हृदय एवं रक्ताभिसरण संस्था- १२

अब तक हम ने हृदय एवं रक्तवाहनियों की रचना का अध्ययन किया। उनका सर्वसाधरण कार्य कैसे चलता है, यह देखा। अब हम उनके कार्यों का सविस्तर अध्ययन करेंगे।

रक्ताभिसरण संस्था एक ‘सेवाभावी’ संस्था है। शरीर की प्रत्येक पेशी (सेल), पेशीसमूह, अवयव इत्यादि सभी की यह संस्था निरंतर सेवा करती रहती है। ये कार्य कुछ इस तरह हैं- पेशियों को प्राणवायु एवं अन्नघटकों की आवश्यकता होती है। यह फ़ौरन उन तक पहुँचाना, पेशियों के कार्यों के फ़लस्वरूप जो ज़हरीले एवं त्याज्य पदार्थ बन चुके हैं उन्हें शरीर से बाहर निकालने की व्यवस्था करना। कम से कम शक्ती का प्रयोग करके ज्यादा से ज्यादा काम पेशिओं से करवाने के लिये पेशियों के चारों ओर पोषक वातावरण हमेशा बनाये रखना। इस तरह इन सेवाभावी कार्यों की फ़ेहरिस्त बढ़ती ही जाती है। पेशी की आवश्यकता के अनुसार रक्तप्रवाह को कम ज्यादा करना। हृदय के प्रत्येक स्पंदन के साथ बाहर निकलने वाले रक्त का योग्य संतुलन बनायें रखना, रक्तचाप का उचित नियमन करना। यह सब कैसे होता है, अब हमें यहीं देखना है।

रचना का विचार करते समय हमने देखा कि हमारे रक्ताभिसरण के दो प्रमुख विभाग हैं। शरीर में व फ़ेफ़ड़ों में होनेवाला रक्ताभिसरण। प्रत्येक भाग में रक्तावाहिनियों का क्रम एक जैसा ही होता है, जो इस प्रकार है-

मुख्य आरटरीज़ :- इसका काम होता है उच्च दाब (प्रेशर) से सभी अवयवों को रक्त की आपूर्ति करना। इसके कारण रक्तवाहिनियों की दीवारों पर रक्त की आपूर्ति भरपूर होती है। इसमें रक्त के प्रवाह की गति ज्यादा होती हैं।

रक्त का दाब

आरटिरीओल्स :- ये सबसे छोटी आरटरीज़ हैं। इनमें में आगे चलकर केशवाहनियाँ निकलती है। इसकी दीवारें स्नायु-युक्त होती है। स्नायुओं के आकुंचन-प्रसरण के कारण इस में रहनेवाली खाली जगह कम ज्यादा हो सकती है। पेशिओं की रक्त की आवश्यकता के अनुसार रिक्त-स्थान (खाली जगह) पूरी तरह बंद हो सकता है या कई गुना बढ़ भी सकता है। यानी रक्त-आपूर्ति पर नियंत्रण रखनेवाला यह भाग है।
केशवाहिनियाँ :- पेशियों के लिये आवश्यक अन्नघटक, प्राणवायु, क्षार, हार्मोन्स इत्यादि का आदान-प्रदान करना इनका मुख्य कार्य हैं। इसीलिए इनका बाहरी आवरण अत्यंत पतला होता है और उनपर अतिसूक्ष्म छिद्र भी होते हैं। पानी सहित अन्य सभी घटकों का आदान-प्रदान इनसे ही होता है।

वेन्युल्स :- केशवाहिनियों से रक्त जमा करना और उस रक्त को बड़ी वेन्स में पहुँचाना यह इनका कार्य है।

वेन्स :- पेशीयों से हृदय की ओर रक्त बहाकर ले जानेवाली वेन यह नलिका है। इसकी दीवारें पतली होती हैं, परन्तु उनमें स्नायुपेशियाँ होती हैं। इन में रक्तदाब अत्यंत कम होता है। वेन्स ये कहा जाये तो रक्त को इकट्ठा करने की टंकियों की तरह हैं। शरीर की आवश्यकता के अनुसार इनमें रक्त जमा होता है अथवा इन से रक्त निकाला जाता है।

