तिरुपति भाग-१

तिरुपति

श्रीवेंकटाद्रिश्रृंगाय
मंगलाभरणांघ्रये।
मंगलानां निवासाय
श्रीनिवासाय मंगलम्॥

रास्ते से गुज़रते हुए कहीं से ‘व्यमटेशमंगल स्तोत्र’ (व्यंकटेशमंगल स्तोत्र) की यह पंक्ति सुनायी दी और सप्तगिरिनिवासी भगवान व्यंकटेश का स्मरण हुआ।

‘व्यंकटेशजी’ यानि कि ‘तिरुपति’ बसे हैं, एक पर्वत पर। व्यंकटेश का यह मंदिरस्थल और पर्वत की तलहटी स्थित गाँव इन दोनों को एकत्रित रूप में ‘तिरुपति’ कहा जाता है।

आइए, नये साल की शुरुआत करते हैं, तिरुपतिजी के दर्शन करके!

आंध्रप्रदेश के चित्तूर ज़िले में यह ‘तिरुपति’ नामक शहर बसा है।

जिस पर्वत पर व्यंकटेशजी का निवास है, उसके कुल सात शिखर हैं। इस पर्वत को ‘तिरुमला’/‘तिरुमलै’ कहा जाता है। ‘तिरुमला’ का अर्थ है, सात पर्वत। पुराणकथाओं के अनुसार तिरुमला / सप्तगिरी यह मेरु पर्वत का एक टुकड़ा है। उसे ‘श्रीपर्वत’ भी कहा जाता है।

तिरुमला पर्वत के सात शिखर आदिशेष के सात ङ्गन माने जाते हैं। अत एव तिरुमला पर्वत को ‘शेषाचल’ भी कहा जाता है। व्यंकटेश के वास्तव्य के कारण यह पर्वत ‘वेंकटाचल’ इस नाम से भी जाना जाता है।

संक्षेप में, तिरुमला अथवा तिरुमलै यह पर्वत ‘सप्तगिरि’, ‘श्रीपर्वत’, ‘शेषाचल’ और ‘वेंकटाचल’ इन नामों से जाना जाता है।

तिरुमला पर्वत के सात शिखरों के नाम हैं- शेषाद्रि, नीलाद्रि, गरुडाद्रि, अंजनाद्रि, वृषभाद्रि, नारायणाद्रि और वेंकटाद्रि। इनमें से ‘वेंकटाद्रि’ नामक सातवें शिखर पर व्यंकटेशजी का वास्तव्य है।

‘व्यंकटेश’ इस नाम के साथ साथ ‘श्रीनिवास’, ‘व्यंकटेश्‍वर’, ‘पेरुमल’ तथा ‘वेंकटचलाधिपति’ इन नामों से भी तिरुपति जाने जाते हैं।

‘तिरुपति’ यह शब्द तिरु और पति इन दो शब्दों से बना है। तिरु यानि कि लक्ष्मीजी और तिरु के पति यानि कि लक्ष्मीजी के पति अर्थात् तिरुपति यानि कि विष्णु भगवान। इससे आप यह जान ही चुके होंगे कि यह लक्ष्मीपति विष्णुजी का स्थान है।

तिरुपति शहर और मंदिर इनके निर्माणकाल के बारे में हालाँकि कोई निश्‍चित जानकारी प्राप्त नहीं होती; लेकिन कई पुराणों तथा प्राचीन साहित्य में तिरुपति की महिमा वर्णित की गयी है।

कुछ पुराणों के अनुसार इस क्षेत्र का संबंध विष्णु के वराह अवतार के साथ है। ‘तमिळ संघम्’ कालीन साहित्य में तिरुपति का उल्लेख प्राप्त होता है। इस साहित्य में तिरुपति का उल्लेख ‘त्रिवेंगदम्’ इस नाम से किया गया है। ‘शिलप्पधिकारम्’ तथा ‘मणिमेखलै’ इन साहित्यकृतियों में भी तिरुपति मंदिर का उल्लेख प्राप्त होता है।

