हृदय एवं रक्ताभिसरण संस्था – ३५

पिछले लेख में हम ने स्केलेटल स्नायुओं को होनेवाली रक्त आपूर्ति की जानकारी प्राप्त की। आज हम प्रत्यक्ष हृदय के रक्ताभिसरण की जानकारी प्राप्त करनेवाले हैं। हृदय के रक्ताभिसरण को करोनरी रक्ताभिसरण (Coronary Circulation) कहते हैं। हृदय की रक्तवाहनियों को करोनरी आरटरीज कहते हैं।

बांयी व दांयी ऐसी दो प्रकार की आरटरीज हृदय को रक्त की आपूर्ति करती हैं। ये दो रक्तवाहनियां हृदय के ऊपरी हिस्से में ही प्रवास करती हैं। इनसे निकलनेवाली छोटी-छोटी रक्तवाहनियां हृदय के स्नायुओं में प्रवेश करती हैं और स्नायुओं को प्राणवायु व अन्नघटकों की आपूर्ति करती हैं। बांयी करोनरी बांयी वेंट्रिकल के सामने वाले बांयी ओर के भाग को रक्त की आपूर्ति करती हैं।

बढ़ती उम्र के साथ ज्यादातर लोगों को हृदय विकार हो जाते हैं। हृदय विकार का कारण यह करोनरी रक्ताभिसरण होता है। करोनरी आरटरीज में बदलाव होने अथवा रक्तप्रवाह में रूकावट आ जाने के कारण हृदय विकार की तकलीफ़ होती है। इसीलिये इसकी जानकारी रखना आवश्यक है।

शरीर की स्थिर स्थिति में प्रौढ़ व्यक्ति में प्रति मिनट २२६ मिली. रक्त इन करोनरी रक्तवाहनियों में बहता है। यानी कार्डिआक आऊटपुट का मात्र ४ से ५ प्रतिशत।

करोनरी रक्ताभिसरण

स्वस्थ युवा व्यक्ति में व्यायाम के दौरान कार्डिआक आऊटपुट ४ से ७ बढ़ जाता है। इसके लिये हृदय के कार्यों में वृद्धि होती हैं। हृदय पर कार्य का भार ६ से ९ गुना बढ़ जाता है। परन्तु करोनरी प्रवाह सिर्फ़ ३ से ४ गुना ही बढ़ता है। तात्पर्य यह है कि कार्य के भार के आधार पर रक्तप्रवाह नहीं बढ़ता। इससे एक ङ्गायदा होता है। अन्नघटकों की कमी होने के बावजूद भी हृदय के स्नायु की कार्य करने की शक्ति-क्षमता बढ़ जाती हैं।

हृदय के आकुंचन के दरमियान यानी सिस्टोल में स्नायु की रक्त की आपूर्ति कम हो जाती है और हृदय के प्रसरण में यानी डाएस्टोल में रक्ती की आपूर्ति बढ़ती हैं। सिस्टोल में स्नायु आकुंचित होते हैंतो रक्तवाहनियों पर दबाव प़ड़ता हैं। हृदय में यह दाब एक दिशा में बढ़ता है। फलस्वरूप हृदय के ऊपरी हिस्से में यांनी एपिकार्डिअस में रक्तवाहनियों की अपेक्षा हृदय के अंदरूनी भाग यानी एन्डोकार्डिअम में रक्तवाहनियों पर पड़नेवाला दबाव काफी़ ज्यादा होता है। इसके कारण सिस्टोल में इस सबएन्डोकार्डिअल रक्तवाहनियों में रक्तप्रवाह लगभग कुंठित हो जाता है। रक्तप्रवाह में इस कमी को पूरा करने के लिये सब एन्डोकार्डिअल रक्तवाहनियों के जाल ज्यादा होते हैं। इसकी तुलना में ऊपरी हिस्से में रक्तवाहनियों के जाल कम होते हैं। इसका फायदा यह होता है कि डाएस्टोल में सब एन्डोकार्डिअल भाग में रक्तप्रवाह बड़ी मात्रा में बढ़ जाता है। इसकी अपेक्षा ऊपरी भाग में रक्तप्रवाह कम होता है।

