चेन्नई भाग-५

Untitledपिछले भाग में हमने शिक्षा प्रदान करनेवाली चेन्नईस्थित संस्थाओं के बारे में जानकारी प्राप्त करना शुरू किया। मद्रास मेडिकल कॉलेज की स्थापना तथा विस्तार इससे हम पिछले भाग में परिचित हुए।

अंग्रे़जों ने भारत में आने के बाद यहाँ विभिन्न शिक्षासंस्थाएँ स्थापित की, अस्पतालों का निर्माण किया। खुदकी सुविधा की दृष्टि से उन्होंने यह सब बातें की, क्योंकि भारत में उनके शासन में सहायकारी स्थानिक लोगों की उन्हें आवश्यकता थी। अंग्रे़जों द्वारा की गईं इन सुविधाओं के कारण भारतीयों को बाकी दुनिया के साथ सम्पर्क स्थापित करना आसान हो गया।

इसी मद्रास में जुलाई १९३८ में स्टॅन्ले मेडिकल कॉलेज की स्थापना की गयी। हालाँकि यह कॉलेज १९३८ में स्थापित हुआ, फिर  भी उससे जुड़ा हुआ अस्पताल यह तक़रीबन २००  साल पुराना है, ऐसा माना जाता है। लगभग १७४० के आसपास ईस्ट इंडिया कंपनी का मेडिकल डिपार्टमेन्ट इस रूप में इस अस्पताल की शुरुआत हुई। उस समय एक स्थानिक अस्पताल अर्थात् उसी प्रदेश तक सीमित रहनेवाला छोटासा अस्पताल इतना ही इस अस्पताल का स्वरूप था। इसवी १८३६ में मद्रास युनिवर्सिटी ने इस स्थानिक अस्पताल में वैद्यकीय शिक्षा प्रदान करनेवाले कोर्सेस शुरू किए। इसवी १९११ में यहाँ के छात्रों को सर्वप्रथम ‘लायसन्स्ड् मेडिकल प्रॅक्टीशनर’ यह डिप्लोमा की पदवी प्रदान की गई। इसवी १९३३ में यहाँ ५ साल का वैद्यकीय शिक्षा का डिप्लोमा शुरू किया गया और इस कोर्स का उद्घाटन सर जॉर्ज स्टॅन्ले इनके द्वारा किया गया। इन्हीं स्टॅन्ले का नाम इस कॉलेज को दिया गया।

इस प्रकार मार्गक्रमणा करते हुए आज यह कॉलेज और उसका अस्पताल अपनी कुछ स्पेशालिटीज् (विशेषता) के लिए विख्यात हैं। यहाँ के युरॉलॉजी, गॅस्ट्रोएन्ट्रॉलॉजी तथा प्लॅस्टीक सर्जरी ये विभाग अपने उत्कृष्ट कार्य के लिए मशहूर हैं।

हर एक मनुष्य को जिन्दगी में कभी ना कभी वैद्यकीय सुविधा की जरूरत पड़ती ही है। इसी कारण जैसे जैसे किसी भी शहर का निर्माण तथा विकास होने लगता है, वैसे वैसे अधिकांश बार सबसे पहले अस्पतालों का निर्माण होता है, यह बहुत बार देखा गया है। मद्रास मेडिकल कॉलेज तथा स्टॅन्ले मेडिकल कॉलेज इन उदाहरणों से हम यह आसानी से समझ सकते हैं।

मद्रास में १७९४  में एक इंजिनियरिंग कॉलेज शुरू हुआ। फिर  एक के बाद एक कईं इंजिनियरिंग कॉलेज शुरू हुए। इन सभी इंजिनियरिंग कॉलेजों को एक सूत्र बनाकर उनकी एक युनिवर्सिटी बनायी गयी। यह युनिवर्सिटी ‘अण्णा युनिव्हर्सिटी’ इस नाम से जानी जाती है। इसवी १९७८  में स्थापित हुई इस युनिवर्सिटी में शुरुआत में चार इंजिनियरिंग कॉलेज थें और ऊपरउल्लेखित कॉलेज उन्हीं में से एक था। इस युनिवर्सिटी का मूल नाम ‘पेररीग्नार अण्णा युनिव्हर्सिटी ऑफ टेक्नॉलॉजी’ था, आगे चलकर जिसका नाम ‘अण्णा युनिवर्सिटी’ ऐसा किया गया।