तिरुपति मंदिर और शहर इनका इतिहास प्राचीन समय के साहित्य तथा विभिन्न समय के राजवंशों के इतिहास से उजागर होता है।

पुराणों में तिरुपति महिमा की कई कथाएँ हैं। उनमें से एक प्रमुख कथा इस तरह है –
एक बार किसी यज्ञ में ऋषियों के बीच में यह बहस छिड़ गयी कि ब्रह्माजी, विष्णु और महेश इनमें से श्रेष्ठ कौन है? काफ़ी लंबी चली यह बहस जब अन्तिम निर्णय तक पहुँच नहीं सकी, तब इस बात का निर्णय करने का काम भृगु ऋषि को सौंपा गया।

फिर भृगु ऋषि क्रमश: ब्रह्माजी और शंकरजी के पास गये। लेकिन वहाँ पर उनकी उपेक्षा की गयी। आख़िर वे विष्णु के पास गये। उस समय विष्णुभगवान सोये हुए थे। उन्हें सोये हुए देखकर भृगु ऋषि ने उनकी छाती पर लात मार दी। तब जागृत हो चुके विष्णु ने भृगु ऋषि से पूछा कि ‘ऋषिवर, कहीं आपके पैर में चोट तो नहीं आयी?’ विष्णु के इस बर्ताव से खुश होकर भृगु ऋषि अपने आश्रम लौट गये।

आख़िर भृगु ऋषि के, ‘विष्णु श्रेष्ठ हैं’ इस फ़ैसले के साथ यह बहस ख़त्म हुई। विष्णु ने भी उनकी छाती पर भक्त द्वारा किये गये लत्ताप्रहार के चिह्न को हमेशा धारण किया और इसी कारण विष्णु ‘श्रीवत्सलांछन’ इस नाम से जाने जाने लगे।

लेकिन इस घटना से देवी लक्ष्मीजी ख़फा हो गयीं। भृगु ऋषि के इस बर्ताव के कारण तो वे उनसे ख़फा थीं ही और साथ ही उनका समर्थन करनेवाले भगवान विष्णु से भी। वे वैकुंठ छोड़कर पृथ्वी पर आ गयीं। लक्ष्मीजी के विरह से व्याकुल हो चुके भगवान विष्णु भी फिर वैकुण्ठ को त्यागकर पृथ्वी पर चले आये और शेषाचल पर निवास करने लगे।

इसीलिए यहाँ शेषाचल पर भगवान विष्णु अकेले ही हैं और देवी लक्ष्मीमाता तलहटी के ‘तिरुचानूर’ नामक गाँव में बसी हैं। उन्हें ‘पद्मावती’ अथवा ‘अलमेलुमंग’ इन नामों से भी संबोधित किया जाता है। ‘पद्मावती’ का अर्थ है, पद्म में से यानि कि कमल में से अवतरित हुई। पद्मावती का मंदिर यह तिरुपति शहर का ही एक हिस्सा है। पुराने समय से (कहा जाता है कि लगभग हज़ार-डेढ़ हज़ार वर्षों से) तिरुचानूर को ‘अलमेलुमंगपुरम्’ भी कहा जाता है।

ऐसा भी माना जाता है कि तिरुपति के दर्शन करने के बाद जब तक देवी पद्मावतीजी के दर्शन नहीं किये जाते, तब तक तिरुपति की यात्रा पूरी नहीं होती।

दक्षिण के कई शासकों ने उनके शासनकाल में तिरुपति के दर्शन कर साथ ही दान भी किया था। चोळ, पांड्य, पल्लव और तुळुव राजवंश के कई शासक व्यंकटेश के भक्त थे।

