हृदय एवं रक्ताभिसरण संस्था – २३

किसी अवयव अथवा पेशीसमूह का रक्तप्रवाह आवश्यकतानुसार किस तरह नियमित होता रहता है, इसकी जानकारी हम ले रहे हैं। इसके लिये आपातकालीन उपाययोजना किस प्रकार कार्य करती है, यह हम ने देखा। आपातकालीन नियमन यह कायमस्वरूपी नियमन जितना पर्याप्त नहीं है। जो पूर्णत्व कायमस्वरुपी नियमन में है वह इस आपातकालीन नियमन में नहीं होता। आवश्यकता पड़ने पर तात्कालीन नियमन कुछ सैकंड़ों अथवा मिनटों में कार्यरत हो जाता है। यद्यपि ये नियमन १००% कार्यरत होता है, मग़र फिर भी पेशियों की सिर्फ ७५% ज़रूरतें ही पूरी करता है।

आपातकालीन नियमन अपूर्ण कैसे होते हैं, इसका दूसरा उदाहरण देखते हैं। मान लो आरटरी में रक्तदाब १०० mmHg से बढ़कर १५० mmHg हो जाये तो किस स्थान पर रक्तप्रवाह १००% बढ़ जाता है। अगले दो मिनटों में यह रक्तप्रवाह फिर से पूर्ववत हो जाता है फिर भी यह पहले की तुलना में १५% ज्यादा ही रहता है। परन्तु कायमस्वरूपी नियमन में ऐसा नहीं होता। समझो यदि यह बढ़ा हुआ रक्तदाब का़फी समय तक बढ़ा रहा तो अगले कुछ सप्ताहों अथवा महीनों में रक्तप्रवाह पूर्ववत होता है। यदि एक बार ऐसा हुआ तो रक्तदाब ५० mmHg से २५० mmHg के बीच कितना ही बढ़ा हुआ रहा तो भी पेशियों के रक्तप्रवाह में किसी भी प्रकार का बदलाव नहीं होता।

किसी अवयव की प्राणवायु या अन्य अन्न घटकों की माँग अथवा आवश्यकता जब बदलती है तब यह कायमस्वरुपी नियमन का़फी महत्त्वपूर्ण साबित होता है। जब यह माँग बढ़ती है तब उसी अनुपात में रक्तप्रवाह और उस अवयव की रक्तवाहिनियाँ दोनों में आवश्यकतानुसार बाढ़ होती हैं। इसके विपरीत जब किसी अवयव की प्राणवायु एवं अन्य अन्न घटकों की माँग कम होती है, तब उस अवयव की रक्तापूर्ति व रक्तवाहिनियों दोनों में कमी आती है।

रक्तप्रवाहकायमस्वरुपी नियमन में शरीर के जिस भाग में अन्नघटक की आवश्यकता बढ़ती है, उस भाग की रक्तवाहिनियों में तेजी से वृद्धि होती है। उस भाग की रक्तवाहनियों की रचना में तेजी से बदलाव आता है। बिलकुल छोटी व युवा अवस्था में इन बदलावों का वेग ज्यादा होता है। नवजात अर्भकों में यह चीज़ कुछ दिनों में ही घटित होती है। व्यस्क (वयस्कर) व्यक्तियों में इस क्रिया के लिये कुछ महीनें लग जाते हैं। जिन पेशीसमूहों की वृद्धि तेज़ी से होती रहती है, जैसे कि कर्करोगबाधित पेशीसमूह अथवा भरनेवाली जख्म, इन स्थानों पर भी रक्तवाहनियां तेज़ी से बढ़ती हैं। छोटी उम्र में पेशी की आवश्यकतानुसार पूरी तरह पूरक रहनेवालीं रक्तवाहिनियों की वृद्धि होती है। परन्तु बुढ़ापे में रक्तवाहिनियों की आवश्यकता की पूर्ति करने जितनी वृद्धि नहीं होती।

प्राणवायु की भूमिका :

