आँखों की रचना – भाग १  

 मानव की शरीर रचना का परिचय हमने पहले लेख में देखी थी। उसमें दो प्रमुख चीजें थी। एक चेहरे पर सामने रहनेवाली आँखे (अन्य प्राणियों की तरह चेहरे के दोनो बाजू में नहीं ) तथा दो आंखों के मिलन से तैयार एक दृष्टि। मानवों की आँखों की विशेषता यहाँ पर समाप्त नहीं होती। अपनी आँखों में एक ही परदा होता है। अपनी आँखें त्रिमती में वस्तु/चीजें देख सकती हैं। अंधरे में भी देख सकती हैं। दीदों का आकार छोटा-बड़ा करके सामने की दो चीजों में से नजदीक की वस्तु कौन सी है और दूर की वस्तु कौन सी है, यह पहचान सकती हैं। अपनी आँखों को रंगों का ज्ञान होता है। उपरोक्त बातें आँखों की विशेषताओं के कुछ उदाहरण मात्र हैं। (सभी स्तनधारियों में उपरोक्त कुछ विशेषतायें समान हैं ) यह सब आँखों की अर्थात दृष्टि की विशेषतायें हैं परंतु मनुष्यों में और भी कुछ भिन्नताएँ हैं और इन भिन्नताओं को अच्छी तरह से उपयोग करने में दृष्टी का महत्त्वपूर्ण योगदान है। इसके दो उदाहरण हम देखेंगे –

१) मानव द्विपाद है। अन्य प्राणियों में आगे के पैर मानव के हाथ बन गये हैं। आँखें और हाथ एक साथ मिलकर क्या क्या कर सकते हैं, यह यहाँ बातने की आवश्यकता नहीं है।

२) मानव की दूसरी विशेषता है भाषा! भाषा का उपयोग करके मानव एक दूसरे से विभिन्न तरीकों से संपर्क स्थापित करता है।  किसी भी भाषा को आत्मसात करने के कुछ निश्चित चरण, सीढ़ियां हैं। छोटा बच्चा भाषा कैसे सीखता है उस पर उसकी पहली सीढ़ी होती है। सुनना-श्रवण करना तथा दूसरी सीढ़ी होती है देखकर आँखों से अक्षर पहचान करके। उसके बाद बोलना व लिखना। लिखने में दृष्टी व हाथों का संबंध है ही। देखा आँखो का जादू? इसीलिये किसी कवि ने लिख होगा, नयन तेरे जादूगर! चलो अब चलते है इन नयनों की, नेत्रों की दुनिया में विचरण करने।

हमने देखा कि हमें पाँच ज्ञानेंद्रिय हैं। इनमें से नयन अथवा आँख एक ज्ञानेंद्रिय है। अपनी खोपड़ी में नाक के दोनो बगल में एक एक गढ्ढा होता है। इसी गढ्ढे में अपनी आँखें होती हैं। अब हम अपनी आँखों की रचना का सविस्तर अध्ययन करेंगे।

अपनी आँखों के दो मुख्य भाग हैं। पहला भाग है आँखों का गोलाकार भाग (दीदा) जो हमें दिखायी देता है। उसे बाह्य आँख कहा जाता है और इसी के अंदर का भाग, दूसरा भाग होता है। दृकपटल व दृष्टीमज्जा युक्त भाग यानी आंतरिक आँख ही वास्तव में देखनेवाली आँख होती है जिससे हमें सबकुछ दिखायी देता है। यह भाग हमारे मस्तिष्क से सीधा जुड़ा होता हे। इसकी और एक विविधता यह है कि अपने मस्तिष्क का कोई भी भाग हमें बाहर से नहीं दिखायी देता। परंतु आंखों की दृकपटल व दृष्टीमज्जा हम ऑफ् स्कोप द्वारा प्रत्यक्ष देख सकते हैं। आइये, हम इन आँखों के गोलों की रचना का अध्ययन करें।

उपरोक्त आकृती में आँखों की रचना दिखायी गयी है। सामने से पीछे के दृकपअल तक आँखों के विभिन्न भाग व उनके नाम हम आकृति में देख सकते हैं। ये भाग निम्नलिखित हैं –

