ घंटे का स़ङ्गर करके हम आख़िर दार्जिलिंग पहुँच जाते हैं।

इस ट्रेन की ऱफ़्तार १५ कि.मी. प्रतिघंटे इतनी है। यह सफर सिर्फ बच्चों को ही नहीं, बल्कि बड़ों को भी आकर्षित करनेवाला सफर है। यह रेलमार्ग रेलवे के निर्माणकार्य का एक अप्रतिम उदाहरण माना जाता है और साथ ही यह जागतिक विरासत भी मानी जाती है।

इसवी १९९९ में युनेस्को ने इस ट्रेन को वर्ल्ड हेरिटेज साइट का दर्जा दिया। इस तरह का वर्ल्ड हेरिटेज साइट का दर्जा प्राप्त होनेवाली यह दुनिया की दूसरी रेलवे है। वर्ल्ड हेरिटेज साईट का दर्जा जिसे सबसे पहले प्राप्त हुआ, वह है ऑस्ट्रिया की सेम्मेरिंग रेलवे और यह बहुमान उसे इसवी १९९८ में प्राप्त हुआ। उसके बाद इसवी १९९९ में दार्जिलिंग की हमारी यह रेलवे का नाम भी इस सूचि में आ गया।

समुद्री सतह से इतनी ऊँचाई पर जानेवाली इस रेल ने प्राकृतिक आपत्तियों को भी सहा है। इसवी १८९७ में हुए भूकम्प और इसवी १८९९ में हुए बड़े चक्रीवात के कारण इस रेलवे का काफी नुकसान हुआ था। साथ ही मनुष्य के स्वैराचार के आघात भी इस रेल ने सहे हैं। लेकिन इतना होने के बावजूद भी यह रेल इन पहाड़ियों की तरह ही म़जबूत है, जो आज भी अपना सफर निरन्तर रूप से कर रही है।

हिमालय की शिवालिक पर्वतमालाओं में बसे हुए दार्जिलिंग से ११ कि.मी. की दूरी पर टायगर हिल नाम की जगह है। इस लेख में जिस घूम नाम के स्टेशन का उल्लेख किया है, उसी पर्वत का यह शिखर है। जब ८५०० फ़ीट पर स्थित टायगर हिल पर सूर्योदय होता है, तब सूर्य की मुलायम किरनें शुभ्रधवल बर्फ से आच्छादित कांचनगंगा शिखर को चमकाती है। यदि कुदरत आप पर मेहरबान हो, तो यहाँ से दूर पर माऊंट एव्हरेस्ट भी आपको दिखाई देता हैं।

हिमालय की ही गोद में बसे हुए दार्जिलिंग में कुदरत के कईं करिष्में दिखाई देते हैं। यहाँ पर तकरीबन ७००० प्रजातियों के पुष्प पाये जाते हैं। इसके अलावा कईं छोटे-बड़े, जिनके पुष्प नहीं हैं लेकिन जो खुबसूरत हैं ऐसी कईं वनस्पतियाँ भी पायी जाती हैं। लाल रंग के पुष्पों का र्‍होडोडेंड्रान, सफ़ेद पुष्पों  का मॅग्नोलिया तथा गुलाबी पुष्पों का मायकेलिया ये दार्जिलिंग की ख़ासियत है। अप्रैल-मई में फूलनेवाली पीच, पेरी,चेरी दार्जिलिंग की रौऩक ब़ढाते हैं। इनके अलावा कई प्रकार के ऑर्चिडस, बारिश में फूलनेवाली कई तरह के पेड़ दार्जिलिंग की खूबसूरती को बऱक रार रखते है।

इस तरह सालभर महकनेवाले इस छोटेसे शहर में बोटॅनिकल गार्डन न हो, यह बात तो नामुमकिन है।

इसवी १८७८ कें दार्जिलिंग में ४० एकर्स  के क्षेत्र में ‘लॉईड बोटॅनिकल गाईड’ की स्थापना की गई । दार्जिलिंग में पायी जानेवाली कई स्थानीय वनस्पतियाँ तथा आसपास की हिमालय की पहाड़ियों में पायी जानेवाली वनस्पतियों का यहाँ पर जतन किया जाता है। यहाँ नागफनी की १५० और ऑर्किड्स की २५०० प्रजातियाँ हैं।

वनस्पतिसंपदा प्रचुर मात्रा में जहाँ है, वहाँ विभिन्न प्रकार के पशूपक्षियों का होना तो स्वाभाविक ही है। इन प्राणियों की सुरक्षा करने और उनकी संख्या को बढाना इस उद्देश से ‘पद्मजा नायडू हिमालयन झूऑलॉजिकल पार्क’की स्थापना दार्जिलिंग में की गयी। ४४ हेक्टर के क्षेत्र में फैले इस चिडीया़ घर की स्थापना १४ अगस्त १९५८ को की गयी। सरोजिनी नायडू की कन्या पद्मजा नायडू, जो १९५६ से लेकर इसवी १९६७ तक  पश्‍चिम बंगाल की गव्हर्नर थीं, उनका नाम इस चिड़ियाघर को इसवी १९७५ में श्रीमती इन्दिराजी गाँधी के द्वारा दिया गया।

यह चिड़ियाघर हिमालयीन चिता और रेड पांडा इन दुर्लभ प्रजातिओं की सुरक्षा और संवर्धन के लिए केवल भारत में ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया में मशहूर है।

चिड़ियाघर  का उद्देश है, स्थानीय पशु-पक्षियों की प्रजातिओं की सुरक्षा करना तथा उनकी संख्या को बढाना और इस कार्य के द्वारा प्राकृतिक सन्तुलन को बनाये रखना।

हिमालय के पूर्वीय विभाग में १५००- ४००० मीटर्स की ऊँचाई पर पाये  जानेवाले १८ रेड पांडा यहाँ पर है। साथ ही हिमालय में पाया जानेवाला चिता, जो उसकी शिकार के कारण आज मिटने की क़गार पर है, वह भी यहाँ पर सुरक्षित है। इसके अलावा सैबेरियन शेर, तिबेटियन भेड़िया और मार्खोर नामक जगंली बकरियों की प्रजाति यह इस चिड़ियाघर के विशेष सदस्य हैं। अर्थात इनके अलावा  याक,भालू जैसे प्राणि भी यहाँ पर हैं।

भोर के रक्ताभ सूर्यकिरनों में भीगा हुआ दार्जिलिंग, शुभ्रधवल हिमालय की गोद में बसा हुआ दार्जिलिंग, ऐसा यह कई रूप होनेवाला दार्जिलिंग। इस तेज़ गर्मी में हर एक मनुष्य के तनमन को थोड़े समय के लिए ही सही, लेकिन शीतलता प्रदान करनेवाला ऐसा यह दार्जिलिंग।

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