रक्त एवं रक्तघटक – ५६

हमने पिछले लेख में देखा कि शरीर के संरक्षण के लिये अँटिबॉडीज का निर्माण होता है। अँटबॉडिज को निर्माण करने का काम लिंफ़ोसाइट पेशियां करती हैं। प्रत्येक जीवाणु के लिए अलग अँटिबॉडीज तैयार होती हैं। यानी ये अँटिबॉडीज स्पेसिफ़ीक होती हैं। उदा. पोलिओ के विषाणुओं के विरुद्ध लड़नेवाली अँटिबॉडिज स़िर्फ़ पोलिओ के विषाणुओं को ही मारती हैं। घटसर्प के जीवाणुओं के विरूद्ध लड़नेवाली अँटिबॉडिज स़िर्फ़ उसके ही जीवाणुओं को मारती हैं।

हमारे शरीर की सभी प्रथिनें गॅमाग्लोब्युलिन नामक प्रथिन से ही बनी होती हैं। इन्हें इम्युनोग्लोब्युलिन्स् भी कहते हैं।

अँटिबॉडीज

कुल पाँच प्रकार की अँटिबॉडीज अथवा इम्युनोग्लोब्युलिन्स् हमारे शरीर में होती हैं। इन्हें IgM, IgG, IgD, IgE और खसअ नाम दिये गये हैं। शरीर की ७५% प्रतिशत अँटिबॉडीज IgG प्रकार की होती हैं। IgM अँटिबॉडीज सर्वप्रथम तैयार होती हैं। किसी भी अँटिजेन के खिलाफ़ सर्वप्रथम यहीं अँटिबॉडीज कार्यरत होती है और तत्पश्‍चात् स्पेसिफ़ीक IgG अँटिबॉडीज तैयार होती हैं। IgE नामक अँटिबॉडीज अ‍ॅलर्जीक प्रतिक्रिया में तैयार होती है।

शरीर में प्रवेश करनेवाले जीवाणुओं के खिलाफ़ अँटिबॉडीज दो प्रकार से कार्य करती हैं। १)प्रत्यक्ष रूप में इन घुसनेवाले जीवाणुओं पर आक्रमण करके उन्हें नष्ट करती हैं। २) शरीर की विशिष्ट संस्था को जागृत करके उसके माध्यम से इन जीवाणु का विनाश करती हैं। इस विशिष्ट संस्था में विभिन्न प्रकार की बीस प्रथिने होती हैं। ये प्रथिने अलग-अलग तरी-कों से जीवाणुओं को नष्ट करती हैं।

बाहर से आनेवाले अथवा ऊपरी जीवाणुओं के विरूद्ध, अँटिबॉडीज तैयार होती हैं। ऐसे जीवाणुओं को हम अँटिजेन कहते हैं। जीवाणु अथवा उनमें से स्रवित होनेवाले विषारी पदार्थ अक्सर प्रथिनें होती हैं। इन प्रथिनों के विरोध में ही अँटिबॉडीज तैयार होती हैं। साधारणत: हमारे शरीर में इस प्रकार की अनेक प्रथिनें होती हैं। फ़िर उनके विरोध में अँटिबॉडीज तैयार होती हैं क्या? इसका उत्तर हैं- ‘हाँ’ और ‘नहीं’! हमारा शरीर इम्युन मेकॅनिझम यानि अपना-पराया यह भाव पहचानता है। अपनी प्रथिने कौन सी हैं और बाहर की प्रथिने कौन सी है यह पहचानने की ट्रेनिंग इम्युन मेकॅनिझम ने ली होती है। इसीलिए ज्यादा तर हमारी ही शरीर पेशियों के विरोध में यह मेकॅनिझम कार्यरत नहीं होता। कई बार मेकॅनिझम हमारी ही शरीर पेशियों के विरोध में जाकर उन्हें नष्ट कर देती हैं। ऐसी परिस्थिति में शरीर में विकार निर्माण हो जाते हैं। इन विकारों को ‘ऑटोइम्युन’ विकार कहा जाता है। ये विकार शरीर के लिए घातक साबित हो सकते हैं।

