हृदय एवं रक्ताभिसरण संस्था – २०

आज हम हमारे शरीर की लिंफॅटिक संस्था का अध्ययन करेंगें।

लिंफॅटिक संस्था, रक्ताभिसरण संस्था की पूरक संस्था है। पेशियों के बीच की जगह का द्राव (Interstitial fluid) लिंफॅटिक नलिका के द्वारा पुन: रक्त में भेजा जाता है। महत्त्वपूर्ण बात यह है कि इस द्राव में उपस्थित प्रथिने तथा अन्य बड़े अणु (particulate matter) जिन्हें रक्तवाहिनी में फिर से शोषित नहीं किया जाता, वे इस लिंफॅटिक नलिका द्वारा पुन: रक्त में पहुँचाये जाते हैं। पिछले लेख में हमने देखा कि केशवाहिनियों से कुछ मात्रा में प्रथिने बाहर निकलती हैं परन्तु वे पुन: शोषित नहीं की जाती। ऐसी प्रथिने सिर्फ लिंफॅटिक नलिका के माध्यम से ही फिर रक्त में पहुँचती है। यह काफी महत्त्वपूर्ण है क्योंकि यदि रक्त में वापस आने के लिये प्रथिनों यह मार्ग बंद हो जाये तो मनुष्य चौबीस घंटों के अंदर ही मर सकता है।

लिंफॅटिक संस्थात्वचा का ऊपरी आवरण, मस्तिष्क, एन्डोमायसिअम (स्नायु एवं अस्थि दोनों के) इत्यादि अवयवों को छोड़कर शेष सारे शरीर में लिफॅटिक नलिका होती है। उपरोक्त अपवाद वाली जगहों पर सूक्ष्म नलिकाएँ होती हैं। इन्हें प्री-लिंफॅटीक अथवा लिंफॅटिक पूर्ण नलिका कहते हैं। ये नलिकायें अंतत: लिंफॅटिक नलिका से ही जुड़ी होती हैं। सिर्फ मस्तिष्क में यह द्राव सिरेब्रोस्पायनल द्राव के माध्यम से रक्त में आता है। छाती के पिंजरे के ऊपरी भाग में बांयी और दांयी ऐसी दो मुख्य लिंफॅटिक नलिकायें होती हैं। ये नलिकायें छाती में जुग्युलर वेन्स से जुड़ी होती हैं। छाडी के नीचे शरीर का पूरा हिस्सा, बायां हाथ, सिर और गर्दन का बांया भाग तथा बांयी छाती, इन सभी भागों का लिंफ (लिंफॅटिक नली से बहनेवाले द्राव को लिंफ कहते हैं) बांयी मुख्य नलिका में आता है। सिर और गर्दन का दाहिना भाग, दांया हाथ और दांयी छाती का लिंफ दांयी मुख्य नलिका में आता है।

केशवाहिनियों से बाहर निकलनेवाले कुल द्राव में से एक दशांश द्राव लिंफॅटिक संस्था के माध्यम से पुन: रक्त में आता है। वापस आते समय यह द्राव अपने साथ प्रथिनों जैसे बड़े अणुवाले घटकों को लाता है।  यह लिंफॅटिक केशवाहिनियों की विशिष्ट रचना के कारण संभव होता है। लिंफॅटिक केशवाहिनियों के बाहर के आवरण में फ्लॅप वाल्व होते हैं। ये वाल्व सिर्फ केशवाहिनियों के अंदर की ओर खुलते हैं। इंटरस्टिरिशियल द्राव और उसके घटकों के दबाव के कारण ये वाल्व खुलते हैं और यह द्राव अंदर चला जाता है। इस द्राव का दबाव अंदर से इस वाल्व को बंद करता है, जिसके कारण द्राव फिर बाहर नहीं निकल पाता। लिंफॅटिक नलिका से यह द्राव वेन्स की दिशा में ही जायेगा, ऐसी एक दिशा व्यवस्था प्रदान करने वाले वाल्व, संपूर्ण नलिका में जगह-जगह पर होते हैं।

लिंफॅटिक द्राव अथवा लिंफ में प्रथिनों की मात्रा साधारणत: इंटरस्टिशिअल द्राव में प्रथिनों की मात्रा के बराबर ही होती है। यह मात्रा साधारण तौर पर २ ग्राम प्रति लीटर होती हैं। परन्तु यकृत एवं आँतों की लिंफॅटिक नलिका में यह मात्रा काफी ज्यादा यानी ४ से ६ ग्राम प्रतिलीटर होती है। इसीलिये अंतिम मुख्य लिंफॅटिक नलिका में यह मात्रा लगभग ३ ग्रॅम प्रतिलीटर होती है।

साधारणत: १२० मिली लिंफ प्रतिघंटा रक्त में प्रवेश करता है। यानी दिन में लगभग २ से ३ लीटर लिंफ तैयार होता है। लिंफ का प्रवाह मुख्यत: दो बातों पर अवलंबित होता है।

१) इंटरस्टिशिअल द्राव का दाब और २) लिंफॅटिक नलिका के वाल्व तथा स्नायुओं की पंपिंग क्रिया।

इंटरस्टिशिअल द्राव का दाबाव जितना ज्यादा होता है उतना ही लिंफॅटिक नलिका से लिंफ का प्रवाह ज्यादा होता है। साथ ही साथ पंपिंग की क्रिया जितनी जोरदार उतना ही प्रवाह ज्यादा होता है।

इंटरस्टिशिअल द्राव का दबाव प्रथिनों की मात्रा, इंटरस्टिशिअल द्राव की कुल मात्र अथवा वॉल्युम व इंटरस्टिशिअल द्राव का दाब इन तीनों चीजों पर लिंफॅटिक संस्था नियंत्रण करती है अथवा रखती है।

हमने देखा कि केशवाहिनियों से थोड़ी मात्रा में प्रथिने बाहर निकलती हैं, परन्तु वे पूर्णत: फिर शोषित नहीं की जाती। इसके कारण इंटरस्टिशिअल द्राव में प्रथिनों की मात्रा बढ़ जाती हैं। इस बढ़ी हुई प्रथिनों के कारण इस द्राव का कोलॉइड ऑस्मॉटिक प्रेशर बढ़ जाता है जो केशवाहिनियों से और भी ज्यादा द्राव बाहर खींचता है। इसके परिणाम स्वरूप इंटरस्टिशियल द्राव की मात्रा बढ़ जाती है। उसका दबाव भी बढ़ जाता है। इन सबके परिणामस्वरुप उपरोक्त कथन के अनुसार लिंफॅटिक नलिका में ज्यादा मात्रा में द्राव प्रवेश करता है। इसके साथ-साथ प्रथिने भी इस नलिका में प्रवेश करती हैं और इंटस्टिशिअम में स्थिति पूर्ववत हो जाती है। इस प्रकार लिंफॅटिक संस्था इंटरस्टिशिअम में व्यवस्थित संतुलन बनाये रखती है।

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