कायमस्वरूपी नियमन में प्राणवायु महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। प्राणवायु की कमी रक्तवाहनियों की वृद्धि के लिये कारणीभूत होती है। उदा. समुद्रजल से काफी ऊँचाई पर रहने वाले व्यक्तियों के शरीर में रक्तवाहनियों की संख्या ज्यादा होती है। अपूर्ण दिनों के (pre mature) अर्भक के रक्त में प्राणवायु की मात्रा कम होती हैं। ऐसी अवस्था में उसकी आंखों की रेटिना में रक्तवाहिनियों की संख्या बढ़ने लगती हैं। ऐसे अर्भक को यदि प्राणवायु दी जाती है तो इस बढ़ी हुयी प्राणवायु के कारण रेटिना में बढ़ी हुई रक्तवाहिनियाँ अकड़ जाती है। परन्तु जब उस अर्भक को प्राणवायु की आपूर्ति से दूर किया जाता है तब यकायक हुए इस बदलाव के कारण (प्राणवायु की मात्रा के अचानक कम हो जाने के कारण) ये रक्तवाहिनियाँ तेज़ी से बढ़ती हैं व सामने के विट्रिअस ह्युमर में जमा हो जाती हैं तथा इसके कारण विट्रिअस की पारदर्शकता कम हो जाती है और बच्चा अंधा हो जाता है। प्राणवायु का ऐसा दुष्परिणाम भी हो सकता है।

नयी रक्तवाहनियों के निर्माण की क्रिया को अँजिओजनेसिस कहते हैं। पुरानी रक्तवाहनियों की एन्डोथेलिअल पेशीयों से नयी रक्तवाहनियाँ तैयार होती हैं। सूक्ष्म केशवाहनियों से लेकर आर्टिरिओल्स व वेन्युल्स तक नयी रक्तवाहनियाँ इस अँजिओजनेसिस से तैयार होती हैं।

पर्यायी रक्तवाहनियाँ अथवा Collateral Circulation :

लाँग टर्म अथवा कायमस्वरुपी नियमन में इस कोलेटरल का बड़ा महत्व है। यदि किसी रक्तवाहिनी में किसी भी कारण से रक्तप्रवाह बंद पड़ जाये तो ये पर्यायी रक्तवाहनियाँ कार्यरत हो जाती हैं। रक्तवाहिनियों में जहाँ पर भी बाधा निर्माण होती है उसके पहले व बाद में जुड़नेवाली पर्यायी रक्तवाहिनी फौरन प्रसरित हो जाती है और उस रक्तवाहिनी से रक्तप्रवाह शुरु हो जाता है। यह क्रिया वह बाधा उत्पन्न होने के एक मिनट के अंदर ही संपन्न हो जाती है तथा पेशी की १/४ आवश्यकता पूरी हो जाती है। आगे चलकर अन्य पर्यायी रक्तवाहनियाँ काम करने लगती हैं। पहला दिन पूरा होते-होते इस प्रकार पेशियों की आधी आवश्यकता पूरी हो जाती है। अगले कुछ दिनों तक नयी पर्यायी रक्तवाहनियाँ कार्यरत होती रहती हैं तथा पेशियों की ज़रूरत पूरी हो जाती है। ये पर्यायी रक्तवाहनियाँ हमेशा सूक्ष्म वाहनियाँ होती हैं। बड़ी रक्तवाहनियाँ इस प्रकार तैयार नहीं होती। परन्तु अनगिनत रक्तवाहनियों के कार्यरत होने के कारण रक्तप्रवाह लगभग पूरी तरह पूर्ववत हो जाता है। हृदय की (करोनरी) रक्तापूर्ति में इन कोलॅटरल्स का का़फी महत्व है। ज्यादा से ज्यादा कोलॅटरल्स को कार्यरत करके By-Pass शस्त्रक्रिया को टाला जा सकता है।

अब तक हमने यह देखा कि शरीर के किसी अवयव अथवा पेशी समूह के रक्तप्रवाह को किस प्रकार नियंत्रित किया जाता है। रक्त में स्रवित होनेवाले कुछ संप्रेरक व अन्य घटक शरीर में होनेवाले रक्ताभिसरण पर असर ड़ालते हैं। इसे ह्युमोरल नियंत्रण कहा जाता है। इनमें से जो घटक रक्तवाहिनियों को आकुंचित करते हैं, उन्हें वासोकन्स्ट्रिक्टर घटक कहते हैं तथा जो घटक रक्तवाहनियों को डायलेट करते हैं उन्हें वासोडायलेटर घटक कहा जाता है। हम इन घटकों की संक्षिप्त जानकारी प्राप्त करेंगे।

वासोकान्स्ट्रिक्टर घटक :

