हृदय व रक्ताभिसरण संस्था – ०४

हमने हमारे शरीर में रक्त का प्रवाह कैसे होता है, यह देखा। इस रक्त को बहाकर ले जानेवाली रक्तवाहिनियाँ कैसी होती हैं, अब हम यह देखेंगें। रक्तवाहिनियों का आकार और उनकी दीवारों की रचना के आधार पर रक्तवाहिनियों को विभिन्न भागों में बाटाँ जाता है। परन्तु इसमें एक महत्त्वपूर्ण बात यह है कि ये विविध प्रकार की रक्तवाहिनियाँ लगातार एक-दूसरे से जुड़ी होती हैं। इनमें कहीं भी रिक्तस्थान नहीं होता।

सभी रक्तवाहिनियों की दीवारों में विभिन्न पेशियों के तीन स्तर होते हैं। रक्तवाहिनी के अंदरूनी भाग से बाहर की ओर क्रमश: उन्हें- १)इंटिमा २)मिडिआ और ३)अ‍ॅडवेन्टेशिया कहते हैं। इन तीन स्तरों की पेशियों की रचना के आधार पर रक्तवाहिनीयों को विविध भागों में बांटा जाता है। वे निम्न प्रकार हैं-

१) शरीर की मुख्य धमनियों यानी आर्टरीज़ को इलॅस्टिक आर्टरीज़ भी कहते हैं। क्योंकि इनमें इलॅस्टिक फायब्रस पेशीयाँ होती हैं। इन रक्तवाहिनियों की दीवारों में स्नायुपेशियों की कमी होती है। परन्तु इलॅस्टिक तंतु काफी मात्रा में होते हैं। जब इन रक्तवाहिनियों में रक्त भरा होता है उस समय ये इलॅस्टिक तंतु खिंचाव की स्थिति में होते हैं। इनमें रहनेवाला रक्त बाहर निकल जाने पर जब ये रक्तवाहिनियाँ खाली हो जाती हैं तो तंतुओं का खिंचाव लगभग समाप्त हो जाता है। परन्तु जीवित शरीर में ऐसा कभी भी नहीं होता, क्योंकि इनमें से रक्त सदैव बहता ही रहता है। हृदय से निकलने वाली शरीर की मुख्य धमनी (जिसे Aorta कहते हैं), वह और फेफड़ों की ओर जानेवाली धमनी, इनका समावेश रक्तवाहिनियों के पहले प्रकार में होता है।

२) स्नायुयुक्त रक्तवाहिनियाँ – इन रक्तवाहिनियों के मिडिआ का यानी बीच के स्तर का ३/४ भाग स्नायुओं से बना होता है। इनमें इलॅस्टिक तंतुओं की मात्रा कम होती है। मध्यम व छोटे आकार की सभी आरटरीज इसी प्रकार में आती हैं।

रक्त का प्रवाहआर्टिरिओल्स – ये भी स्नायुमय रक्तवाहिनियाँ ही होती हैं। किसी भी आरटरी के केशवाहिनियों में रूपांतरित होने के पहले की सूक्ष्म शाखा को आर्टिरिओल कहते हैं। इसकी दीवार की स्नायुपेशी लम्बी व मोटी होती हैं। केशवाहिनियों में प्रवेश करने वाले रक्त की मात्रा पर इन आर्टिरिओल्स का नियंत्रण रहता है। उसकी दीवार के स्नायु अपने आकुंचन-प्रसरण के द्वारा रक्तवाहिनियों के रिक्तस्थान को कम-ज्यादा करते हैं, जिसके फलस्वरूप उतनी ही मात्रा में रक्त आगे केशवाहिनियों में सरकता है। ऑटोनॉमिक चेतासंस्था की सिंपथेटिक चेतातंतुओं की आपूर्ति इन रक्तवाहिनियों के स्नायुओं को होती है।