Layout 1१) स्कलेरा: आँखों के गोलों का सबसे बाहरी भाग। आँखों का यह सबसे ज्यादा चमकदार हिस्सा जो आँख को चारों ओर से ढ़के रहता है। आँखों का गोला व दृष्टीमज्जा जहाँ पर मिलती हैं उस हिस्से में इसकी मोटाई सबसे ज्यादा होती है। अर्थात १ मिमि होती है। सामने की ओर यह कॉरनिया से जुड़ा होता है। चमक व तनाव सहन करने की क्षमता की विशेषताओं के कारण आँखों के आंतरिक दबाव पर नियंत्रण रखने में इसकी सहायता मिलती है।  

२) कॉरनिया: आँखों के सामने के भाग का पारदर्शक परदा। आँखों में प्रवेश करनेवाली प्रकाश किरणों का पहला वक्रीभवन यहाँ पर होता है। यह परदा बाहर की तरङ्ग बर्हिगोल (कॉन्वेक्स) होता है। मध्यभाग में इसकी मोटाई ०५ से ०६ मिमि होती हे तो पेरीङ्गिरी पर १ मिमि होती है। सामने से देखने पर पता चलता है कि कॉरनिया पूर्ण वर्तुलाकार (गोलाकार) न होकर लंबगोलाकृती का होता है। उसका हॉरिझॉन्टल व्यास व्हर्टीकल व्यास से ज्यादा होता है। कॉरनिया कुल पाँच स्तरों का बना होता है।

३) कोरॉईड : आँखों का आंतरिक स्तर। आँखों के पीछे हिस्से के पाँच पष्ठांश भाग पर अंदर से इसका स्तर होता है। यह स्तर अत्यंत पतला होता है। छोटी छोटी अनेक रक्तवाहिनियों का जाल इस स्तर में होता है। इसका रंग गहरा चॉकलेटी होता है। इसके दो कार्य हैं – अ) दृकपटल को आवश्यक मात्रा में रक्त व अन्न पहुँचाना। ब) दृकपटल से गुजरने वाली प्रकाश किरणों का शोषण करन। जिसके कारण इन किरणों का विट्रिअस में परावर्तन नहीं होता। हम सबने उल्लू नामक प्राणी देखा है। उसे अंधकार में स्पष्ट दिखायी देता है तथा उसकी आँखें हरी-हरी होती हैं। इसका तात्पर्य यह है कि उल्लू की कोरॉइड की कुछ पेशियां प्रकाश का तय सीमा में परावर्तन करती है फलस्वरुप आंखें हरे रंग के साथ चमकती हैं। यहीं चीज हम अन्य स्तनधारी प्राणियों में भी देखते हैं। कुत्ता, गाय, बाघ इतयादि की आँखें अंधेरे में चमकती हैं।

४) सिलिअरी बॉडी : आँख के काले दीदे के ऊपर और नीचे दोनों ओर एक एक सिलिअरी बॉडी होती है। सिलिअरी बॉडी के महत्त्वपूर्ण कार्य निम्नलिखित हैं :

अ) दोनों ओर से काले दीदे को संतुलित करना।

ब) ऍकोमोडेशन : अपनी आँखों की यह एक विशेषता है कि हम जिसतरह दूर की वस्तु को स्पष्ट देखते हैं उसी तरह बिल्कुल नजदीक की वस्तु को भी स्पष्ट देख सकते हैं। इसके लिये काला दीदा (पुतली) का आकार बदलना पड़ता है। नजदीक की चीज देखने के लिये पुतली ज्यादा गोलाकार बन जाती है। पुतली के आकार में यह बदलाव सिलिअरी बॉडी के सिलीअरी स्नायुओं के आकुंचन प्रसरण के कारण संभव होता है। जब इन स्नायुओं में आकुंचन होता है तब पुतली का तनाव कम हो जाता है और पुतली फैल जाती है तथा आवश्यकतानुसार आकार धारण कर लेती है। जब स्नायुओं में प्रसरण होता है तो पुलतियों में तनाव ब़ढ़ जाता है तथा पुतली ज्यादा सपाट हो जाती है अथवा पूर्ववत हो जाती है। ऍकोमोशन के बारे में हम अगले लेख में सविस्तर अध्ययन करेंगे।  

