चेन्नई भाग-६

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इस सृष्टि के सभी जीवों में मनुष्य यह सबसे बुद्धिमान समझा जाता है। मनुष्य ने अपनी बुद्धि की सहायता से विभिन्न अनुसन्धान कर अपने जीवन को अधिक से अधिक आसान बनाने के प्रयास किए। रोजमर्रा के जीवन में मनरंजन के उद्देश्य से फिर मनुष्य ने विभिन्न कलाओं को जन्म दिया। इसी निर्माणप्रक्रिया के दौरान दो प्रमुख कलाओं का उदय हुआ, नृत्यकला एवं संगीत। दरअसल नृत्य एवं संगीत अधिकांश बार एक-दूसरे के साथ ही जुड़े हुए रहते हैं। हमारे भारत में जन्मे चार अभिजात नृत्यप्रकारों में से एक है, ‘भरतनाट्यम्’।

दक्षिणी भारत और भरतनाट्यम् इनके बीच बहुत गहरा सम्बन्ध है। जिस चेन्नई शहर के बारे में हम जानकारी प्राप्त कर रहे हैं, उस शहर का भरतनाट्यम् के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध है। पुराने जमाने में यह नृत्य ‘सदिरनाट्य’ इस नाम से जाना जाता था। दक्षिणी भारत में इस नृत्यकला को मंदिरों में प्रस्तुत किया जाता था। साथ ही, राजाओं के दरबारों में भी इसका प्रस्तुतीकरण होने के कारण एक तरह से इस कला को उस समय राजाश्रय प्राप्त था। यह नृत्यशैली लगभग दो हजार वर्ष प्राचीन है, ऐसा मत है।

Pg12_Nartakiकुछ लोगों के मतानुसार भरतनाट्यम् का सम्बन्ध नाट्यशास्त्रकार भरतमुनि के साथ जोड़ा जाता है, वहीं ‘भ’ अर्थात् ‘भाव’, ‘र’ अर्थात् ‘राग’ तथा ‘त’ अर्थात् ‘ताल’ इस प्रकार भरतनाट्यम् इस शब्द का अर्थ प्रतिपादित किया जाता है। इसका अर्थ है कि भाव, राग तथा ताल इनकी सहायता से प्रस्तुत किया जानेवाला नाट्य ही ‘भरतनाट्यम्’ है।

लेकिन जैसे-जैसे समय बदलता गया, वैसे-वैसे इस नृत्य की स्थिति प्रतिकूल होती गई। उन्नीसवी सदी के उत्तरार्ध में परकीय शासनकाल में इस कला के विरुद्ध किये गये अपप्रचार के कारण इस कला को दुर्भाग्य के दिन नसीब हुए। इस अपप्रचार के कारण सामान्य भारतीय जनता तो इस नृत्य से दूर हो ही गई, लेकिन साथ ही इस नृत्य का दर्जा घटता चला गया। उसी समय ई. कृष्ण अय्यर नामक एक उच्चशिक्षित व्यक्ति द्वारा इस कला के उद्धरण के लिए अभियान की शुरुआत की गई। इसीके परिणामस्वरूप साधारणतः १९३६-३७  के दौरान रुक्मिणीदेवी और कलानिधि इन मद्रास की दो लड़कियों ने इस नृत्य के क्षेत्र में प्रवेश किया और यहीं से आगे भरतनाट्यम् को पुनः एक बार उसका पुराना दर्जा प्राप्त होने लगा।

जिस प्रकार भरतनाट्यम् ने अपना वही पुराना स्थान पुनः हासिल किया, वैसे वैसे इस नृत्यशैली की शिक्षा प्रदान करनेवाली कईं संस्थाओं का उदय हुआ। इग्मोरस्थित ‘इंडियन इन्स्टिट्यूट ऑफ फाइन आर्ट्स’ एवं ‘कलाक्षेत्र’ ये उल्लेखनीय संस्थाएँ हैं।  इनमें से ‘कलाक्षेत्र’ इस संस्था की स्थापना ऊपरउल्लेखित रुक्मिणीदेवी अरुंडेल इन्होंने की। १९३६-३७  के दौरान ‘कलाक्षेत्र’ की स्थापना की गई। ‘कलाक्षेत्र’ के माध्यम से भारतीय नृत्य का जतन, उसका प्रचार एवं प्रसार किया जाने लगा।