३) केशवाहिनियाँ (Capillaries) :- हमारे शरीर की सब से छोटी व सबसे पतली रक्तवाहिनियों की दीवारें सिर्फ इंटिमा नाम के अंदरूनी स्तर से बनी होती है। इस स्तर की पेशियों को एंडोथेलियल पेशी कहते हैं। ये पेशियाँ एक के बगल में एक के आधार पर रक्तवाहिनियों की लम्बाई में रहती हैं। अत: इनकी तुलना ‘सीमलेस पाइप्स’ के साथ की जा सकती है। शरीर के कार्य की दृष्टी से ये रक्तवाहिनियाँ काफी महत्त्वपूर्ण हैं।  शरीर के सभी पेशीसमूहों का पेशियों के स्तर पर सीधा संपर्क इन केशवाहिनियों से ही बना होता है। इनका व्यास ५ से ८ मायक्रोमीटर होता है व लम्बाई कुछ शतक इतनी मायक्रॉन्स होती है। इसका रिक्त भाग बिलकुल छोटा होता है। इतना छोटा कि इसमें से सिर्फ एक पेशी ही एक बार में निकल सकती है।

रक्त के प्रमुख कार्य हमने देखें कि शरीर की पेशियों के साथ घटकों का आदान-प्रदान करना। अन्नघटक, अणु, प्राणवायु, संप्रेरक इत्यादि सभी पदार्थों का आदान-प्रदान भी केशवाहिनियों के स्तर पर होता हैं।

यकृत में जो केशवाहिनियाँ होती हैं उन्हें सायनुसॉइड्स कहते हैं, यह हमने पहले ही देखा है। इसी तरह की सायनुसॉइड्स प्लीहा, अस्थिमज्जा, अड्रिनल ग्रंथी इत्यादि जगह में होती हैं।

४) वेन्युल्स :- दो अथवा दो से ज्यादा केशवाहिनियों के एकत्रित आने पर जो रक्तवाहिनी तैयार हो जाती है उसे वेन्युल अथवा पोस्ट कॅपिलरी वेन्युल कहते हैं। इसकी दीवारों में स्नायुपेशियाँ बिल्कुल नहीं होती हैं। जब वेन्युल्स एक-दूसरे से जोड़ी जाती हैं, तब उनकी दीवारों में स्नायुपेशियाँ होती हैं। इन्हें स्नायुमय वेन्युल्स कहा जाता है। पोस्ट कॅपिलरी में पानी व रक्तपेशी (सफेद) का आदान-प्रदान बड़ी मात्रा में होती है। इन रक्तवाहिनियों से बड़ी मात्रा में द्रव बाहर निकलता है। हमारे शरीर में जहाँ कहीं पर भी सूजन आती है वह इस द्रव पदार्थ के कारण ही आती हैं। इस द्रव के साथ-साथ शरीर की प्रतिकारशक्ति (इम्युनिटी) मानी जानेवाली सफेद कोशिकायें भी बाहर निकल जाती हैं। परन्तु स्नायुमय वेन्युल्स, इनमें से कोई भी आदान-प्रदान नहीं करते हैं। ये वेन्युल्स एकत्र आकर वहीं रक्तवाहिनियाँ बनाते हैं। इन्हें कलेक्टींग वेन्युल्स कहा जाता है। इनसे बड़ी वेन्स तैयार होती हैं।

५) वेन्स :- हृदय की ओर रक्त लेकर आनेवाली रक्तवाहिनियों की दीवारों में स्नायुपेशी कम मात्रा में होती हैं। इसके फलस्वरूप आकार में उतनी ही लम्बी आरटरीज की अपेक्षा पतली होती हैं। इस रक्तवाहिनियों में रक्त का दाब कम होता है। ५ mm मर्क्युरी की तुलना में वह कभी भी ज्यादा नहीं होता। ये वेन्स जैसे ही हृदय के पास पहुंचती हैं वैसे ही उनका रक्तदाब कम हो जाता है और हृदय के पास वो शून्य हो जाता है। कुछ वेन्स में स्नायुपेशियाँ बिल्कुल ही नहीं होती हैं। ये वेन्स निम्नलिखित हैं- माँ की  नाल में रहनेवाली वेन्स, मेंदू के आवरण में रहनेवाली, मगज़ में रहनेवाली (रेटिना की  वेन), ट्रॅब्यॅक्युलर अस्थि में व कड़ी पेशी में रहनेवाली वेन्स।

बड़ी वेन्स में थोड़े-थोड़े अंतर पर वाल्वस होते हैं। ये वाल्वस् सिर्फ हृदय की दिशा में ही खुलते हैं। फलस्वरूप इन वेन्स में से रक्त हृदय की ओर बहता है, कभी भी उलटी दिशा में प्रवास नहीं करता है।

(क्रमश:)

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