कोणार्क भाग – १

बचपन में एक कहानी हम सब ने अवश्य सुनी होगी। दिन कैसे उगता है? तो सूर्यभगवान जब अपने रथ में सवार होकर आकाश में आते हैं, तब दिन की शुरुआत होती है। इस रथ को आगे ले जाते हैं, उस रथ के सात सफ़ेद घोड़ें और रथ के सारथी रहते हैं, ‘अरुण’। सारथी के साथ रथ में सवार सूर्यभगवान गगन में विचरण करते हैं और वे जब घर लौट जाते हैं, तब दिन ढल जाता है। बचपन में सुनी यह कहानी मन को बहुत ही भा गयी और सूर्य, उनका रथ, उनके रथ के घोड़ें और उनके सारथी इस ‘काँबिनेशन’ ने मानों अपनी मुहर ही मन पर लगा दी।

आगे चलकर सूर्य के बारे में वैज्ञानिक जानकारी भी मिलती रही; मग़र फिर भी सूर्य और उनके रथ की छवि अमिट रही। इसी दौरान इस रथ के पहिये के बारे में किताबों अख़बारों और दूरदर्शन आदि द्वारा जानकारी प्राप्त हुई और यह भी ज्ञात हुआ कि यह पहिया एक सूर्यमंदिर का प्रतीक है। बचपन की यादें फिर एक बार ताज़ा हो गयीं। यह सूर्यमंदिर कहीं दूर नहीं है, बल्कि हमारे भारत के ओरिसा राज्य में ही है और वह मशहूर है, ‘कोणार्क का सूर्यमंदिर’ इस नाम से!

कोणार्क! वैसे ति कोणार्क यह कोई बहुत बड़ा शहर तो नहीं है, वह है ओरिसा का एक साधारण सा गाँव। लेकिन आज कोणार्क दुनिया भर में मशहूर है, वहाँ के विशाल सूर्यमंदिर के कारण।

प्रत्येक हितकारी एवं उपकारी निसर्गशक्ति को भारतीयों ने देवता मानकर पूजा है। तो ङ्गिर हमारी पृथ्वी के लिए और साथ ही समूची सृष्टि के लिए बहुत ही महत्त्वपूर्ण रहनेवाले सूर्य को ईश्‍वर मानकर उनकी पूजा करना यह स्वाभाविक ही है। सूर्यपूजन की संकल्पना का विस्तार होकर वह सूर्यमंदिरों के रूप में स्थिर हो गयी और इसी दौरान कोणार्क जैसे विशाल सूर्यमंदिर का निर्माण हुआ।

दर असल कोणार्क और सूर्य इनका रिश्ता इतना दृढ़ है कि ‘कोणार्क’ इस शब्द में ही सूर्य का एक नाम है।

‘कोणार्क’ यानि कि ‘कोण + अर्क’! ‘अर्क’ यह सूर्य का नाम है। ‘कोणार्क’ का अर्थ है- कोणस्थ अर्क अर्थात् हर एक कोने को व्याप्त करनेवालें सूर्यभगवान।

ओरिसा राज्य में पुरी अर्थात् जगन्नाथपुरी से लगभग ३०-३५ कि.मी. की दूरी पर कोणार्क बसा है। बंगाल के उपसागर का सान्निध्य भी कोणार्क को प्राप्त हुआ है।

सूर्यभगवान

प्राचीन समय से कोणार्क यह एक ‘पवित्र क्षेत्र’ तथा ‘सूर्यक्षेत्र’ के रूप में जाना जाता है। कोणार्क को ‘पद्मक्षेत्र’ भी कहा जाता था। इस संदर्भ में एक कथा भी कही जाती है। गयासुर नाम के असुर का वध करने के बाद भगवान विष्णु ने उनके सुदर्शन चक्र को ‘भुवनेश्‍वर’ में, गदा को ‘जाजपूर’ में, शंख को ‘जगन्नाथपुरी’ में रख दिया और पद्म यानि कि कमल को ‘कोणार्क’ में रख दियाऔर इसी कारण कोणार्क ‘पद्मक्षेत्र’ इस नाम से जाना जाने लगा।