जैसे कि हम देख ही चुके हैं कि नृत्य एवं संगीत ये दो कलाएँ हमेशा एक-दूसरे के साथ ही जुड़ी रहती हैं। जिस प्रकार मद्रास-चेन्नई शहर ने भरतनाट्यम् का जतन किया, उसी प्रकार कर्नाटकी संगीत का भी जतन इसी शहर ने किया।

इसवी १९२७ में मद्रास में ‘अखिल भारतीय संगीत सभा’ का आयोजन किया गया था। इस सभा के बाद संगीत का जतन करने के उद्देश्य से किसी संस्था की स्थापना करनी चाहिए, ऐसा तय किया गया। इसके फलस्वरूप १९२८ में ‘मद्रास म्युझिक अ‍ॅकॅडमी’ की स्थापना की गयी। इस अ‍ॅकॅडमी के माध्यम से संगीत का जतन करने के लिए, संगीत को सामान्य मनुष्य तक पहुँचाकर उन्हें आनन्द प्रदान करने के लिए हरसंभव प्रयास शुरू हुए और हर वर्ष दिसम्बर महिने में मद्रास में संगीत सभाओं का आयोजन किया जाने लगा। ऐसी पहली संगीत सभा अथवा संगीत उत्सव १९२७ के दिसम्बर में मद्रास में संपन्न हुआ।

आज इस अ‍ॅकॅडमी का कार्यालय उनकी दो इमारतों में है। इस अ‍ॅकॅडमी ने संगीत की शिक्षा देनेवाली संस्था की स्थापना भी की है। साथ ही इस म्युझिक अ‍ॅकॅडमी के द्वारा संगीत के क्षेत्र में प्रशंसनीय कार्य करनेवाले व्यक्तियों को सम्मानित किया जाता है। १९२९ से इस अ‍ॅकॅडमी के द्वारा ‘संगीत कलानिधि’ नामक पुरस्कार प्रदान किया जा रहा है और ‘एम्. एस्. सुब्बलक्ष्मी’ इस पुरस्कार द्वारा सम्मनित की गयी प्रथम महिला थीं। फिर १९९३ से इस अ‍ॅकॅडमी द्वारा ‘संगीतकला आचार्य’ यह पदवी भी प्रदान की जाने लगी। साथ ही, यहाँ पर शिक्षा ले रहे विद्यार्थियों के लिए यहाँ पर एक लायब्ररी का निर्माण भी किया गया है और संगीत विषय में यहाँ अनुसन्धान भी किया जाता है।

चेन्नई में हर वर्ष दिसम्बर-जनवरी के समय नृत्य तथा संगीत उत्सव का आयोजन किया जाता है। जिसकी शुरुआत १९२७ में हुई, यह हमने देखा ही है। इस दौरान पूरे चेन्नई शहर में जगह-जगह पर नृत्य एवं संगीत के कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है। इन उत्सवों में कई कलाकार अपनी कला रसिकों के सामने प्रस्तुत करते हैं। इस उत्सव में सैंकड़ों कार्यक्रम पेश किये जाते हैं और उनमें हजारों की तादाद में कलाकार हिस्सा लेते हैं। इस कारण यह उत्सव मानों रसिकों के लिए एक विशेष पर्व ही होता है।

चाहे नृत्यकला हो या संगीत, भारतीयों ने प्राचीन काल में इस कला को मंदिर अर्थात् भगवान के अधिष्ठान से जोड़कर रखा था, क्योंकि नृत्य हो या संगीत, मंदिरों में इनमें से जो कुछ प्रस्तुत किया जाता था, वह भगवान के चरणों में ही अर्पित होता था। इसीलिए उसकी पवित्रता तथा शुचिता अबाधित रहती थी।

वैसे देखा जाये, तो भारत के किसी भी शहर में कईं मंदिर तो होते ही हैं। लेकिन दक्षिणी भारत के मंदिर अपनी उत्कृष्ट शिल्पकारी के लिए प्रसिद्ध हैं। दक्षिणी भारत के मंदिरों का नाम लेते ही याद आती है, ऊँचे-ऊँचे गोपुरों की और मंदिर के मुख्य प्रवेशद्वार पर स्थित कईं देवदेवताओं के शिल्पों की। अर्थात् चेन्नई शहर भी इसे अपवाद नहीं है। चेन्नई शहर में भी कईं मंदिर है और उनमें से कुछ मंदिर प्रसिद्ध हैं।
इसवी आठवी सदी में पल्लव राजाओं द्वारा निर्मित और ग्यारहवी सदी में विजयनगर के राजाओं द्वारा सुधारित ‘पार्थसारथि मंदिर’। चेन्नई के ट्रिप्लीकेन विभाग में यह मंदिर है।