शरीर के कुल रक्त का कितने प्रतिशत रक्त कौन-कौन सी रक्तवाहिनियों में रहता हैं, अब हम यह देखेंगे।

रक्त की कुलमात्रा का ८४% रक्त शरीर की रक्तवाहनियों में रहता हैं तथा १६% रक्त फ़ेफ़ड़ों की रक्तवाहनियों में होता हैं। वेन्स में ६४%, १३% आरटरीज में , ७%आरटिरिओल्स व केशवाहनियों में, ७% हृदय में व ९% फ़ेफ़ड़ों की रक्तवाहनियों में रक्त रहता है। पेशियों के साथ विभिन्न घटकों का आदान-प्रदान जिन केशवाहनियों में होता है, वहाँ पर रक्त की मात्रा काफ़ी कम होती है।

हमने देखा कि हमारे शरीर में छ: प्रकार की रक्तवाहनियाँ हैं। प्रत्येक प्रकार की रक्तवाहनियों का कुल क्षेत्रफ़ल अलग-अलग होता है। इसका तुलनात्मक तख्ता इस प्रकार है –

एओर्टा : २.५ चौ. सेमी.
छोटी आरटरीज : २० चौ. सेमी.
आरटिरिओल्स : ४० चौ. सेमी.
केशवाहिनीयाँ : २५०० चौ.सेमी.
वेन्युल्स : २५० चौ.सेमी.
छोटी वेन्स : ८० चौ.सेमी.
वेनाकॅवा : ८ चौ.सेमी.

उपरोक्त सारिणी से यह बत स्पष्ट होती है कि एक ही आकार की आरटरी व वेन की तुलना करें तो वेन का क्षेत्रफ़ल आरटरीज की अपेक्षा चार गुना ज्यादा होता है।

रक्ताभिसरण का एक महत्त्वपूर्ण नियम यह है कि रक्तवाहिनियों के प्रत्येक प्रकार में प्रति-मिनिट बहनेवाले रक्त की मात्रा समान ही होती है। इसका तात्पर्य यह है कि समझो एआर्टा में से एक मिनट में १०० मिली रक्त बह रहा होगा तो सभी केशवाहनियों में मिलाकर उस एक मिनट में १०० मिली रक्त ही बह रहा होगा। इसका असर रक्तप्रवाह की गति पर होता है। रक्तवाहनियों का कुल क्षेत्रफ़ल जितना ज्यादा होता है उतनी ही रक्तप्रवाह में गति धीमी हो जाती है। यदि कोई व्यक्ति आराम कर रहा होगा तो उस स्थिति में उसकी एओर्टा में रक्त की गति ३३ सेमी/ सेकेंड़ होती है तथा केशवाहनियों में मात्र ०.३ मिमी / सेकंड़ होती है।

रक्ताभिसरण संस्था के विभिन्न भागों में रक्त का दाब अलग-अलग होता है। हृदय द्वारा पम्प किया गया रक्त पहले एओर्टा में आता है। इसी लिये यहाँ पर रक्त का दाब सर्वाधिक होता है। एओर्टा में साधारणत: रक्त का दाब १०० mmHg होता है। mmHg यानी मिलीमीटर्स ऑफ़ मरक्युरी । यह रक्तदाब (रक्तचाप- ब्लड प्रेशर) नापने का मापक है। हृदय का पंप यह स्पंदन पंप (Pulsatile pump) है। इसीलिए हृदय के आकुंचन (Systole) व प्रसरण (Diastole) के दौरान रक्त का दाब बदलता रहता है। इसीलिये इन्हें क्रमश: सिस्टोलिक दाब व डायस्टोलिक दाब कहते हैं। आरटरीज में सामान्यत: रक्तदाब- सिस्टोलिक १२० mmHg व डास्टोलिक ८० mmHg होता है। इसे ही हम हमारा रक्तदाब या ब्लड प्रेशर कहते हैं। डॉक्टर जो हमारा रक्तदाब नापते हैं, यह वही रक्तदाब है।

