रक्त एवं रक्तघटक – ४०

पिछले लेख में हमनें रक्त के बारे में सर्वसाधारण संक्षिप्त जानकारी प्राप्त की। इसके बारे में और कुछ जानकारी प्राप्त करते हैं।

हमारा रक्त यह एक अपारदर्शक थोड़ा गाढ़ा द्राव है (fluid) है। गाढ़ा यानी पानी की अपेक्षा थोड़ासा गाढ़ा। शरीर की आरटरीज़ का ऑक्सिजनेटेड रक्त गहरा लाल रंग का अथवा bright Scaslet रंग का दिखायी देता है तथा शरीर की वेन्स का रंग काला-लाल अथवा थोड़ा जामुनी रंग का होता है।

रक्त एकसंघ द्राव नहीं हैं। इसे heterogenous fluid कहते हैं। इसके दो भाग होते हैं। पहला भाग स्वच्छ पतला द्रव जिसे प्लाझमा कहते हैं तथा दूसरा भाग यानी इसकी सभी पेशियां, जिन्हें कॉरप्स्कलस (corpuscles) कहते हैं। रक्त के इन दो भागों के कारण रक्तप्रवाह का प्रवाहीकरण (haemodynamics) भौतिकशास्त्र की दृष्टि से थोड़ा अलग होता है। यह न्यूटन के नियमों के अनुसार नहीं होता इसीलिये इसे (Non-Newtonian) द्राव कहते हैं। शरीर के रक्त प्रवाह में इसका काफ़ी महत्व है।

प्लाझ्मा : यह स्वच्छ पीले रंग का द्रव होता है। इसमें अनेक प्रकार के घुले हुये अथवा तैरनेवाले कण होते हैं। घुले हुये घटकों में (crystalloids) सोडियम व क्लोराइड के कण सबसे ज्यादा होते हैं। इसके अलावा पोटॅशिअम, कॅलशिअम, मॅग्नेशिअम, फॉस्फेट्स, बायकार्बोनेट्स, ग्लुकोज (शर्करा) अमिनो अ‍ॅसिड्स इत्यादि कण भी होते हैं। अघुलनशील घटकों (colloids) में विविध प्रकार के प्रथिन व स्निग्ध पदार्थ इनका समावेश होता है। इसमें रक्त को जमने में सहायता करनेवाले प्रथिन प्रोथ्रालिन इत्यादि म्युनोग्लोब्युलिन (प्रतिकार शक्ति का हिस्सा), ग्लायकोप्रोटीन्स इत्यादि का समावेश होता है।

संपूर्ण शरीर की सभी प्रकार की चयापचय क्रियाओं (metabolic activity) का प्रतिबिंब प्लाझ्मा में दिखायी देता है। यदि इन क्रियाओं में कोई खराबी गड़बड़ी हो जाये तो उसका भी प्रतिबिंब प्लाझ्मा में आ जाता है। इसीलिये रक्त की यानी प्लाझ्मा की विविध प्रकार की परिक्षण करके बीमारी का निदान किया जाता है। इसलिए यह परिक्षण अत्यंत महत्वपूर्ण है।

अब हम रक्त की विविध पेशियों की जानकारी प्राप्त करेंगे। पिछले लेख में हमने देखा कि रक्त में मुख्य तीन पेशियां होती हैं। लाल पेशी, सफेद पेशी व प्लॅटलेटस। रक्त की बूँद को काँच की पट्टी पर लेकर सूक्ष्मदर्शी यंत्र से देखकर इन पेशियों का निरीक्षण किया जा सकता है। इन पेशियों के निरीक्षण से अनेक विकारों का निदान किया जा सकता है। इनकी रक्त में कुल संख्या, अन्य पेशियों की तुलना में इनकी संख्या, उनके आकार में आया बदलाव इत्यादि बातों से रोग का निदान होता है।

लाल पेशी erythrocytes – रक्त की कुल पेशियों में से ९९% पेशियां लाल या तांबडी पेशियां होती है। दोनों सिरों पर अंतर्गोल तस्तरी के आकार की ये पेशियां होती है। इन पेशियों में केन्द्रक (nucleus) नहीं होता है। इन पेशियों पर प्लाझ्मा मेंब्रेन का आवरण होता है। यह आवरण ६०% स्निग्ध पदार्थ से तथा ४०% प्रथिनों का बना होता है। हमारा रक्त समूह जीस चीज़ पर निर्धारित होता है वो A, B, और O नामक अ‍ॅटिजेन्स ये इस आवरण की ग्लायकोलिपिड्स (स्निग्ध घटक) होते हैं। इन पेशियों के आकार को बरकरार रखने का काम स्पेक्ट्रिन नामक प्रथिन करती है। इन पेशियों के अंदर साधारणत: एक ही प्रकार के प्रथिन होते हैं। जिसे हिमोग्लोबिन कहते हैं। पेशियों की इस हिमोग्लोबिन की मात्रा से ही यह तय होता हैं कि हम सुदृढ़ है या अ‍ॅनिमिक है।

