हृदय व रक्ताभिसरण संस्था- २७

पिछले लेख में हमने देखा कि रक्तदाब में अचानक होनेवाले परिवर्तन पर बॅरोरिसेप्टर्स किस प्रकार नियंत्रण करते हैं। इनके अलावा भी कुछ घटक हैं जो रक्तदाब नियंत्रित करते हैं। ये अन्य घटक कौन-कौन से है, हम इसकी जानाकारी प्राप्त करेंगे।

केमोरिसेप्टर्स अथवा रासायनिक स्विकारक :-

रक्त में रासायनिक परिवर्तनों के कारण कार्यरत होनेवाले कुछ केमोसेन्सिटिव पेशियां हमारे शरीर में होती हैं। ऐसी पेशियाँ मुख्य एओर्टा व गर्दन की केरॉटिड आरटरीज में होती हैं। इन पेशियों से बना हुआ एक-एक छोटा अवयव ही (१ से २ मिमी आकार का) इन रक्तवाहनियों में होता हैं। इन्हें क्रमश: एओर्टिक बॉडिज व केरॉटिड बॉडीज कहते हैं। छोटी आरटरीज के द्वार इन भागों को अलग से रक्त की आपूर्ति की जाती है। इन ‘बॉडीज’ की प्रत्येक पेशी सतत रक्त के संपर्क में होती है।

आरटरीज में रक्तदाब 80mmHg (सिस्टोलिक) से कम हो जाने पर ये केमोरिसेप्टर्स पेशी कार्यरत हो जाती है। जब रक्तदाब कम हो जाता है, तब पहले रक्त का प्रवाह कम हो जाता है। प्रवाह का वेग कम हो जाता है। फलस्वरूप आरटरीज के रक्त में मुख्य तीन परिवर्तन होते हैं –

१) प्राणवायु की मात्रा कम हो जाती हैं।
२) कार्बनडाय ऑक्साईड की मात्रा कम हो जाती है।
३) हैड्रोजन अणुओं की मात्रा बढ़ जाती है।

बॅरोरिसेप्टर्सइन रासायनिक परिवर्तनों के कारण केमोरिसेप्टर्स से ऑटोनोमिक चेतासंस्था को भेजा जाता है। वासोमेटर केन्द्र से सिंपथेटिक चेतातंतु कार्यरत होने से शरीर की रक्तवाहनियाँ आकुंचित होती है। इससे रक्तदाब बढ़ जाता है। इससे पता चलता है कि रक्तदाब कम होने पर ही यह रिफ्लेक्स मेकॅनिझम उपयोगी होता है।

एट्रिआ व पलमनरी आरटरीज में छोटे बॅरोरिसेप्टर्स होते हैं। मुख्य शारीरिक रक्ताभिसरण में रक्तदाब में परिवर्तन ये रिसेप्टर्स पहचान नहीं सकते। परन्तु बढ़े हुये रक्तदाब का जो परिणाम एट्रिआ व पलमनरी रक्ताभिसरण पर होता है (रक्तदाब बढ़ता है) तो ये रिसेप्टर्स समझ जाते हैं। इन रिसेप्टर्स से ये संदेश बासोमोटर केन्द्र की ओर जाते हैं व रक्तदाब कम करने में सहायता करते हैं।

यदि किसी भी कारण से रक्त की मात्रा (Volume) बढ़ जाये तो बढ़े हुये रक्त के कारण एट्रिआ तन जाते हैं। उदा. यदि किसी व्यक्ति को खून चढ़ाआ जाये। इस तनाव के कारण (Stretch) इसकी दीवारों के स्ट्रेज रिसेप्टर्स जागृत हो जाते हैं। इससे निकलनेवाले संदेश वासोमोटर केन्द की ओर नहीं जाते हैं। इस रिसेप्टर्स के कुछ संदेश ‘मूत्रपिंड’ की ओर व कुछ संदेश ‘हैपोथॅलॅमस’ की ओर जाते हैं। इन दोनों स्थानों पर संदेश पहुँचने के बाद जो रिफ्लेक्स मेकॅनिझम कार्यरत होते हैं उनके कारण मूत्र तैयार होने की मात्रा बढ़ जाती है और उनके माध्यम से शरीर का पानी ज्यादा मात्रा में बाहर निकल जाता है। फलस्वरूप रक्त की मात्रा (Volume) कम हो जाती है। हमने देखा ही है कि बढ़ा हुआ रक्त यानी बढ़ा हुआ रक्तदाब व हृदय की बढ़ी हुई पंपिंग। रक्त की मात्रा कम करके उपरोक्त दोनों चीजों को नियंत्रित किया जाता है।

जब शरीर की पेशियों को उनकी आवश्यकतानुसार आवश्यक प्राणवायु व अन्नघटकों की आपूर्ति रक्त से नहीं होती तो ऐसी स्थिती को ‘इस्चिमिया’ अथवा ‘इस्किमिया’ (Ischemia) कहते हैं। जब कोई रक्तवाहिनी बंद हो जाती है या रक्तदाब कम हो जाता है तब ऐसी परिस्थिती निर्माण होती है।

रक्तदाब कम होने के बाद मष्तिष्क में जब ऐसी परिस्थिती निर्माण होती है (मष्तिष्क का इस्चिमिया) तो वासोमोटर केन्द्र तेज़ी से काम करने लगता है। ऐसे समय में इस केन्द्र के चारोंओर जैसे-जैसे कार्बनडाय ऑक्साइड की मात्रा बढ़ने लगती है वैसे-वैसे अधिक ताकतवर अथवा शक्तिशाली संदेश सिंपथेटिक वासोमीटर तंतू की ओर भेजे जाते हैं। फलस्वरूप शरीर की सभी रक्तवाहनियाँ तीव्रता से आकुंचित होती है तथा रक्तदाब बढ़ जाता है। इस समय प्रतिक्रिया सर्वाधिक तीव्र होती है। रक्तदाब की वृद्धि २५० mmHg तक हो सकती है व मूत्रपिंड जैसे अवयवों की छोटी आरटरीज पूरी तरह बंद होने तक आकुंचित हो जाती हैं। इससे मूत्र बनने की क्रिया रुक जाती है। अत्यंत क़ठीन समय में यानी रक्तदाब ५० mmHg से कम हो जाने पर यह रिफ्लेक्स मेकॅनिझम कार्यरत होता है। क्योंकि रक्तदाब के  ५० mmHg से नीचे उतरते रहने पर मृत्यु की संभावना होती है। ऐसी परिस्थिती में प्राण बचाने के लिये शरीर की यह अंतिम कोशिश होती है। ऐसे समय में उचित वैद्यकीय सहायता मिलने से प्राण बचाये जा सकते हैं।

आज तक हमने रक्तदाब नियंत्रण की आपातकालीन योजना की जानकारी प्राप्त की। किसी भी प्रकार की  बाह्य सहायता के बगैर ही शरीर ने स्वयं ही की हुई यह उपाययोजना है। अगले लेख में लाँगटर्म उपाय देखेंगे।

(क्रमश:)

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