हृदय व रक्ताभिसरण संस्था- ०९

आज हम हृदय की बायीं बाजू के बारे में जानकारी प्राप्त करेंगे। अत: बायीं एट्रिअम से शुरुआत करते हैं।

बायीं एट्रिअम : यह दाहिनी एट्रिअम से आकार में छोटी होती है। परन्तु इसकी दीवारें दांयी एट्रिअम की दिवारों की तुलना में ज्यादा मोटी होती है। इनकी मोटाई साधारणत: ३ मिमी होती है। यह एट्रिअम, दायी एट्रिअम के बांयी ओर और पीछे की ओर होती है। इसके ऊपरी हिस्से में पीछे की ओर कुल चार पलमनरी वेन्स खुलती हैं। नीचे की ओर एट्रिओ-वेंट्रिक्युलर ऑरिफ़िस अथवा मुख होता है। यहाँ पर स्थित वाल्व को माइट्र्ल वाल्व कहा जाता है।

बायीं वेंट्रिकल : इस वेंट्रिकल की रचना इसके कार्यों के अनुरूप होती है। उच्च रक्तदाब वाले शरीर की आरटरीज में इसे रक्त प्रवाहित करना होता है। इसीलिए इस वेंट्रिकल की दीवारें ज्यादा मोटी होती हैं। इसका आकार किसी शंकु जैसा अथवा अर्धलंबवर्तुलाकार होता है। दायी वेंट्रिकल की तुलना में यह ज्यादा लम्बी परंतु संकरी होती है। इसकी दीवारों की मोटाई ८-१२ मिमी यानी दायी वेंट्रिकल की तुलना में तीन गुना होती है। अंदरूनी खाली भाग लंबवर्तुलाकार अथवा गोल भी होता है।

अंर्तगत रचना में इसके भी इनलेट और आऊटलेट ऐसे दो भाग होते हैं। इनलेट, एट्रिआ और वेंट्रिकल को एक साथ जोड़ता है। यहाँ पर स्थित वाल्व को माइट्रल अथवा बायकस्पिड वाल्व कहते हैं। बांयी एट्रिअम में से रक्त इस वाल्व में होता हुआ बांयी वेंट्रिकल में आता है। यह वेंट्रिकल के प्रसरण के दौरान होता है। इस दौरान रक्त का प्रवाह वाल्व में से हृदय के अ‍ॅपेक्स की ओर होता है। वेंट्रिकल का आकुंचन शुरू हो जाते ही माइट्रल वाल्व बंद हो जाता है। हृदय का रक्त तेज़ी से एवं निश्‍चित दबाव के साथ शरीर की मुख्य धमनियों में धकेला जाता है। इस क्रिया के दौरान वेंट्रिकल के आऊटलेट में स्थित एओर्टिक वाल्व खुल जाता है। बांयी वेंट्रिकल में स्थित ये वाल्व एकदूसरे से सटे हुए तथा जुड़े हुए होते हैं।

माइट्रल वाल्व : इसका मुँह ट्रायकस्पिड वाल्व की तुलना में छोटा होता है। साधारणत: पुरुषों में इसकी परिघि ९ सेमी तथा स्त्रियों में ७.२ सेमी होती है।

इस वाल्व में दो पर्दे होते हैं। इसीलिये इसे बायकस्पिड़ कहते हैं। इसके सामने का परदा थोड़ा मोटा होता हैं। वेंट्रिकल के डायस्टोल में, एट्रिआ के अंदर से आनेवाले रक्क्त को हृदय के अपेक्स तक पहुँचाने का काम यह पर्दा करता है। वेंटट्रिकल का सिस्टोल यानी आकुंचन के समय वेंट्रिकल के रक्क्त को एओटार्र् में डायरेक्ट करने का काम करता है।

माइट्रल वाल्व के पर्दों में भी टेंडिनस कार्ड जुड़े हुये होते हैं। पॅपिलरी स्नायु सिर्फ़ दो ही होते हैं।

अब हम देखेगें की यह वाल्व कैसे खुलता या बंद होता है। वेंट्रिकल के डायस्टोल में वेंट्रिकल में दबाव कम हो जाता है। एट्रिआ में दबाव ज्यादा होता है। अत: वाल्व के पर्दे वेंट्रिकल में खुल जाते हैं और रक्त वेंट्रिकल में प्रवेश करता है। एट्रिआ जब आकुंचित होता है तब ये पर्दे खुले ही रहते हैं। वेंट्रिकल में आकुंचन सबसे पहले पॅपिलरी स्नायु में होता है। फ़िर बाये में संपूर्ण वेंट्रिकल के स्नायु आकुंचित होते हैं। ऐसी स्थिति में वेंट्रिकल के अंदर दबाव बढ़ जाता है और ये पर्दे बंद हो जाते हैं यानी फ़िर से एक-दूसरे के पास आ जाते हैं। पॅपिलरी स्नायु और कार्डी टेडिनी इन पर्दों को मजबूती से पकड़ कर रखते हैं। फ़लस्वरूप ये एट्रिआ में नहीं खुलता है। इसे इस वाल्व का कॉम्पिटन्स कहा जाता है।

एओर्टिक वाल्व : इसकी रचना भी पलमनरी वाल्व की ही तरह होती है। इसमें भी अर्धचंद्र आकार वाले तीन पर्दे होते हैं। परन्तु यह वाल्व पलमनरी वाल्व की तुलना में ज्यादा कडक होता है।

वेंट्रिकल के डायस्टोल के दौरान यह वाल्व बंद होता है। इस स्थिति में इस वाल्व के पर्दे एओर्टा में रक्त को सपोर्ट करते हैं। एओर्टा में से रक्त फ़िर से वेंट्रिकल में प्रवेश नहीं कर सकता। जैसे ही वेंट्रिकल आकुंचन शुरु होते ही ये पर्दे खुल जाते हैं, क्योंकि वेंट्रिकल में होनेवाला रक्तदाब, एओर्टा में होनेवाले रक्त के दाब की तुलना में ज्यादा होता हैं।

(क्रमश:)

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