पद्मक्षेत्र होने के बावजूद भी कोणार्क का संबंध हमेशा ही सूर्य इस नाम के साथ रहा है। कोणार्क के ‘अर्कक्षेत्र’, ‘कोनार्क’, ‘कोणादित्य’, ‘कोनारक’ ये नाम इसी बात को स्पष्ट करते हैं। इससे यह भी साबित होता है कि प्राचीन समय से सूर्यपूजकों के लिए यह बहुत ही महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है।

जिस तरह कोणार्क का उल्लेख धार्मिक वाङ्मय में मिलता है, उसी तरह कई यात्रियों के सफ़रनामों में भी मिलता है। कोणार्क से सागर बस कुछ ही किलोमीटर्स की दूरी पर है। कहा जाता है कि पुराने समय में कोणार्क यह शायद एक बंदरगाह होगा और यहाँ से विदेशों के साथ व्यापार भी हो रहा होगा।

हालाँकि कोणार्क यह प्राचीन समय से पद्मक्षेत्र, सूर्यक्षेत्र इन नामों से विख्यात है, मग़र फिर भी कोणार्क की ख्याति हुई, यहाँ पर १३वीं शताब्दी में बनाये गये विशाल सूर्यमंदिर के कारण। यह विशाल सूर्यमंदिर उस समय समुद्र में से भी दिखायी देता था और नाविकों द्वारा इस संदर्भ में किये गये उल्लेख भी प्राप्त होते हैं। यह मंदिर उनके लिए एक महत्त्वपूर्ण मार्गदर्शक चिह्न था।

ब्रह्मपुराण, कपिलसंहिता, वराहपुराण, सांबपुराण, भविष्यपुराण जैसे कई ग्रन्थों में कोणार्क के सूर्यक्षेत्र होने के उल्लेख मिलते हैं।

पुराणों में सूर्यपूजन के संदर्भ में एक कथा प्रतिपादित की गयी है। श्रीकृष्ण का पुत्र सांब बहुत ही सुंदर था। किसी कारणवश शापग्रस्त होकर वह कुष्ठरोग से पीड़ित हुआ। इससे मुक्त होने के लिए श्रीकृष्ण ने उसे मैत्रेयवन में जाकर सूर्य की आराधना करने के लिए कहा। सांब की उपासना से प्रसन्न होकर सूर्यदेव ने उसे अपने (सूर्य के) २१ नामों का जाप कर चंद्रभागा नदी में स्नान करने की आज्ञा दी। स्नान करते समय सांब को कमल के आसन में विराजमान सूर्य की एक मूर्ति मिल गयी। सांब ने वहीं नदी के तट पर उसकी प्राणप्रतिष्ठा कर मंदिर बनवाया। सूर्यदेव की आराधना करने से सांब पूरी तरह शापमुक्त हो गया। कुछ लोगों की राय से सांब ने जहाँ सूर्यदेव की आराधना की, वह जगह थी, आज का कोणार्क!

सूर्य एक देवता तो हैं ही, साथ ही उनका संबंध रोगनाशन के साथ भी जोड़ा गया है। आगे चलकर फिर इस विशाल मंदिर का निर्माण किया गया। वैद्यकशास्त्र में भी सूर्य के रोगनाशक गुणधर्मों का वर्णन मिलता है।

१३वी सदी में जिन ‘नरसिंहदेव’ नामक राजा ने इस विशाल सूर्यमंदिर का निर्माण किया, वे गंग राजवंश के राजा थे। कहा जाता है कि ९वी सदी में यहाँ पर सूर्यमंदिर का निर्माण किया गया था और १३वीं सदी में उसीको नरसिंहदेव ने विशाल स्वरूप दिया।