पार्थसारथि अर्थात् पार्थ के सारथि, अर्थात् अर्जुन के सारथि – श्रीकृष्ण। पार्थसारथि इस नाम से ही मंदिर की प्रमुख देवता कौन है, इस बात का पता चलता है। महाविष्णु के पार्थसारथि अर्थात् श्रीकृष्ण रूप की यहाँ पर अर्चना की जाती है। श्रीकृष्ण यहाँ पर पार्थ के सारथि के रूप में हैं। इसी कारण यहाँ की मूर्ति के हाथ में श्रीकृष्ण का सुदर्शनचक्र नहीं है, क्योंकि ‘मैं युद्ध में शस्त्र नहीं उठाऊँगा’ ऐसे भगवान श्रीकृष्ण ने कहा था, इसीलिए इस मूर्ति के हाथ में केवल शंख है और एक खास लेकिन महत्त्वपूर्ण बात यह है कि कृष्ण की इस मूर्ति की मूछें हैं।

ऐसी आख्यायिका है कि वेंकटेश्वर ने सुमति नामक राजा को ‘पार्थसारथि’ स्वरूप में दर्शन देने का वचन दिया था और उसके अनुसार इस स्थान पर वेंकटेश्वर ने ‘पार्थसारथि’ रूप धारण किया।

एक ऐसी भी आख्यायिका है कि रामानुजजी के मातापिता ने इसी मंदिर में आकर अपत्यप्राप्ति के लिए भगवान से प्रार्थना की थी और उसके पश्चात रामानुजजी का जन्म हुआ।

सारांश यह है कि भगवान का पार्थसारथि रूप अर्थात् महाभारत युद्ध में अर्जुन का सारथ्य करनेवाले श्रीकृष्ण और उसी अर्जुन को महाभारत युद्ध के दौरान ‘गीता’ का उपदेश करनेवाले श्रीकृष्ण, अर्थात् अपने श्रेष्ठ भक्त को ‘युद्धाय कृतनिश्चयः’ ऐसी सीख देनेवाले भगवान; और इसीलिए उनके हाथ में केवल उनका युद्धसमय का वाद्य अर्थात् ‘शंख’ है।

इस मंदिर में श्रीकृष्ण के साथ अन्य देवताएँ भी हैं। इस मंदिर में सालभर इन सभी देवताओं के विभिन्न उत्सवों का आयोजन किया जाता है। ‘अळ्वार’ सन्तों की परम्परा के ‘पेय् अळ्वार’ तथा ‘तिरुमंगै अळ्वार’ इन्होंने इस मंदिर की देवताओं पर कईं भक्तिरचनाएँ की हैं।

‘श्रीपार्थसारथिस्वामी’ यह इस मन्दिर की प्रमुख देवता है। इनका उत्सव ‘ब्रह्मोत्सव’ के नाम से अप्रैल-मई महीने में मनाया जाता है।

इस स्थान को तमिल भाषा में ‘तिरु-अल्ली-कर्णी’ कहा जाता है और इसके विषय में ऐसी कथा बताई जाती है कि युद्ध के पश्चात् श्रीकृष्णजी ने इस स्थान पर आकर यहाँ के ‘अल्ली’ नामक ङ्गूलों के सरोवर के समीप विश्राम किया था और इसी कारण यह स्थान ‘तिरु-अल्ली-कर्णी’ नाम से जाना जाने लगा।

चेन्नई शहर ने हाल ही में २००७  में ३६८ वर्ष पूरे किए। ३६८ वर्षों के इस प्रवास में यह शहर एक छोटे गाँव से लेकर आज आधुनिक भारत का  २१वी सदी का एक महत्त्वपूर्ण शहर बन चुका है। लेकिन इस प्रवास के दरमियान इस शहर ने अपने इतिहास के कईं चिह्नों को जतन किया है।

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