विभिन्न रक्तवाहनियों से जैसे-जैसे रक्त बहता जाता है वैसे-वैसे यह दाब कम होता जाता है तथा अंतत: वेना कॅवा दाहिनी एट्रिअम से जुड़ जाते हैं तो वहाँ पर रक्तदाब शून्य हो जाता है। केशवाहिनियों में यह दाब साधारणत: १७ mmHg होता है। केशवाहिनियों की शुरुआत में यानी आरटिरिओल सीरे के पास यह दाब १० mmHg होता है। इससे हम यह समझ सकते हैं कि किसी भी रक्तवाहिनी में उसकी पूरी लम्बाई में रक्तदाब समान नहीं होता है। यह असमान रक्तदाब रक्त के प्रवाह के लिए उपयुक्त होता है। इस असमानता को प्रेशर ग्रेडिअंट कहते हैं।
फ़ेफ़ड़ों में रक्तदाब कम होता है। यहाँ पर सिस्टोलिक दाब २५ mmHg तथा डायस्टोलिक दाब ८ mmHg होता है। फ़ेफ़ड़ों की केशवाहिनियों में तो यह दाब सिर्फ़ ७ mmHg ही होता है।

रक्ताभिसरण के जो मुख्य कार्य चलते हैं, उनकी मूल रूप से तीन संकल्पनाएँ हैं, जो इस प्रकार हैं-

१) शरीर के प्रत्येक पेशीसमूह को होनेवाली रक्त आपूर्ति उस पेशीसमूह की आवश्यकतानुसार नियंत्रित की जाती है:- पेशीसमूह की विश्राम की स्थिति व जोर से कार्य करनेवाली स्थिति में रक्त की आवश्यकता अलग-अलग होती है। आराम की स्थिति की तुलना में कार्य स्थिती में रक्त की आवश्यकता २० से ३० गुना बढ़ जाती हैं। यानी हृदय से बाहर निकलने वाले रक्त की मात्रा भी बढ़नी चाहिये। परन्तु कारडिआक आऊटपुट (एक मिनट में हृदय से बाहर निकलनेवाले रक्त की मात्रा) सिर्फ़ ३ से ४ गुना ही बढ़ती है। फ़िर यह गणित संतुलित कैसे होता है? इसके लिये केशवाहिनियों/ आरटिरिओल्स व वेन्युल्स में होनेवाला सूक्ष्म रक्ताभिसरण इस कमी को पूरा करता है। पेशी व केशवाहिनियों में उपस्थित प्राणवायु, कार्बन डाय ऑक्साइड वायु व अन्य घटक, रक्त में उनकी मात्रा के अनुसार आरटिरिओल्स को आकुंचन या प्रसारण करने के लिये मजबूर करते हैं और योग्य मात्रा में रक्त को पेशियों तक पहुँचाते रहते हैं। इसके अलावा सिंपथेटिक / पॅरासिपंथेटिक चेतातंतु इस कार्य में सहायता करते हैं।

२) विभिन्न पेशीसमूहों से बहनेवाला रक्तप्रवाह एकत्रित रूप से कारडियाक आऊटपुट का नियंत्रण करते हैं :- पेशीसमूह में बहनेवाला रक्त वेन्स के माध्यम से हृदय में आता हैं। हृदय वहीं रक्त फ़ौरन पंपिंग अ‍ॅक्शन से आरटरिज में भेजता है। यह चक्र चलता ही रहता है। यहाँ पर भी इस कार्य में हृदय के चेतातंतुओं की सहायता मिलती है।

३) रक्तदाब अथवा आरटिरिअल रक्तदाब का नियमन साधारणत: कारडियाक आऊटपुट अथवा पेशी का रक्तप्रवाह इन दोनों घटकों पर निर्भर नहीं होता :- यदि किसी भी कारण से आरटिरिअल रक्तदाब सामान्यत: १०० mmHg से कम हो जाये तो चेतासंस्था (नर्व्हस सिस्टिम) कार्यरत हो जाती है। सर्वप्रथम यह हृदय की पंपिंग बढ़ा देती है, वेन्स को आकुंचित करके उन में जमा रक्त हृदय में पहुँचे इस बात का ध्यान रखती है और आरिटिरिओल्स को आकुंचित करके उसमें से आगे जाने वाले प्रवाह को कम करती है। समझो कुछ दिनों तक रक्तदाब यदि कम ही रह गया तो उसे नियंत्रित करने का काम मूत्रपिंड (किडनीज़) करने लगते हैं। इसकी जानकारी हम आगे चलकर प्राप्त करेंगे।

(क्रमश:)

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