हृदय एवं रक्ताभिसरण संस्था – १४

हमारी रक्तवाहिनियाँ, रक्त के प्रवाह पर किस प्रकार के परिणाम करती हैं, इसकी जानकारी हम प्राप्त कर रहें हैं। रक्तवाहिनियों के विविध गुणधर्म, रक्ताभिसरण में आवश्यक सहायता करते हैं।

Vascular distensibility अर्थात रक्तवाहिनियों के व्यास का बढ़ना। जब रक्तवाहिनियों में दाब बढ़ जाता है तो वे फैल (dilate) जाती हैं, यह हमने आर्टिरिओल्स के बारे में देखा है। फलस्वरूप आर्टिरिओल्स में विरोध कम हो जाता है। बढे हुए रक्तदाब और कम हो गये विरोध के कारण रक्तप्रवाह कई गुना बढ़ जाता है। सभी रक्तवाहिनियों में वेन्स, सबसे ज्यादा डिस्टेंसिबल होती हैं। वेन्स में यदि रक्त का दाब जरा सा भी बढ़ जाये तो वे डिस्टेंड हो जाती हैं, फैल जाती हैं। फलस्वरूप रक्त जमा करने की उनकी क्षमता आधे से एक लीटर तक बढ़ जाती है। इस तरह का इकट्ठा हुआ रक्त आवश्यकतानुसर उपयोग में लाया जाता है।

रक्त के प्रवाहआरटरीज की दीवारों में स्नायुपेशियों की मात्रा ज्यादा होने के कारण वेन्स की तुलना में ये कम फैलती है। साधारणत: वेन्स आरटरीज की तुलना में आठ गुना ज्यादा फैलती हैं। अर्थात रक्त जमा करने की उनकी क्षमता आरटरीज की तुलना में आठ गुना ज्यादा होती है। यह सूत्र शरीर में रक्ताभिसरण पर लागू होता है।

फेफड़ों की वेन्स भी शरीर की अन्य वेन्स के समान ही distensible होती है। फेफड़ों की आरटरीज में दबाव, शरीर की आरटरीज की दबाव की तुलना में १/६ होता है। इसके कारण फेफडों की आरटरीज शरीर की आरटरीज की तुलना में छ: गुना ज्यादा फूलती हैं।

रक्तवाहिनी का काँपलायन्स अथवा कँपासिटान्स यानी उस रक्तवाहिनी की रक्त जमा करने की मॅक्सिमम क्षमता। किसी भी रक्तवाहिनी की काँम्पलायन्स अर्थात उसकी फूलने की क्षमता गुना वॉल्युम अथवा घनफल होता हैं। बडी वेन्स का काँम्पलायन्स उनके आकार की आरटरीज की तुलना में २४ गुना ज्यादा होता है। क्योंकि उनके फूलने की क्षमता ८ गुना व वॉल्युम ३ गुना ज्यादा होता है।
(८x३=२४)

रक्तवाहिनी की रक्त जमा करने की क्षमता, फूलने की क्षमता इत्यादि पर सिंपथेटिक चेतातंतुओं का नियंत्रण होता है। इन चेतातंतुओं के कार्यों के कारण रक्तवाहिनियाँ आकुंचित होती हैं। उस भाग में रक्त का प्रवाह कम हो जाता है वह आवश्यकतानुसार अन्य रक्तवाहिनियों एवं हृदय की ओर मोड़ा जाता है। यदि अतिरिक्त रक्तस्त्राव हो रहा हो तो इसका फायदा होता है। ऐसी परिस्थिति में प्रमुख रूप से वेन्स आकुंचित होती हैं। यदि शरीर का २५% रक्त बाहर बह जायें तो भी रक्ताभिसरण पर उसका कोई असर नहीं पड़ता।

हृदय के प्रत्येक स्पंदन के दौरान हृदय से रक्त आरटरीज में आता है। हृदय का आकुंचन-प्रसरण होता रहता है। इसके फलस्वरूप यहाँ पर रक्त का प्रवाह लहरों के स्वरूप में अथवा pulsatile होता हैं। रक्तवाहनियों के कॉम्प्लायन्स के कारण केशवाहिनियों में पहुँचने तक इसका रूपांतरण स्थिर गतिमान प्रवाह में हो जाता है।

बायीं वेंट्रिकल में से एओर्टा के शुरुआती भाग में आने वाले रक्त का दाब सिस्टोल में ८० mmHg और डायस्टोल में ८० mmHg होता है। जाहिर है यह दाब निरोगी तरुण व्यक्ति में होता हैं। ८० mmHg को सिस्टोलिक रक्तदाब कहते हैं व ८० mmHg को डायस्टोलिक रक्तदाब कहते हैं। सिस्टोलिक व डायस्टोलिक रक्तदाबों में अंतर को ‘पल्स प्रेशर’ कहते हैं।

एओर्टा में आने वाला रक्त सबसे पहले सिर्फ एओर्टा के शुरुआती हिस्से को फुलाता है। एक साथ संपूर्ण एओर्टा पर इसका असर नहीं होता। यह रक्तदाब की लहर धीरे-धीरे आगे बढ़ती है। रक्तवाहिनी का कॉँपलायन्स जितना ज्यादा उतनी इस लहर की गति कम होती है। उदा.- एओर्टा में इसकी गति ३ से ५ मीटर/सेकेंड़ होती है। बड़ी आरटरीज में ७ से १० मीटर/सेकेंड़ तथा छोटी आरटरीज में १५ से ३५ मीटर/सेकेंड़ होता है। केशवाहिनियों तक रक्त के पहुँचने तक ये स्पंदन लगभग शान्त हो जाते हैं क्योंकि आरटरीज जैसे-जैसे आकार में छोटी होती जाती हैं वैसे-वैसे कॉम्पलायन्ट होती जाती है और इन रक्तवाहिनियों में रक्त के प्रवाह को होनेवाला विरोध बढ़ता जाता है। जब डॉक्टर हमारी नाडी देखते हैं तो वे हाथ की छोटी आरटरीज में स्पंदन देखते हैं। रक्तदाब मापने के अनेक तरीके हैं। जवान स्वस्थ व्यक्ति में रक्तदाब १२०/८० mmHg होता है। इसमें ऊपरी प्रेशर सिस्टोलिक एवं निचला प्रेशर डायस्टोलिक प्रेशर होता है। उम्र के अनुसार ये आकड़ें बदलते रहते हैं। छोटी उम्र में रक्तदाब कम होता है और बढ़ती उम्र में यह बढ़ता जाता है। इसकी विस्तृत जानकारी हम आगे प्राप्त करनेवाले हैं।

(क्रमश:)

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