आगरतला भाग – २

आसमान से खींची गयी फोटो में छोटी-सी दिखायी देनेवाली उस स़फेद रंग की वास्तु की ओर प्रशस्त और चौड़े रास्ते से जब हम चल पड़ते हैं, तभी उस वास्तु की भव्यता का थोड़ाबहुत अन्दा़जा हमें हो जाता है और उसकी वास्तविक भव्यता हमें ठेंठ उसके सामने खड़े होने के बाद ही दिखायी देती है।

पिछले लेख के अन्त से हमारी उत्सुकता को बढ़ानेवाली यह वास्तु है – आगरतला का पॅलेस, जिसका नाम है, ‘उज्जयन्त’।

यह उज्जयन्त पॅलेस उस जमाने के त्रिपुरा के राजाओं का निवासस्थान हुआ करता था। विस्तृत भूभाग पर फैले इस पॅलेस का निर्माण हुए एक सदी बीत गयी। इस पॅलेस का निर्माण करने से पहले त्रिपुरा के राजा जिस पॅलेस में रहते थे, वह आगरतला से लगभग १० कि.मी. की दूरी पर था। इसवी १८९७ से हुए शक्तिशाली भूकंप में यह पॅलेस ढह गया। उसके बाद इसवी १८९९ में आगरतला शहर के बीचोंबीच इस पॅलेस का निर्माण शुरू किया गया। इसके निर्माण का श्रेय त्रिपुरा के उस समय के महाराजा राधाकिशोर माणिक्य को जाता है। इसवी १९०१ मे इस पॅलेस का निर्माणकार्य पूरा हो गया। इस पॅलेस के निर्माण के लिए उस समय तक़रीबन १० लाख रुपैये खर्च हुए, ऐसा कहा जाता है।

आगरतलादो-मंजिला होनेवाले इस पॅलेस के रचनाकार सर अलेक्झांडर मार्टिन थे और इसका निर्माणकार्य  मेसर्स मार्टिन अँड कंपनी द्वारा किया गया। उस समय भारत के विभिन्न प्रान्तों में वास्तुओं के निर्माण में विभिन्न वास्तुशैलियों का उपयोग किया जाता था। इस पॅलेस के रचनाकार ने इसका निर्माण करते हुए विभिन्न वास्तुशैलियों का इस्तेमाल किया है। इस बेहतरीन और भव्य ऐसे दो-मंजिला पॅलेस पर ३ गोल गुंबद है। इनमें से मँझले गुंबद की ऊँचाई है, ८६ फीट। यानि कि यह पॅलेस जितना विशाल है, उतना ही ऊँचा भी है। कामकाज की सुविधा के लिए इस पॅलेस में दरबार हॉल, लायब्ररी, रिसेप्शन हॉल आदि कई रचनाएँ हैं। यहाँ की जमीन पर टाईल्स का इस्तेमाल किया गया है और इस वास्तु की सुन्दरता में चार चाँद लगाने का काम यहाँ के नक़्काशीदार दरवा़जें करते हैं।

इस पॅलेस के अहाते में लक्ष्मी-नारायण, उमा-महेश्‍वर, काली, जगन्नाथ आदि कई देवताओं के मन्दिर हैं। ये सभी निःसंशय उस जमाने के राजाओं के उपास्य देवता रहे होंगे। पॅलेस के सामने कुछ ही दूरी पर दोनों ओर एक-एक विशाल तालाब है, जो हमेशा पानी से भरे हुए रहते हैं। लेकिन इनके बारे में इससे ज्यादा जानकारी उपलब्ध नहीं होती। और हाँ, जिस बड़े रास्ते से होकर हम इस पॅलेस तक आये, वह रास्ता इन दो तालाबों के बीच से होकर ही गु़जरता है।

यह था उज्जयन्त पॅलेस, जो त्रिपुरा के राजाओं का निवासस्थान था और फिलहाल यह पॅलेस त्रिपुरा राज्य विधिमंडल (लेजिसलेटीव्ह असेंब्ली) का स्थान है।

