रक्त एवं रक्तघटक – ५३

इसके पहले के लेख में हमने देखा कि सफेद रक्तपेशियां सिर्फ़ जीवाणुओं, विषाणुओं को ही कैसे नष्ट करती हैं। शरीर के बाहरी या अंदरूनी भागों में किन्हीं कारणों से जख़्म हो जाने पर शरीर में एक विशिष्ट घटनाक्रम शुरू हो जाता है। वह जख़्म यह किसी भी प्रकार की चोट, रासायनिक पदार्थ, उष्णता, जीवाणु में से किसी भी वजह से हो सकती है। इस घटनाक्रम के कारण जख़्मी समूह में अनेक पदार्थ तैयार हो जाते हैं और उस स्थान पर ‘सूजन’ आ जाती है। इसे ही वैद्यकीय परिभाषा में Inflammation (इन्फ्लमेशन) कहते हैं। किसी भी अवयव में जीवाणु बाधा (infection) होने के पश्‍चात् क्या-क्या होता है, अब हम यह देखेंगे।

जीवाणुबाधा के कारण पेशीसमूह में जख़्म होने के बाद निम्नलिखित घटनायें होती हैं –

१) स्थानिक रक्तवाहिनियाँ डायलेट हो जाती हैं और उस भाग में रक्त का प्रवाह बढ़ जाता है।

२) केशवाहनियों में से बड़ी मात्रा में द्राव बाहर निकलता है और पेशी के मध्यभाग में फैल जाता है।

३) इस द्राव में फाइब्रोनोजेन और अन्य प्रथिन ज्यादा मात्रा में होने के कारण यह द्राव गाढ़ा होता है (Clotting)।

४) केशवाहनियों से न्युट्रोफिल एवं मोनोसाइट पेशियां बड़ी मात्रा में बाहर निकलती हैं।

५) बाधित पेशीसमूह की पेशियां फूलकर बड़े आकार की हो जाती हैं।

इस दरम्यान हिस्टामिन, ब्रॅडिकायनिन, सिरोटोनिन, प्रोस्टाग्लँडिन इत्यादि रासायनिक पदार्थ इस स्थान पर जमा हो जाते हैं। ये रासायनिक पदार्थ मॅक्रोफाज पेशी को उसका कार्य करने के लिए प्रोत्साहित करता है।

बाधित अवयवों में सूजन आ जाने पर सर्वप्रथम इस सूजन को सीमित रखने का काम शरीर करता है। इसके लिए उस स्थान की लिंफॅटिक वाहनियां और पेशी की अंदरूनी जगह आकुंचित होती है। फलस्वरूप बाधित पेशीसमूह में घुसनेवाले द्राव की मात्रा कम हो जाती है। पेशी समूह में एक प्रकार की दीवार बन जाती है, जो जीवाणुओं के प्रसरण को रोकती है। इसके कारण जीवाणुओं और उनके विष को शरीर में फैलते में समय लगता है और उसकी सीमा भी तय हो जाती है।

जिवाणुबाधा (Infection) होने से सूजन आने के बाद न्युट्रोफिल और मॅक्सोफाज पेशियों का कार्य कैसे शुरू होता है, यह अब देखेंगे।

इस पेशीसमूह में रहनेवाली मॅक्रोफाज पेशियां जीवाणुओं पर आक्रमण करती हैं। कुछ ही मिनटों में इनका प्रतिकार-कार्य शुरु हो जाता है। सर्वप्रथम ये पेशियां आकार में बढ़ती हैं और बाद में ये पेशियाँ पेशीसमूह से अलग होकर ‘विचरणशील’ बन जाती हैं और एक घंटे के अंदर ही अपना फॅगोसायटोसिस का काम शुरू कर देती हैं।

जीवाणुओं पर दूसरा आक्रमण न्युट्रोफिल पेशी करती हैं। जीवाणु बाधा होने के घंटे भर में ही बाधीत जगह न्युट्रोफिल्स से भर जाती है। जीवाणुओं को मारने का उनका कार्य तुरंत ही शुरु हो जाता है। इस कार्य के लिए न्युट्रोफिल पेशियों की आवश्यकता होने के कारण रक्त में न्युट्रोफिल पेशियों की संख्या बढ़ जाती हैं। ये पेशियां अस्थिमज्जा से रक्त में प्रवेश करती हैं। सर्वसाधारणत: एक मायक्रोलीटर रक्त में ४ से ५ हजार न्युट्रोफिल पेशियां होती हैं। जीवाणुबाधा होने पर यहीं संख्या ४ से ५ गुना बढती है। शरीर में कहीं भी इन्फेक्शन होने के कारण रक्त में इनका प्रमाण २० से २५ हजार प्रति मायक्रोलीटर हो जाती है। ये हैं शरीर के बचाव की पहली दो सीढ़ियां।

बचाव की तीसरी सीढ़ी पर होती है मोनोसाइट पेशी। न्युट्रोफिल पेशी के साथ-साथ ये पेशियाँ भी रक्त में से बाहर निकलती हैं और बाधित अवयव तक पहुँचती हैं। परन्तु वे अपना कार्य करने में असमर्थ होती हैं। प्रथम इनका आकार बढ़ने लगता है। सर्वसाधारणत: ८ से १० घंटों में ये पर्याप्त बड़ी एवं समर्थ बन जाती हैं। इन्हें ही अब मॅक्रोफाज कहा जाता है। फिर उनका जीवाणुओं को मारने का काम शुरु होता है। रक्त में और अस्थिमज्जा में वैसे भी मोनोसाइट पेशियां कम होती हैं। अत: जीवाणुबाधित स्थान पर इनकी संख्या बढ़ने के लिये कई दिन लग जाते हैं। परन्तु एक बार इनका कार्य शुरू होने पर अगले कई दिनों तक इनका कार्य शुरू रहता है। जीवाणुओं को मारने की इनकी क्षमता भी न्युट्रोफिल की अपेक्षा पाँच गुना ज्यादा होती है।

शरीर के बचाव की चौथी सीढ़ी स्वयं अस्थिमज्जा है। जीवाणु-बाधा होने के बाद अस्थिमज्जा में न्युट्रोफिल एवं मोनोसाइट पेशियों की संख्या अधिक हो जाती है। परन्तु नयी पेशियों को रक्त तक पहुँचने में ३ से ४ दिन का समय लग जाता है। जीवाणु-बाधा के शुरु रहने पर कई दिनों से कई महिनों तक अस्थिमज्जा के बढ़े हुये कार्य शुरु रहते हैं।

जीवाणु-बाधित पेशीसमूह में धीरे-धीरे मृत शरीरपेशियां, जीवाणुओं को मारते समय मृत हुई न्युट्रोफिल पेशियाँ, मॅक्रोफाजेस् इत्यादि जमा होने लगते हैं। शरीर में इनका प्रसार रोकने के लिए उसके चारों ओर एक प्रकार की दीवार बन जाती है। दीवार के अंदरूनी रिक्त स्थान में पेशी एवं द्राव जमा हो जाता है। इसे ही हम ‘पू’ यानी ‘मवाद’ (पस) कहते हैं। धीरे-धीरे ये सभी मृतपेशी नष्ट हो जाती हैं और द्राव फिर से रक्त में शोषित किया जाता है। इसके बाद जिवाणु-बाधा से हुई जख्म भर जाती है और रिक्त स्थान भी नष्ट हो जाता है।

(क्रमश:-)

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