हिमोग्लोबिन – यह लाल पेशियों के अंदर की महत्त्वपूर्ण प्रथिन है। इसके भी मुख्य दो भाग होते हैं। ग्लोब्युलिन नामक प्रथिन और लोहकण युक्त हीम। हिमोग्लोबिन के प्रत्येक कण में चार पॉलिपेक्टाइड की चार जंजीरें होती हैं। उन्हें लॅटिन अल्फाबेट्स के नाम दिये गये हैं। वे हैं अल्फा, बीटा, गॅमा व डेल्टा। लाल पेशियों में इन चार पॉलिपेप्टाइड की जंजीरों की मात्रा पर हिमोग्लोबिन का प्रकार निर्धारित होता है। प्रत्येक प्रौढ़ व्यक्ति की हिमोग्लोबिन को – हिमोग्लोबिन A(HbA) कहते हैं। इसमें दो अल्फा व दो बीटा जंजीरे होती हैं। प्रौढ़ व्यक्ति में HbA2 नामक एक अन्य हिमोग्लोबिन उचित मात्रा में होता है। उसमें दो अल्फा व दो डेल्टा जंजीरे होती हैं। फीटल हिमोग्लोबिन अथवा HbF गर्भावस्था व जन्म के बाद कुछ समय तक रक्त पेशियों में रहती हैं। इस HbF में दो अल्फा व दो गॅमा जंजीरे होती हैं। यह सब जानकारी इसलिये दी जा रही है कि जिससे यह पता रहे कि नॉर्मल मात्रा क्या होनी चाहिये। हिमोग्लोबिन की पॉलिपेप्टाइड जंजीरों में बदलाव के कारण शरीर में कुछ व्याधियां उत्पन्न हो जाती हैं। इनमें से एक व्याधी थॅलेसिमिया के नाम से जानी जाती है। ऐसे विकारों में एक ही प्रकार की पॉलिपेप्टाइड जंजीरे दिखायी देती हैं। चारों अल्फा जंजीरें (इसे बीटा थॅलेसिमिया कहते हैं) अथवा चारों बीटा जंजीरे (अल्फा थॅलेसिमिया) होती हैं। थॅलेसिमिया की ही तरह सिकल-सेल नाम का रक्त विकार होता है। इसमें हिमोग्लोबिन की बीटा जंजीरों में छोटा सा दोष होता है। इस हिमोग्लोबिन को Hb-s कहते हैं। इसके अलावा कुछ एन्झाइम्स भी इस पेशीं में होते हैं।

लाल पेशियों की उम्र साधारणत: सौ से एक सौ बीस दिनों की होती है। इसके बाद यकृत व प्लीहा में मौजूद मॅक्रोफोज पेशियों द्वारा इन्हें नष्ट किया जाता है। लाल पेशियां उनकी बढ़ती उम्र के साथ नाजुक होती जाती हैं। जब ये पेशियां नष्ट होती है तो उनमें मौजूद हिमोग्लोबिन मुक्त हो जाती है। ग्लोब्युलीन का विघटन अमिनो आम्ल में हो जाता है। हीम घटक का लोह अलग कर दिया जाता है। इस लोह का उपयोग या तो फौरन नयी पेशियों में हिमोग्लोबिन तैयार करने के लिये किया जाता है अथवा शरीर में जमा किया जाता है। शेष हीम भाग का विघटन बिलिरुबीन में होता है व बिलिरुबीन ‘बाइल’ के माध्यम से आँतों में उत्सर्जित होता है। इस बिलिरुबीन की रक्त में मात्रा बढ़ जाने पर यह पेशाब के माध्यम से उत्सर्जित होने लगती है व शरीर की अन्य पेशियों में जमा की जाती है। ऐसी स्थिति में पेशाब पीला दिखायी देता है व आँखे, चमड़ी, नाखून पीले दिखायी देते हैं। इसे ही हम पिलीया (जाँडिस) कहते हैं।

गर्भ की लाल पेशियां थोड़ी अलग होती हैं। ये आकार में बड़ी होती हैं। इनमें केन्द्रक होता है व हिमोग्लोबिन फीटल प्रकार का होता है।

आज हमने रक्त की लाल पेशियों के बारे में जानकारी प्राप्त की। कल से रक्त की सफेद पेशियों के बारे में जानकारी प्राप्त करेंगें।

(क्रमश:)

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