क) पुतली व कारनियां के बीच की जगह में जो द्रव पदार्थ होता है (ऍकलियस ह्युमर)। इसमें से बहुतांश द्रव पदार्थ सिलिअरी बॉडी से निकलता है

५) आँखों की पुतलियां अथवा आइरिस : आँख की पुतली अर्थात आँख के अंदर प्रकाश किरण जिस मार्ग से घुसती हैं वह छिद्र व उसके बाजू का परदा। इस परदे को आयरिस तथा छिद्र को प्युपल कहते हैं।इसी परदे की गती के अनुसार छिद्र का आकार तय होता है।  फलस्वरुप आँख में प्रवेश करने वाले प्रकाश का नियमन होता है। कम प्रकाश में यह पतुली ब़ड़ी हो जाती है जिससे ज्यादा मात्रा में प्रकाश आंखों में प्रवेश करता है। प्रखर प्रकाश में पुतली छोटी हो जाती है जिससे आंखों में प्रवेश करनेवाला प्रकाश कम मात्रा में प्रवेश करता है। पुतली का आकार कम से कम १ मिमि तथा ज्यादा से ज्यादा ८ मिमि होता है। इस परदे में दो प्रकार के स्नायु होते हैं। एक वो जो पुतली का आकार छोटा कर देते हैं और दूसरे वो जो पुतली का आकार बड़ा कर देते हैं। हम किसी की आंखों का वर्णन करते समय उसकी पुतलियों के रंग के आधार पर करते हैं। उदा. काला, गुलाबी, नीला इत्यादि रंग परदे के होते हैं। परदे को रंग उसकी कुछ पेशियों के रंग के अनुसार प्राप्त होता है।

६) ऍकविअस ह्युमर कॉरनिया :   पिछला भाग तथा काला दीदा के बीच रिक्त स्थान में यह द्रव पदार्थ होता है। पुतली का परदा इस रिक्त स्थान को दो हिस्सों में विभाजित करता है। यह द्रव पदार्थ को सिलिअरी बॉडी से स्त्रवीत होता है वो रिक्त स्थान के पिछले बाजू से होता हुआ पुतली के छिद्र से बाहरी भाग में आता है। वहाँ से  श्वेम की नली से रक्त में भेजा जाता है। यह द्रव पदार्थ, कॉरनिया व पुतली के उस हिस्से का पोषण करता है जो भाग रक्त से वंचित होता हे तथा यह आँख का दाब निमंत्रित रखता है।

७) व्हिट्रिअस ह्युमर अथवा बॉडी :   पुतली के पीछे का सारा हिस्सा रेटिना तक इस व्हिट्रिअस बॉडी से ज्यादा रहता है। इसमें ९९ प्रतिशत पानी होता है तथा शेष भाग पेशियों से बना होता है। किनारे किनारे यह थोड़ा गाढ़ा व चिपचिपे द्रव के रुप में होता है। यह भाग पारदर्शक होता है। इसके मध्य भाग में दृष्टिमज्जा से लेकर सामने पुतली तक एक नली के आकार की रचना होती है। गर्भावस्था में इसके  अंदर एक शुद्ध रक्त ले जानेवाली रक्तवाहिनी रहती है। बच्चे के जन्म से छः सप्ताह पहले यह रक्तवाहिनी लुप्त हो जाती है।

