रक्त एवं रक्तघटक – ५०

रक्त की सफेद पेशियों के बारे में हम जानकारी प्राप्त कर चुके हैं। अब हम इन पेशियों के तथा इनके कार्यों के बारे में अधिक जानकारी प्राप्त करेंगे।

सफेद रक्तपेशियां यानी शरीर के सैनिक, जो बचाव और प्रतिकार दोनों में प्रवीण हैं। परन्तु यह बचाव और प्रतिकार भला किसके विरुद्ध और क्यों करना पड़ता है? तरह-तरह के जीवाणु, विषाणु, एकपेशीय जीव, बुरशी इत्यादि जीव-जन्तु हमारी त्वचा, आँखें, श्‍वसनसंस्था, आँतों, मूत्रनलिका, मुख इत्यादि में हमेशा बने रहते हैं। सामान्यत: ये जीवजंतु नुकसानदायक नहीं होते। परन्तु यदि इन्हें उपरोक्त स्थानों के ऊपरी आवरण को छेदकर अंदरूनी पेशियों में घुसने का अवसर मिलता है तो ये बीमारी का निर्माण करते हैं। उदा. हमारी आँखों की पुतलियों के अंदर कंजंक्टायवा का आवरण। इस आवरण पर उपरोक्त में से अनेक जन्तु हमेशा ही रहते हैं। जब तक यह आवरण अभेद्य रहता है तब तक ये जीवजंतु किसी भी प्रकार की तकलीफ उत्पन्न नहीं कर सकते। इस आवरण पर किसी भी प्रकर का घाव अथवा छेद हो जाने पर जीवाणुओं को अंदर घुसने का अवसर मिल जाता है और तब वे नुकसानदायक साबित होते हैं। कुछ जीवाणु/विषाणु इस आवरण के संपर्क में आने पर स्वयं ही इस आवरण में छेद कर देते हैं। इन जीवाणुओं को इनव्हेजिव अर्थात स्वयं अंदर घुसनेवाले जीवाणु कहा जाता है। विषमज्वर अथवा टायफॉईड, न्युमोनिआ इत्यादि गंभीर रोगों के जीवाणु इसी प्रकार के होते हैं।

इस प्रकार के सभी जीवजंतुओं का प्रतिकार एवं इनसे बचाव का कार्य रक्त की सफेद पेशियां करती हैं। यह प्रतिकार और बचाव दो प्रकार से होता है –

१) सफेद पेशियां जीवजंतुओं पर आक्रमण करती है और उन्हें अपने आप में समाविष्ट करके नष्ट कर देती हैं।

२) घातक जीवाणुओं एवं अन्य नुकसानदायक चीजों का विरोध करने के लिये अँटिबॉडिज तैयार किये जाते हैं और ये अँटिबॉडीज जीवाणुओं का नाश करते हैं। अब हम यह सब कैसे होता है यह देखेंगे।

न्युट्रोफिक्स, इओसिनोफिल्स, बेसोफिल्स, मोनोसाईट्स और लिम्फोसाईट्स में पाँच प्रकार की सफेद रक्तपेशियां शरीर में होती हैं। एक मायक्रोलीटर रक्त में साधारणत: ७००० सफेद पेशियां होती हैं। (रक्त की इतनी ही मात्रा में ५० लाख लाल रक्तपेशीयां होती हैं।) कई बार प्लाझ्मा सेल नामक सफेद पेशी भी रक्त में पायी जाती हैं।

इस से पहले हमने देखा है कि न्युट्रोफिल्स, इओसिनिफिल्स और बेसोफिल्स इन पेशियों का निर्माण अस्थिमज्जा में होता हैं। इन सभी पेशियों में एक से अधिक केन्द्रक होते हैं और इनके पेशीद्राव में सूक्ष्म कण होते हैं(granules)। इसीलिये इन्हें पॉली मार्फोन्युक्लीअर पेशी या ग्रॅन्युलोसाइट पेशी कहा जाता है। मोनोसाइट पेशियां भी अस्थिमज्जा में ही निर्माण होती हैं। लिंफोसाईट पेशी मुख्यत: लिंफनोड और थायमस ग्रंथी में निर्माण होती हैं। कुछ मात्रा में इनका निर्माण अस्थिमज्जा में भी होता है।

अस्थिमज्जा में निर्माण होनेवाली पेशियों को अस्थिमज्जा में ही जमा किया जाता है। शरीर की आवश्यकता के अनुसार इन पेशियों को रक्त में भेजा जाता है। किसी भी विशिष्ट समय में जितनी सफेद पेशियाँ रक्त में रहती हैं, उससे तीन गुना पेशियां अस्थिमज्जा में जमा रहती हैं। इनका प्रमाण इतना होता है कि शरीर के लिए छ: दिनों तक पर्याप्त होता है।

लिंफोसाइट पेशी को लिंफ़ नोड्स में जमा रखा जाता है। इनमें से कुछ पेशियां रक्त में हमेशा घूमती रहती हैं।

सफेद रक्तपेशियों की आयुसीमा :
ग्रॅन्युलोसाइट पेशियां रक्त में प्रवेश के बाद ज्यादा से ज्यादा ४ से ८ घंटे तक रक्त में रहती हैं। रक्त के माध्यम से ये शरीर की विभिन्न पेशियों में घुसती हैं और वहाँ पर उनकी आयु ४ से ५ दिन की होती है। पेशी में जीवाणु बाधा (infection) होती है तो पेशियों में भी इनकी आयु कुछ घंटों की ही होती है। ये पेशियां जीवाणुओं को मार देती हैं और तुरंत स्वयं भी नष्ट हो जाती हैं।

मोनोसाइट पेशियां रक्त में १० से २० घंटों तक रहती हैं। पेशियों में प्रवेश के बाद इनका आकार बढ़ जाता है। इन्हें ही मॅक्रोफाज पेशी कहा जाता है। इसी स्थिति में अगले कई महीनों तक ये बरकरार रहती हैं। लिंफोसाईट पेशी का जीवाणु काल कुछ महीनों का होता है। यह पेशियां हमेशा घूमती रहती हैं। लिंफ नोड्स में से वे रक्त में आती हैं। रक्त में से पेशीबाह्य द्राव में और बाद में लिंफ द्राव में जाती हैं। लिंफ द्राव में से वे फिर से रक्त में आ जाती हैं। इस तरह उनका प्रवास चलता रहता है।

प्लॅटलेट पेशियों की आयु १० दिन की रहती है।
(क्रमश:-)

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