कान की रचना एवं कार्य

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हम हमारी आँखों की जादुई दुनिया की सैर कर चुके हैं| अब हम कान के बारे में जानकारी प्राप्त करेंगे। जी हॉं आज से हम अपने कानों की अर्थात कर्णेन्द्रियों की जानकारी लेंगे। कान, पॉंच ज्ञानेंद्रियों में से एक है और महत्त्वपूर्ण है। अपनी पांचों ज्ञानेन्द्रियां जीवनभर हमें खूब अनुभव देती हैं। काफी ज्ञान प्रदान करती हैं। इन ज्ञान के कणों को एकत्रित करने की पहली सी़ढ़ी है कर्णेन्द्रिय। इसकी शुरुआत गर्भावस्था से ही हो जाती है। मॉं के पेट में बढने वाला गर्भ, मॉं अथवा अन्य किसी के उससे बोलने पर, वो उस स्थिती में भी वे बोल ग्रहण करता रहता है। धीरे धीरे बोलना, गुस्सा करना, शांत सुरीले संगीत, नामस्मरण , इत्यादि सभी बातें यह गर्भ सुन सकता है तथा इन सबका इस पर उचित अथवा अनुचित परिणाम होता है, यह वैद्यकीय सत्य है। महाभारत काल में अभिमन्यु की कथा तो सभी को पता ही है। जनम के बाद छोटा बच्चा अलग बगल की सभी बातें सुनता रहता है। मानवों की भाषा/बोली सुनकर बच्चा सर्वप्रथम इसे आत्मसात करता है। फिर बोलना शुरु करता है। भाषा सुने बगैर बोला नहीं जा सकता। इसीलिये जन्मतः बहरे बच्चे गूंगे हो जाते हैं। वे जन्म से बहरे नहीं होते। इससे यह स्पष्ट होता हे कि श्रवण यानी सुनना ज्ञान की प्रथम सीढ़ी है। भक्तिमार्ग में भी श्रवण ही पहिली सीढ़ी है। ऐसा है इन श्रवणेन्द्रियों का महत्त्व ! अब हम इनकी रचना की जानकारी लेंगे।

अपने कानों के अथवा श्रवणेंद्रियों के उनकी रचनानुसार व कार्यानुसा तीन भाग किये जाते हैं:

  1. बाह्य कर्ण (एक्सटरनल इयर)
  2. मध्य कर्ण (मिडल इयर)
  3. अंतःकर्ण (इंटर्नल इयर)

अब हम इसकी सविस्तर जानकारी लेंगे।

1) बाह्य कर्ण

इसके दो मुख्य भाग है। पहला वह भाग जिसे हम कान कहते हैं अर्थात कान का बाहरी हिस्सा (एक्सटरनल मिथस्)। कान का यह भाग ध्वनिहलरों को एकत्र करता है तथा उन्हें बाह्यमुखद्वार से मध्यकर्ण तक पहुँचाता है।

अ) कान का बाहरी हिस्सा : गर्भ की प्रारंभिक अवस्था में यह गर्भ की गरदन पर होता हैं धीरे धीरे ऊपर की ओर सरकते हुये अंततः वो अपनी नियोजित जगह पर पहुँच जाता है अर्थात सिर के दोनों तरफ एक एक करके स्थिर हो जाते हैं। इसका सामने का भाग सखोल तथा पीछे का भाग फुला हुआ होता है। सामने के भाग में असंख्य उभार एवं उतार होते हैं। कान का यह भाग कूर्चा (कार्टिलेज) का बना होता है और उसके नीचे का अंतिम भाग जो मुलायम होता है वहीं पर अपने कान छेदे जाते हैं। कान के इस भाग में छोटे छोट स्नायु होते हैं। इनके कार्यानुसार कान का बाहरी भाग आगे-पीछे, ऊपर नीचे हिलाया जा सकता है। परंतु मानवों में बहुधा कान की हलचल ध्यानाकर्षित करने जैसी नहीं होती हैं।

ब) बाह्यश्रवण अथवा ध्वनिमुख अथवा नलिका : कान के बाहरी भाग कोंबा नामक जो भाग हाता है वहॉं से यह नलिका शुरु होती है तथा कान के परदे के पास समाप्त होती है। इसकी लम्बाई साधारणतः ढ़ाई (२ १/२) सेमी होती है। एक ओर से देखने पर यह अंग्रेजी के ‘एस’ अक्षर जैसी दिखायी देती है। इसके बाहर का १/३ भाग मांसल और अंदर का २/३ भाग हड्डियों का होता है। बाहरी १/३ भाग की तुलना में अंदर का हड्डियों युक्त भाग संकरा होता है। कान के बाहरी भाग की त्वचा के अंदर ये नलिकाएं चारों ओर होती हैं और उन्हें तानकर रखा गया होता है। इस तना के कारण इस त्वचा में किनहीं भी कारणों से यदि सूजन आ जाती है तो उसका जोरदार दर्द होता है। इसी बाहरी भाग में ही कुछ बाल होते हैं। त्वचा में सेरुमिनस ग्रंथी होती हैं। इस ग्रंथी से लगातार सेरुमिन नामक द्रव का रिसाव होता रहता है। इसको ही हम वॅक्स अथवा कान का मैल कहते हैं। कानों के बाल तथा सेरुमिन मिलकर अंदर जानेवाली हवा को छानकर भेजते हैं तथा उसे गरम रखते हैं। फलस्वरुप कान के पर्दे की क्रियाएं सुलभ हो जाती हैं। इस नली के दूसरे सिरे पर यह पर्दा होता है। यह परदा सीधा न होकर नलिका के ऊपर की दिशा में बाहर की ओर थोडा झुका हुआ होता है।