८) काला परदा या पुतली : संपूर्ण पारदर्शक तथा दोनों ओर से बर्हिगोल (कॉर्नेक्स) भाग आंख का एक हिस्सा होता है। इसके सामने होता है आँखों की पुतलियों का परदा तथा पीदे की ओर बिहट्रिअस बॉडी तथा ऊपर और नीचे की ओर सिलिअरी बॉडी इसे संतुलित रखती हैं। गर्भावस्था में पुतली लगभग गोलाकार होती हैं। व्हिट्रिअस बॉडी से आनेवाली रक्तवाहिनी इसे रक्त प्रदान करती है जिसके बारे में हमने पहले ही अध्ययन किया है। फलस्वरुप इस समय में ये पुतलियां थोड़ी लाल रंग की दिखायी देती है। इस कालावधी में पुतली काङ्गी मुलायम व नाजुक होती हैं। तथा थोड़े से दाब से भी ङ्गूट सकती हैं। बाद के जीवन में पुतलियां पूरी तरह बर्हिगोल, पारदर्शक होती हैं। इन्हें कहीं से भी रक्त नहीं मिलता तथा इनका कोई भी रंग नहीं होता। इस दरम्यान भी पुतली मुलायम व नाजुक होती है। बढ़ती उम्र में इसकी पारदर्शकता कम होती जाती हैं तथा मोतीबिंदु तैयार हो जाता है। इसकी लम्बाई, चौडाई कैसे बदलती है, ये देंखें। जन्म के समय इसकी चौड़ाई अथवा मोटाई साडे छः मिमि होती है। उम्र के १५ सालों में यह मोटाई बढकर ९ मिमि बन जाती है तथा उम्र के नवें दशक में साढे नौ मिमि। वहीं जन्म के समय इसकी लम्बाई साढे तीन से ४ मिमि होती है। उम्र के नवेदशक तक इसकी लम्बाई ज्यादा से ज्यादा ५ मिमि तक होती है। पुतली की वक्रीभवन शक्ती उसके आकार के अनुसार बदलती रहती हैं। इसके बारे में जानकारी हम अगले लेख में प्राप्त करेंगे।

९) रेटिना अथवा रेटायना : मस्तिष्क की पेशियों अथवा मज्जापेशियों से बना हुआ दिमाग का यह भाग मस्तिष्क के जाणीव (आभास, अहसास ज्ञान) का भाग है। यह दृकपटल अत्यंत पतला होता है। इसकी ज्यादा से ज्यादा मोटाई ०.५६ मिमि होती है। इसके बाहर से इस पर कोरोईड का आवरण होता है तथा अंदरी से इसक सामने व्हिट्रिअस बॉडी होती है। इसके मध्य में थोडा ङ्गीके पीले रंग का गहरा भाग होता है। इसे फोबिया कहते हैं। जब इस पर वस्तु की प्रतिमा पड़ती है तो वह बिल्कुल सुस्पष्ट दिखायी देती है। जहाँ पर दृष्टिमज्जा अथवा ऑपटिक नर्व्ह दृष्टिपटल से संलग्न होती है, उस भाग को ऑप्टिक डिस्क कहा जाता है। इस पर फोटोरिसेपटर्स अर्थात बाह्य वस्तुओं से आनेवाली किरणों का अध्ययन करने वाली पेशी नहीं होती है। फलस्वरुप यहाँ पर तो बाह्य वस्तुओं की प्रतिमा बनती ही नहीं है। इसीलिये इसे ब्लाईंड स्पाट कहते हैं। अपने दृष्टिपटल पर ही बाह्य वस्तुओं की प्रतिमा बनती हैं और उस प्रतिमा का योग्य अध्ययन करके उसका निष्कर्ष निकालने का काम अपना मस्तिष्क करता है। जाहिर है कि यदि किसी प्रकार की बीमारी अथवा अन्य किन्हीं कारणों से यदि यह दृष्टिपटल अपना कार्य ठीक से नहीं कर सका तो हमें कुछ भी दिखायी नहीं देगा, अर्थात हम अंधे हो जायेंगे। आंखों के मुख्य गोलों व उसके विभिन्न भागों का हमने अध्ययन किया। उनकी रचना, एक दूसरे से संबंध देखेंगे। इसके बाद हम अध्ययन करेंगें आँखों के गढ्ढे में, आँखों के अगल-बगल परंतु उससे संबंधित जो कुछ अवयव हैं, उनकी जानकारी अगले लेख में लेंगे।

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