इसका इतिहास काफी रोचक है। हमने अभी इसवी १७९४  में स्थापित हुए इंजिनियरिंग कॉलेज के बारे में पढ़ा। उस समय यह कॉलेज केवल ८  विद्यार्थियों को लेकर सेंट जॉर्ज क़िले के पास एक बिल्डींग में शुरू किया गया था और आज इस युनिवर्सिटी की विभिन्न शाखाओं में से हर वर्ष लगभग  ६५००० छात्र इंजिनियर यह पदवी प्राप्त करते हैं। भारत में मेकॅनिकल इंजिनियरिंग का कोर्स शुरू करने का श्रेय इस युनिवर्सिटी को जाता है। और एक वैशिष्ट्यपूर्ण बात यह है कि इस युनिवर्सिटी का अपना खुद का रेडियो चॅनल है।

भारत के शिक्षाक्षेत्र में आय.आय.टी. का स्थान अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। इंडियन इन्स्टिट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी अर्थात् आय.आय.टी.। भारत में कुल ७ आय.आय.टी. शिक्षासंस्थाएँ हैं।

मद्रास में आय.आय.टी. की स्थापना १९५९ में हुई। ‘आय.आय.टी.  मद्रास’ में आज तक़रीबन ३६० विभाग, १००  लॅबोरेटरीज् तथा ४००० छात्र हैं।

इसी मद्रास में इसवी १८३५ में दो धर्मोपदेशकों द्वारा एक स्कूल खोला गया और इसी स्कूल का रूपान्तरण आगे चलकर कॉलेज में हुआ। ‘मद्रास ख्रिश्‍चन कॉलेज’ की स्थापना इस प्रकार हुई। यहाँ पर विज्ञान, कला एवं वाणिज्य (सायन्स, आर्ट्स एवं कॉमर्स) इन तीनों शाखाओं की शिक्षा प्रदान की जाती है।

विज्ञान, कला एवं वाणिज्य इन शाखाओं की शिक्षा प्रदान करनेवाले ‘लोयोला कॉलेज’ की स्थापना १९२५  में की गयी। इसकी स्थापना एक फ्रेंच जेसुइट ने अपने उच्चशिक्षित अन्य सहकर्मियों की मदद से की।

चेन्नईस्थित अड्यार इस स्थान पर दुनिया की सबसे बड़ी लेदर इन्स्टिट्यूट है, जिसका नाम ‘सेन्ट्रल लेदर रिसर्च इन्स्टिट्यूट’ है।

शिक्षा प्रदान करनेवाली चेन्नईस्थित इतनी सारी संस्थाओं के बारे में जानने के बाद अब हम एक अन्य रोचक विषय के सन्दर्भ में जानकारी प्राप्त करते हैं।

चेन्नई और क्रिकेट इनका क्या सम्बन्ध है, ऐसा किसी क्रिकेट जानकार से पूछा जाये, तो उसे निश्चित ही याद आयेगा, ‘एम.ए.चिदंबरम् स्टेडियम’। पहले यह स्टेडियम ‘मद्रास क्रिकेट क्लब ग्राऊंड’ या ‘चेपक स्टेडियम’ इस नाम से जाना जाता था।

१० फरवरी १९३४  को यहाँ पर पहला मॅच खेला गया। १९५२ में इंग्लंड के विरुद्ध भारत ने टेस्ट मॅचों में अपनी पहली जीत इसी स्टेडियम पर द़र्ज की। १९८६  में भारत और ऑस्ट्रेलिया के बीच खेली गयी टाय टेस्टमॅच (दोनों पक्षों की बराबरी जिस मॅच में होती है) का यह स्टेडियम साक्षी है। क्रिकेट के इतिहास में यह दूसरी टाय मॅच थी और इसी मैदान पर हाल ही में अर्थात् मार्च महीने के आख़िर में वीरेन्द्र सेहवाग ने त्रिशतक बनाया तथा राहुल द्रवीड़ ने अपने टेस्ट जीवन के १०००० रन पूरे किए।

टेनिस की सबसे बड़ी प्रतियोगिता चेन्नई में हर साल आयोजित की जाती है। सन १९९६ में शुरू हुई यह प्रतियोगिता सामान्यतः जनवरी के महीने में होती है।