पुराने जमाने में जब इलेक्ट्रिसिटी नहीं थी, तब गर्मी में लोग क्या करते होंगे, ऐसा सवाल कभी कभी मन में उठता है। शायद उस जमाने की गर्मियाँ इतनी ते़ज नहीं होती होंगी। लेकिन हमारे देश के कई राजा-महाराजाओं ने अपने लिए इसका हल ढूँढ़ लिया था और वह भी कुदरत की सहायता से ही। क्या आप सोच में पड़ गये कि यह उन्होंने किस प्रकार किया होगा? जलमहलों का निर्माण कर। जलमहल यानि कि पानी में बनाये गये महल। किसी विशाल सरोवर या तालाब में ऐसे पॅलेसों का निर्माण किया जाता था और फिर ये राजा-महाराजा अपने लवाजमे के साथ गर्मियों के महीने इन जलमहलों में बिताते थे। इसका उत्तम उदाहरण राजस्थान में देखने को मिलता है। राजस्थान में ऐसे कई लेक पॅलेस हैं।

तो अहम बात यह है कि ईशान्यी राज्यों में होनेवाला यह एकमात्र लेक पॅलेस इस आगरतला शहर से चन्द ५३ कि.मी. की दूरी पर है। त्रिपुरा के माणिक्य राजवंश के राजा ने इसका निर्माण किया था।

आगरतला से लगभग ५३ कि.मी. की दूरी पर ‘रुद्रसागर’ नाम का एक सुन्दर तालाब है। इसी तालाब में इसवी १९३० में उस समय के शासक महाराजा बीर बिक्रम किशोर माणिक्य ने एक पॅलेस बनाया, जो ‘नीरमहल’ (पानी में बनाया गया महल) इस नाम से जाना जाने लगा।

इस पॅलेस के आधे हिस्से में बग़ीचा है और दूसरे आधे हिस्से में राजा का निवासस्थान है। लगभग १५ दालानोंवाले इस नीरमहल तक मोटरबोट से पहुँचा जा सकता है।

चलिए, अब फिर से आगरतला शहर लौटते हैं और उज्जयन्त पॅलेस के क़रीब के ‘कुंजबन’ में विहार करते हैं। दरअसल कुंजबन यह एक छोटी-सी हरीभरी पहाड़ी है, जो मुख्य पॅलेस से मह़ज १ कि.मी. की दूरी पर है। प्राकृतिक सुन्दरता से भरपूर ऐसी इस पहाड़ी पर इसवी १९१७ में महाराजा बीरेन्द्र किशोर माणिक्य ने एक पॅलेस का निर्माण किया और उसका नाम रखा गया ‘पुश्बंत’। इसका निर्माण राजाओं के विश्राम के लिए किया गया था। लेकिन यह इस पॅलेस की खुशक़िस्मती कह सकते हैं कि यहाँ पर गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टागोर ने निवास किया था। कहा जाता है कि गुरुदेव टागोर लगभग ७ बार आगरतला आये थे। इस पॅलेस के पूरब की ओर के दालान में वे रहते थे। आज यह पॅलेस ‘कुंजबन पॅलेस’ के नाम से जाना जाता है और आज यह त्रिपुरा के गव्हर्नर(राज्यपाल) का अधिकृत निवासस्थान बन चुका है। इसी कारण अब इसे ‘राजभवन’ भी कहा जाता है।  आज के राजभवन के दक्षिणी विभाग को रवींद्रनाथ टागोरजी की याद में ‘रवींद्र कानन’ यह नाम दिया गया है और सैलानी उसे देख सकते हैं।

दरअसल आगरतला यह सुन्दर बगीचों का, सुन्दर राजमहलों का, विशाल और सुन्दर तालाबों का हराभरा शहर है।

त्रिपुरा के विभिन्न इलाक़ों में और पहाड़ियों पर बसी विभिन्न जनजातियाँ और ‘माणिक्य’ इस बिरुद को धारण करनेवाला राजवंश ऐसे दो भिन्न सांस्कृतिक पहलु रहनेवाले इस राज्य में आगरतला इस राजधानी का जन्म हुआ और भारत के आज के आधुनिक शहरों की तरह इस शहर का भी विकास हो रहा है और विस्तार भी। लेकिन इन सबके साथ साथ इस शहर ने अपनी पुरानी त्रिपुरी संस्कृति को भी  जतन किया है।