लसीकरण (टीका लगाना) : विविध प्रकार के रोगों के विरोध में आज कई प्रकार के टीके उपलब्ध हैं। अपने बच्चों के लिए ये टीके का़फ़ी महत्त्वपूर्ण होते हैं। तीन प्रकार के टीके सदैव प्रयोग में लिये जाते हैं वे इस प्रकार हैं –

१) पहले प्रकार के टीके में जीवाणु मृत पाये जाते हैं। परन्तु उनके अ‍ॅँटिजेन्स कार्यरत रहते हैं। ऐसे टीके लगाने के बाद उस जीवाणु के विरुद्ध अ‍ॅँटिबॉडीज बन जाती हैं। उदा. घटसर्प, डेंग्यू, खाँसी, टाय़फ़ॉइड इत्यादी रोगों के लिए इस प्रकार के टीके होते हैं।

२) विषारी पदार्थ स्रवित करनेवाले पदार्थों के विष को नष्ट करके टीका बनाया जाता है। उस विष की अ‍ॅँटिजेनिसिटी बरकरार रखी जाती है। उदा.- धनुर्वात, बोट्युलिझम।

३) इस प्रकार के टीक में विषाणु जीवित होते हैं, परन्तु बीमारी पैदा करनेवाली उनकी क्षमता को नष्ट कर दिया जाता है। इस क्रिया को Attenuation कहते हैं और इस टीके को Attenuated vaccine कहते हैं। उदाहरण- चेचक, पोलिओ, इत्यादी।

उपरोक्त सभी प्रकार के टीकों में शरीर में जो प्रतिकारशक्ति बनती हैं उसे ‘अ‍ॅक्टीव’ इम्युनिटी कहते हैं। इस क्रिया में अँटिजेन शरीर में प्रवेश करते हैं और शरीर उनके विरूद्ध अँटिबॉडीज का निर्माण करता है।

शरीर का संरक्षण करने के लिए हम शरीर में ‘पॅसिव’ प्रतिकार शक्ती का निर्माण करते हैं। इसके लिए किसी रोग के विरुद्धवाली अँटिजेन का टीका शरीर में लगाया जाता है। ये अँटिबॉडीज दो से तीन सप्ताहों तक शरीर का संरक्षण करती हैं। टीका लगाने के बाद अ‍ॅक्टीव इम्युनिटी बनने में दो सप्ताह लगते हैं। यदि इन दो सप्ताहों में शरीर को उस रोग से धोखा संभवित होता है तो इस प्रकार के पॅसिव टीके भी लगाये जाते हैं। उदा. किसी बीमार कुत्ते के काँटनें पर यदि मरीज़ के प्राणों को खतरा हो तो उसे अ‍ॅक्टीव टीके के साथ-साथ उस बीमारी के विरोध की अँटिबॉडीज का टीका भी लगाया जाता है।

अ‍ॅलर्जी : शरीर पर उ़ठनेवाली चित्तियाँ, दमा के रोग, सर्दी, त्वचा के रोग, किसी दवा का रिअ‍ॅक्शन होना इत्यादि सभी अ‍ॅलर्जी के उदाहरण हैं।
किसी व्यक्ति को विभिन्न चीजों की अ‍ॅलर्जी होती है। किसी को किसी दवा से अ‍ॅलर्जी होती है। (उदा. सल्फ़ा, पेनिसिलिन इ.)। अ‍ॅलर्जी यानि नॉर्मल अ‍ॅँटिजेन को शरीर द्वारा दी गयी अ‍ॅबनॉर्मल प्रतिक्रिया होती है। ऐसी प्रतिक्रिया जेनेटिकली माँ-बाप से बच्चों में आती है। ऐसे व्यक्ती के रक्त में IgE अँटिबॉडीज की मात्रा ज्यादा होती है। कभी-कभी किसी रोगी को इंजेक्शन लगाने के बाद रिअ‍ॅक्शन हो जाता है। इसे वैद्यकीय

परिभाषा में अ‍ॅनाफ़ायलेक्सिस कहते हैं। यह एक प्रकार की अ‍ॅलर्जीक प्रतिक्रिया होती हैं।
आज तक हमने अपने रक्त की सफ़ेद पेशियों के बारे में जानकारी ली। उनके कार्यों का अध्ययन किया। अब आगे हम रक्तगट, रक्तचाप इत्यादि विषयों का अध्ययन करेंगें।

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