डॉ. अ‍ॅनी बेझंट का नाम जिसके साथ जुड़ा हुआ है, उस ‘थीओसोफिकल सोसायटी’ का मुख्यालय अड्यार में ही है।

‘तिरुवल्लूवर’ नामक, पूर्वसुरियों में वर्णित सन्तकवि की स्मृति को चेन्नई में अत्यन्त सुन्दर रूप से जतन किया गया है।
चेन्नईस्थित यह स्थान ‘वल्लूवर कोट्टम्’ नाम से जाना जाता है।

हालाँकि तमिलनाडू के इस सन्त के कालखण्ड के बारे में निश्चित जानकारी उपलब्ध नहीं है, लेकिन उनका कालखण्ड १८०० वर्ष पूर्व का माना जाता है। उनके मातापिता का नाम आदी तथा भगवान ऐसा था। अत्यन्त बुद्धिमान तथा शान्त वृत्ति के लिए ये सन्त बचपन से ही मशहूर थें। वे तथा उनकी पत्नी वासुकी मैलापुर में रहकर वस्त्र बुनने का व्यवसाय करते थें।

तिरुवल्लूवरजी के बारे में एक कथा ऐसी बतायी जाती है कि एक बार अपने बुने हुए वस्त्रों को बेचने के लिए वे बा़जार गये थें। हमेशा आवारागर्दी करते रहनेवाले एक साहुकारपुत्र ने उनमें से एक वस्त्र को उठाकर उसकी कीमत पूछी। तिरुवल्लूवरजी ने उसकी कीमत बतायी। फिर  उस साहुकारपुत्र ने उस वस्त्र को बीचोंबीच फाड़कर उसके आधे टुकड़े की कीमत पूछी। तिरुवल्लूवरजी ने उसे उसकी भी कीमत बतायी। यह सिलसिला चलता रहा और अन्ततः उस साहुकारपुत्र ने पूरा का पूरा वस्त्र ही फाड़ दिया और शुरू में उस वस्त्र की जो कीमत बतायी गयी थी, वह तिरुवल्लूवरजी को देने लगा। इतना होने के बावजूद भी तिरुवल्लूवरजी बिल्कुल शान्त ही थें और उन्होंने साहुकारपुत्र से पैसा लेने से इनकार कर दिया। लेकिन साथ ही साथ, एक वस्त्र के निर्माण में रुई उगानेवाले किसान से लेकर उस वस्त्र को बुननेवाले और उसे बेचनेवाले तक हर एक के श्रम जुटे हुए होते हैं, इस बात का उस साहुकारपुत्र को एहसास दिलाया और साथ ही उसे यह भी एहसास दिला दिया कि उसके इस कृत्य से उन सबके व्यर्थ हुएँ श्रमों की क्षतिपूर्ति, उसके दिये हुए पैसों से कभी नहीं हो सकती। लेकिन इस घटना से उस साहुकारपुत्र को अपनी ग़लती का एहसास हो गया और आगे चलकर वही साहुकारपुत्र अपने पिता की इच्छा से तिरुवल्लूवरजी से रो़ज उपदेश ग्रहण करने लगा।

तिरुवल्लूवरजी द्वारा प्रतिपादित ऐसे अनेक नीतिवचनों का संग्रह आगे चलकर ‘कुरल’ नामक ग्रन्थ के रूप में विख्यात हुआ।

इसी सन्तकवि की स्मृति में चेन्नई में १९७६ में ‘वल्लूवर कोट्टम्’ का निर्माण किया गया। तिरुवल्लूवरजी का यह ‘कुरल’ नामक ग्रन्थ ‘तिरुक्कुरल’ इस नाम से भी जाना जाता है।

‘वल्लूवर कोट्टम्’ की रचना किसी मन्दिर के रथ के समान है। ‘तिरुक्कुरल’ इस ग्रन्थ में वर्णित  १३३ अध्यायों की १३३०  चौपाइयाँ यहाँ पर अंकित की गयी हैं और यहाँ पर तिरुवल्लूवरजी का पुतला भी है।

यह था हमारा आज का चेन्नई का प्रवास, जो कि शुरू हुआ ज्ञान प्रदान करनेवाली संस्थाओं से लेकर, और आकर रुका ज्ञान प्रदान करनेवाले सन्त तक।

Leave a Reply

Your email address will not be published.