त्रिपुरा में पुराने जमाने से कई जनजातियाँ बस रही हैं, जैसे कि त्रिपुरी, जमातिया, रिंग, चकमा, हलम, गारो, लुशाई, मुंडा, संथाळ, मुरासिंग आदि। इसी कारण त्रिपुरा और वहाँ के जनजीवन पर इन जनजातियों की संस्कृतियों का का़फी गहरा प्रभाव है। इस सांस्कृतिक प्रभाव के कारण ही कोक्बोरोक यह आगरतला में प्रचलित एक प्रमुख भाषा है। पश्‍चिम बंगाल के पास रहने के कारण यहाँ बंगाली भाषा का भी प्रचलन है।

आगरतला में होनेवाले तीन पॅलेस यह शहर की पहचान हैं। शहर से कुछ ही दूरी पर कुछ महत्त्वपूर्ण प्राचीन मन्दिर हैं और उज्जयन्त पॅलेस के आहाते में भी कई मन्दिर हैं।

पुराने आगरतला शहर में यानि कि विद्यमान शहर से १४ कि.मी. की दूरी पर ‘१४ देवियों का मन्दिर’ है, जहाँ पर साल में एक बार ‘करचि’ नाम का उत्सव मनाया जाता है।

जिन त्रिपुरसुन्दरी के नाम से इस राज्य का नाम ‘त्रिपुरा’ हुआ, उनका मन्दिर उदयपूर (त्रिपुरास्थित) में है। यह ५१ शक्तिपीठों में से एक माना जाता है और इस स्थान के आकार के कारण यह ‘कूर्म पीठ’ नाम से जाना जाता है। इसीको ‘माताबरी मन्दिर’ कहते हैं। इस मन्दिर में देवी की भिन्न ऊँचाई की दो समान मूर्तियाँ हैं। इसवी १५०१ में  धन्य माणिक्य नामक राजा ने इस मन्दिर का निर्माण किया। इस मन्दिर के पास ही ‘कल्याण सागर’ नाम का एक तालाब है और यहाँ पर मछली पकड़ने पर पाबंदी होने के कारण इस तालाब में कई बड़े आकार की मछलियाँ और कछुएँ दिखायी देते हैं।

१७वी सदी में गोमती नदी के तट पर गोविन्द माणिक्य नामक राजा द्वारा बनाया गया ‘भुवनेश्‍वरी का मन्दिर’ है। उदयपूर में स्थित यह मन्दिर आगरतला से ५०-५५ कि.मी. की दूरी पर है। इस मन्दिर की रचना बहुत ही अनोखी और ख़ास है। आगरतला के वर्णन में यदि ‘उनकोटी’ का वर्णन न किया जाये, तो यह वर्णन निश्चित ही अधूरा रह जायेगा।

हमने गुफाओं में कई देवताओं के शिल्प और तराशी हुई मूर्तियाँ जरूर देखी होंगी। लेकिन उनकोटि में देवताओं के शिल्प शिलाओं पर ही बनाये गये हैं। मानो आकाश को ही मण्डप बनाकर उसके नीचे जमीन पर खड़ी बड़ी बड़ी शिलाओं पर इन शिल्पों को खोदा गया हो। इनमें से सबसे प्रमुख और बड़ा शिल्प है शिवजी का। इस ‘उनकोटीश्‍वर कालभैरव’ के शिल्प की ऊँचाई ३० फीट है। शिलाओं पर खोदे गये मूर्तियों के साथ साथ ही पत्थर तराशकर बनायी गयीं मूर्तियाँ दिखायी देती हैं।

‘उनकोटी’ का अर्थ है, करोड़ में 1 कम। इस विषय में एक कथा ऐसी बतायी जाती है कि एक बार 1 करोड़ देवता, जिनमें शिवजी भी शामिल थे, काशी जा रहे थे। रात में उन सभी ने यहाँ पर विश्राम किया। सुबह जब प्रस्थान करने का समय हुआ, तब शिवजी ने देखा कि वे अकेले ही जाग गये हैं। बाकी देवताओं को सोते हुए देखकर उन्होंने उन्हें वहीं पर पाषाणवत् रहने का आदेश देकर वे अकेले ही काशी के लिए निकल पड़े। कहा जाता है कि तभी से उनकोटी में ‘करोड़ में एक कम’ इतनी संख्या में शिल्प मौजूद हैं।

एक बात तो निश्चित है, आगरतला यह शहर प्राकृतिक, सांस्कृतिक, ऐतिहासिक, भौगोलिक आदि सभी दृष्टि से सम्पन्न ही है, उसमें किसी भी बात की कमी नहीं है।

Leave a Reply

Your email address will not be published.