सुंदर पांड्य इन राजा ने इस मंदिर के शिखर पर स्वर्ण का मुलामा चढ़ाया। १६वीं सदी में विजयनगर का साम्राज्य जब वैभव के शिखर पर था, तब सम्राट कृष्णदेवराय यहाँ पर तिरुपति के दर्शन करने अक़्सर आया करते थे। उन्होंने एक बार तिरुपति को कनकाभिषेक (स्वर्ण-अभिषेक) भी किया था, ऐसा कहा जाता है। वीरनरसिंह यादवराय नामक राजा ने यहाँ पर अपनी सुवर्णतुला की थी और उसी स्वर्ण में से तिरुपति के लिए गहने बनाये गये। सारांश, दक्षिण के कई शासकों के तिरुपति ये आराध्य थे। आगे चलकर राजाओं की सत्ता भले ही समाप्त हो गयी हों, लेकिन तिरुपति की प्रतिमा आज भी लोगों के दिलों पर राज कर रही है।

ईस्ट इंडिया कंपनी की हुकूमत भारत पर स्थापित होने से पहले के समय में नागपुर के श्रीमान रघुजी भोसलेजी ने यहाँ के आराध्य तिरुपति की नित्य पूजा अर्चना की व्यवस्था की थी।

लेकिन एक बात ग़ौर करने लायक है कि विदेशी आक्रमकों से इस मंदिर को तथा यहाँ की मूर्ति को सुरक्षित रखा गया।

अँग्रेज़ों ने दक्षिणी भारत पर कब्ज़ा करने के बाद इस मंदिर की व्यवस्था एक मठ को सौंप दी। आगे चलकर १९३२-३३ में मद्रास सरकार ने एक कानून के तहत मंदिर के व्यवस्थापन कार्य के लिए एक स्वतंत्र देवस्थान समिती का गठन किया। बाद में १९५१ से विश्‍वस्त संस्था द्वारा देवस्थान की व्यवस्था देखी जा रही है।

यह थी, तिरुपति के इतिहास की एक झलक! किसी विशिष्ट शासक के बारे में या यहाँ पर हुई किसी जंग के बारे में किसी भी प्रकार का उल्लेख नहीं मिलता। दर असल तिरुपति शहर यहाँ पर आनेवाले श्रद्धालुओं की सहूलियत के अनुसार विकसित होता रहा।

तिरुपति शहर का माहोल व्यंकटेश मंदिर की पवित्रता से ओतप्रोत रहता है। हालाँकि यहाँ का प्रमुख आकर्षण ‘व्यंकटेश मंदिर’ ही है; मग़र साथ ही इस इला़के में कई मंदिर तथा कई पवित्र तीर्थ विद्यमान हैं। तिरुपति के आसपास के इला़के में मिलनेवाली लाल रंग की लकड़ी से यहाँ पर कई तरह के खिलौने बनाये जाते हैं। साथ ही तांबे और पीतल से विभिन्न मूर्तियाँ भी बनायी जाती हैं। आज के तिरुपति की यह एक अनोखी पहचान है।

तिरुपति के दर्शन करने यानि कि तिरुमला पर्वत पर जाने के लिए आपको पूर्वोक्त सात शिखर पार करने पड़ते हैं। आज हम सड़क मार्ग से वहाँ तक जा सकते हैं।

बचपन में तिरुपति के मंदिर के साथ साथ याद आती थीं, तीन बातें। इस मंदिर में मिलनेवाला लड्डू का प्रसाद, यहाँ पर बाल अर्पण करनेवाले भाविक और सबसे अमीर देवस्थान! आज भी ये तीनों बातें तिरुपति के साथ जुड़ी हुई हैं।

इतिहासकालीन साहित्य के साथ साथ सन्तसाहित्य में भी तिरुपति महिमा गायी गयी है। विभिन्न कालखण्ड के आळ्वार सन्तों और वैष्णव आचार्यों ने व्यंकटेशजी की महिमा गायी है।

जिन व्यंकटेशजी के चन्द कुछ पलों के लिए दर्शन करने के लिए भाविक कई घण्टों तक कतार में खड़े रहते हैं और जिनके दर्शन करने से भाविकों का मन सुकून से भर जाता है, उन व्यंकटेशजी की पूर्वपीठिका पढ़कर आपके भी मन में उनके दर्शन करने की चाह और उत्सुकता अवश्य ही बढ़ चुकी होगी, लेकिन उसके लिए सप्तगिरि पार करने पड़ेंगे और तब तक इंतज़ार भी करना पड़ेगा।

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