यह गंग राजवंश कलिंग देश का शासक था। पुराने समय में यह राजवंश गंगा और दामोदर नदियों के बीच के इला़के में, मगध के पूर्वीय प्रदेश में बसा हुआ था। आगे चलकर गंग राजवंश दो शाखाओं में विकसित हुआ। उनमें से एक शाखा ने दक्षिण में राज्यविस्तार किया और दूसरी शाखा कलिंग पर राज कर रही थी। गंग राजाओं का समय साधारणत: ५वीं सदी के बाद का माना जाता है। इस वंश के राजा बहुत ही बहादुर थे और साथ ही काव्यशास्त्र, धर्मशास्त्र, शिल्पकला, स्थापत्य इनमें भी माहिर थे। विशाल रचनाओं का निर्माण करना यह मानों उनका ध्येय ही था। इस राजवंश के शासनकाल में ही पुरी के जगन्नाथ मंदिर का और कोणार्क के सूर्यमंदिर का निर्माण हुआ।

गंग राजवंश के इतिहास में ही कोणार्क के इतिहास की झलक दिखायी देती है। कोणार्क पर गंग राजवंश का शासन तो था; लेकिन कोणार्क कभी भी उनकी राजधानी नहीं थी। कोणार्क का अतीत बस एक ही बात से जुड़ा हुआ है और वह है, यहाँ का विशाल सूर्यमंदिर!

१३वी सदी में काले पत्थारों से बनाये गये इस मंदिर को बनाने में कई वर्षों की अवधि लगी थी। नरसिंहदेव ने स्वयं की बारह वर्ष की आमदनी (उस समय के साधारणत: छत्तीस करोड़) इसके निर्माणकार्य में खर्च की थी। लगभग १२०० कारीगर दिनरात इस कार्य में जुटे थे और उनकी मेहनत से सूर्यभगवान का यह विशाल रथ साकार हुआ।

कैसा है सूर्यदेव का भूतल पर साकार हुआ यह रथ? ७ घोड़ों और पहियों की १२ जोड़ियों से यह रथ बना है। रथ में सूर्यभगवान विराजमान हैं यानि कि सूर्यभगवान की मूर्ति यहाँ स्थापित की गयी है। कहा जाता है कि मंदिर की रचना के ये सात घोड़ें सात वारों का (सोमवार, मंगलवार आदि) अथवा सात रंगों का (इंद्रधनुष्य के सात रंग) प्रतीक हैं। १२ पहियें बारह महीनों का प्रतीक हैं। हर एक पहिये के ८ आरें हैं और प्रत्येक आर प्रहर का प्रतीक है। दिन के ८ प्रहर इस तरह दर्शाये गये हैं। संक्षेप में, कभी भी छुट्टी न लेते हुए निरन्तर काम करनेवाले सूर्य के काम की ही यह समय सारिणी (टाईमटेबल) है।

दर असल भारत के लिए सूर्यमंदिर यह नयी संकल्पना नहीं है। साधारणत: तीसरी शताब्दी के अन्त में ग्वालियर के सूर्यकुंड के तट पर एक सूर्यमंदिर का निर्माण किया गया था। पाँचवीं शताब्दी में मध्यप्रदेश के मंदसौर में एक सूर्यमंदिर का निर्माण किया गया। इनके अलावा कश्मीर के मार्तंडक्षेत्र का सूर्यमंदिर, गुजरात- मोढेरा का सूर्यमंदिर; पाटण, गया, झाशी, जगेश्‍वर आदि कई स्थानों पर सूर्यमंदिरों का निर्माण किया गया था। फिर कोणार्क का सूर्यमंदिर इतना मशहूर क्यों है? आज उसकी गणना ‘वर्ल्ड हेरिटेज’में की जाती है।

अब आपके मन में इस सूर्यमंदिर को देखने की उत्सुकता यक़ीनन जागृत हो ही चुकी होगी। चलिए, तो फिर देखते हैं, इस सूर्यमंदिर को। लेकिन आज बातों बातों में इतना समय बीत गया कि सूर्यमहाराज का रथ वापस उनके घर लौट भी गया। और उन्हींका मंदिर देखना हो, तो उनका साथ होना ज़रूरी है। है ना! ठीक है, तो कुछ देर के लिए उनका इंतज़ार करते हैं।

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