अब हम देखेंगे कि इस करोनरी रक्तप्रवाह का नियंत्रण कैसे होता है।

१) स्थानिक नियंत्रण – हृदय के स्नायुओं की अन्नघटकों की आवश्यकता के अनुसार रक्तवाहनियां डायलेट होती है। हृदय के चेतातंतु कार्यरत हो या नहीं। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। यदि किन्हीं कारणों से हृदय के स्नायुओं के कार्य बढ़ जायें तो रक्तप्रवाह बढ़ जाता है। तथा कार्य कम होने पर रक्तप्रवाह कम हो जाता है।

हृदय के स्नायुओं की प्राणवायु की आवश्यकता बढ़ने पर करोनरी रक्तप्रवाह बढ़ जाता है और प्राणवायु की आवश्यकता में कमी होने पर रक्तप्रवाह भी कम हो जाता है। प्राणवायु की कमी व अन्य रासायनिक घटक करोनरी रक्तवाहनियों को डायलेट करते हैं।

२) चेतासंस्था का नियंत्रण – यह दो प्रकार का होता है – प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष। प्रत्यक्ष नियंत्रण में चेतातंतु सीधे रक्तवाहनियों पर कार्य करते हैं। सिंपथेटिक चेतातंतु रक्तवाहनियों को कन्स्ट्रिक्ट करते हैं तथा पॅरासिंपथेटिक (वेगस्) चेतातंतु रक्तवाहनियों को डायलेट करते हैं।

अप्रत्यक्ष नियंत्रण में ठीक इसके विपरित क्रिया होती है। सिंपथेटिक चेतातंतु हृदय के स्नायुओं पर व S.A. नोड पर कार्य करते हैं तो हृदय का कार्य बढ़ जाता है। इस बढ़े हुए कार्य के फलस्वरूप करोनरी आरटरीज डायलेट होती हैं। पॅरासिंपथेटिक (वेगस्) चेतातंतु हृदय के स्पन्दन-कार्य को कम कर देते हैं और करोनरी आरटरीज इसके कारण आकुंचित होती हैं। हृदय के बारे में यह अप्रत्यक्ष नियंत्रण ज्यादा महत्त्वपूर्ण है।

पेशियों के बारे में ये अध्ययन करते समय हमने देखा कि पेशी के ऊर्जा का स्रोत ATP मॉलेक्युल होता है। सभी पेशियाँ ऊर्जा के लिये ATP का इस्तेमाल करके रक्त में उपस्थित शक्कर का पचन करते हैं। हृदय के स्नायु शक्कर की जगह स्निग्ध आम्ल का (fatty acids) इस्तेमाल अन्न के रूप में करते हैं। नॉर्मल स्थिति में लगभग ७०% अन्न इस से और शेष ३०% अन्न शक्कर से ये स्नायु ग्रहण करते हैं। परन्तु जब इन स्नायुओं पर कार्य का बोझ बढ़ता हैं तो फिर ये स्नायु भी शक्कर का इस्तेमाल ज्यादा करते हैं। (Carbohydrates) इसके लिये ATP मॉलेक्युल का इस्तेमाल किया जाता है। इस इस्तेमाल के कारण ATP का रूपांतर अ‍ॅडिनोसिन में हो जाता है। यह अ‍ॅडिनोसिन स्नायुपेशियों के द्वारा तेज़ी से इस्तेमाल किया जाता है। परन्तु उतनी ही तेज़ी से नया अ‍ॅडिनोसिन यदि पेशियों को उपलब्ध नहीं होता है तो पेशियाँ मृत हो जाती है। इसीलिए हृदय के विकारों में इन पेशियों के मृत होने पर ही व्यक्ति के जीवन का धोखा निर्भर होता है। हृदय विकार में वास्तव में क्या होता है, इसका अध्ययन हम अगले लेख में करेंगें।

(क्रमश:-)

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