2) मध्य कर्ण अथवा टिंपॅनिक कॅव्हिटी

खोपडी के दोनों ओर की हड्डियों को टिंपॅनिक बोन्स कहते हैं। इस रचना में गढ्ढा होता है, जो थोडा टेढ़ा मेढ़ा सा होता है| यह गढ्ढा अर्थात मध्य कर्ण, कान के परदे के अंदर की ओर से शुरु होने वाला यह गढ्ढा अंत:कर्ण तक होता है। इसके कॉकलिया कहते हैं। इसमें छोटी छोटी हड्डियां होती हैं। इन हड्डियों की एक श्रृखंला होती है। शुरुआत की हड्डी कान के परदे से शुरु होती है और अंतिम तीसरी हड्डी अन्दर के कान की कॉकलिया भाग से जुडी हुयी होती है। इसके अतिरिक्त गले व कान को जोड़ने वाली एक छोटी नलिका होती है। इसका मुँह मध्य कर्ण में खुलता है। नलिका को युस्टॅशियन नलिका भी कहते हैं। मध्यकर्ण की यह छोटी छोटी हड्डियां, परदे से टकराने वाली ध्वनि लहरें इसी के माध्यम से अंतकर्ण तक पहुँचाती हैं। युस्टॅशियन नलिका कान के परदे पर बाहरी एवं अंदरूनी हवा का दाब एक समान रखने का काम करती है।

मध्यकर्ण की लम्बाई लगभग १५ मिमि होती है तथा चौड़ाई ६ मिमि होती है। बाहरी की तरह कान का परदा होता है तथा अंदर की ओर अथवा शरीर के मध्य भाग की ओर अंतःकर्ण होता है। इसके पीछे मॅहटाईड हवा की थैलियां होती हैं तथा सामने की ओर युस्टॅशियन नलिका होती है।

कान का परदा – यह पतला, अर्ध पारदर्शक होता है। लंबवर्तुलाकार आकार का यह परदा बहुतांश स्थनों पर ताना हुआ होता है। इसका थोड़ा सा भाग फैला हुआ होता है और यहीं पर उसमें छेद पड़ने की संभावना ज्यादा होती है। युस्टॅशियन नलिका ३६ मिमि लम्बी होती है। यह नलिका गले और मध्यकर्ण को जोड़ती है| इस नलिका के कारण मध्यकर्ण में जंतुओं का प्रादुर्भाव बारंबार हो सकता हैं। नाक/गले के जीवाणु यहॉं पहुँचकर बीमारी फैलाते हैं अथवा गले का प्रार्दुभाव ही यहॉं पहुँचता है और तैयार हो चुका पीप प्राङ्म: कान के परदे को छेदकर बाहर निकलता है। उसी तरह यदि खोपडी के मध्यभाग में किसी कारणवश अस्थिभंग हो जाता है तो भी कान का परदा फट सकता है। इसीलिये यदि जंतु संसर्ग केसिवा यदि कान से रक्तस्त्राव काफी समय तक शुरु रहता है तो उसका कारण यह अस्थिभंग भी हो सकता है।

3) आंतरकर्ण

शरीर के मध्यभाग से ज्यादा करीब रहनेवाला कान का यह भाग है। इसके मुख्यतः दो भाग हैं। प्रमि भाग हड्डियों का बना हुआ होता है तथा दूसरा भाग पतले परदे का बना होता है। प्रथम भाग के तीन उप भाग होते हैं। उनके नाम हैं – वेस्टिब्यूल, तीन अर्धवर्तुलाकार नलिकाएँ और कॉकलिया।

वेस्टिब्यूल साधारणतः ५ मिमि बाय ५ मिमि बाय ३ मिमि आकार की होती है। तीनों अर्धवर्तुलाकार (सेमीसर्क्युलर) नलिकाएं साधारणतः १२ मिमि से २२ मिमि लम्बी होती है। वहीं कॉकलिया ५ मिमि बाय ८ मिमि आकार का होता है। इससे हमारे ध्यान में आता है कि आकार में कितने छोटे छोटे होते हैं ये अवयव, परंतु इनके कार्य कितने बड़े हैं। यह सभी अवयव भीतर से खाली होते हैं । इसके अंदर पतले परदे या पट्टियों से बने भाग होते हैं। इन भागों में से ही विविध ध्वनिलहरों का उचित ज्ञान करनेवाली मज्जापेशियां एवं मज्जातंतु होते हैं, जो मस्तिष्क के योग्य हिस्से तक यह संदेश पहुँचाते हैं। उपरोक्त तीनों विभागों के पतले परदे से बने ये अवयव, अंदर से एक दूसरे से जुड़े होते हैं। इन सबमें एन्डोलिम्फ नामक द्रव पदार्थ होता है।

यहॉं तक हमने हमारे कानों की रचना देखी| अब हम उसके कार्यों का अध्ययन करेंगे।

(क्रमशः)

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