१) नॉरएपिनेफ्रिन व एपिनेफ्रिन – इनमें नॉरएपिनेफ्रिन शक्तिशाली वासोकन्स्ट्रिक्टर है। एपिनेफ्रिन कभी-कभी वासोडायलटेशन भी करता है। उदा. हृदय की रक्तवाहनियाँ, व्यायाम, दौड़, मन पर तनाव इत्यादि बातें पहले सिंपथेटिक चेतासंस्था को गति देती हैं। सिंपथेटिक चेतातंतु के प्रत्येक अवयव के भागों से नॉरएपिनोफ्रिन स्रवित होता है। शरीर की अ‍ॅड्रिनल ग्रंथी पर भी ये चेतातंतु कार्य करते हैं व इन ग्रंथियों से एपिनेफ्रिन व नॉरएपिनेफ्रिन दोनों स्त्रवित होते हैं व रक्त में घुलकर पूरे शरीर में कार्य करते हैं।

२) अँजिओटेन्सिन – यह शक्तिशाली वासोकस्न्ट्रिक्टर है। इसके ग्राम का कुछ लाभांश भाग हमारा रक्तदाब ५० mmHg से बढ़ा सकता है। ये संप्रेरक मुख्यत: आर्टिरिओल्स पर कार्य करते हैं तथा संपूर्ण शरीर के रक्तप्रवाह के होनेवाले विरोध को बढ़ाते हैं। हमारे रक्तदाब पर नियंत्रण रखने का महत्त्वपूर्ण कार्य ये संप्रेरक  करते हैं।

३) वासोप्रेसिन – इसका दूसरा नाम है अँटिडायुरेटिक हार्मोन। ये हार्मोन मूत्रपिंड ज्यादा से ज्यादा पानी रोखकर रक्त में मिलाने में सहायता करते हैं। फलस्वरुप यदि किसी भी कारण से शरीर में पानी/रक्त की मात्रा कम हो जाने पर उसे हार्मोन पूर्ववत कर देते हैं। यह अँजिओटेन्सिन की अपेक्षा भी शक्तिशाली वासोन्स्ट्रिक्टर है। रक्तस्त्राव के कारण शरीर के रक्तदाब के कम हो जाने पर ये संप्रेरक रक्त का दाब ६० mmHg से बढ़ा देते हैं। मष्तिष्क के हैपोथॅलॅमस में हार्मोन तैयार होते हैं तथा प्रिच्युटरी ग्रंथी के माध्यम से ये रक्त में स्रवित होते हैं।

४) एन्डोथेलिन – यह शक्तिशाली वासोकन्स्ट्रिक्टर लगभग सभी रक्तवाहनियों को एन्डीथेलिअल पेशी में होता है। दुर्घटनावश रक्तवाहिनी में जख्म होने पर ये हार्मोन खून में मिल जाते हैं तथा रक्तवाहिनियों को आकुंचित करके रक्तस्राव रोकने में मदत करते हैं।

वासोडायलेटर घटक :

१) ब्रॅडिकायनिन – ये दो तरह से कार्य करते हैं। आर्टिरिओल्स को डायलेट करते हैं व केशवाहनियों से ज्यादा मात्रा में द्राव बाहर निकालते हैं। परंतु इनके कार्य कुछ मिनटों तक ही सीमित होते हैं।

२) हिस्टामिन – शरीर के किसी भी भाग में चोट लगने पर उस भाग की मांसपेशी व रक्त की बेसोफिल पेशी से यह संप्रेरक स्त्रवित होता है। इसके कार्यों के फलस्वरुप ही केशवाहनियों के माध्यम से बड़ी मात्रा में द्राव बाहर निकलने से उस भाग में सूजन आ जाती है जिसे लोकल इडिमा (local oedema) कहते हैं।

इनके अलावा रक्त में उपस्थित कुछ अणु रक्तवाहनियों पर असर ड़ालते हैं।

कॅलसिअम के अणू वासोकन्स्ट्रिक्टर का कार्य करते हैं तथा पोटॅशिअम, मॅग्नेशियम, साइट्रेट, अ‍ॅसिटेट हैड्रोजन इत्यादि अणू वासोडायलेटर का काम करते हैं।

हैड्रोजन के अणु कम हो जाने पर वे वासोकन्स्ट्रिक्शन का कार्य करते हैं।

रक्त में कार्बनडाय ऑक्साइड की मात्रा बढ़ जाने पर वासोडायलटेशन होता है। यह क्रिया शरीर की अपेक्षा मष्तिष्क की रक्तवाहनियों पर ज्यादा होती है। इस प्रकार इन अणुओं की मात्रा बढ़ती रहने पर अप्रत्यक्ष रुप में सिंपथेटिक चेतासंस्था कार्यरत हो जाती है तथा बड़ी मात्रा में वासोकन्स्ट्रिक्शन होता है।

(क्रमश:)

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