हृदय एवं रक्ताभिसरण संस्था- ११

गर्भावस्था में बच्चे के शरीर में रक्ताभिसरण किस तरह होता है, यह हमने देखा। जनम के समय होनेवाले बदलावों को देखा। गर्भावस्था में हृदय का विकास होते समय कभी-कभी उसमें रचनात्मक दोष निर्माण हो जाते हैं और जन्म के बाद ये दोष वैसे ही रह जाते हैं। इन्हें हृदय के जन्मजात दोष कहते हैं। इन दोषों की संक्षिप्त जानकारी लेते हैं।

गर्भावस्था में निर्माण होनेवाले शरीर के विभिन्न दोषों में से २५% दोष हृदय के होते हैं। साधारणत: प्रत्येक १००० बच्चों में से ८ बच्चों में ऐसे दोष पाये जाते हैं। हृदय के दोषों को तीन भागों में बांटा जा सकता है –

गर्भावस्था१) पहले प्रकार के दोष में हृदय अपने निश्‍चित स्थान पर नहीं होता। इस में सब से गंभीर बीमारी में हृदय शरीर के बाहर होता है। छाती व पेट के बीच के भाग से हृदय पूरी तरह बाहर आ जाता है। उसके ऊपर का पेरिकार्डिअम का आवरण वैसा ही रहता है। कभी-कभी तो हृदय के साथ-साथ शरीर के अन्य अवयव भी शरीर के बाहर आ जाते हैं। इस दोष को बाह्य हृदय अथवा ectopia cardis कहते हैं।

इसका दूसरा उपप्रकार यानी Dextrocardia। इसमें हृदय, छाती के पिंजरे में दाहिनी ओर होता है। हृदय की अपेक्स दाहिनी ओर होती है। कभी-कभी इसके साथ-साथ पेट के अवयवों में भी अदलाबदली हो जाती है। दाहिनी ओर का यकृत बायी ओर तथा बायी ओर का ज़ठर दाहिनी ओर चला जाता है। इस दोष को Situs Inversus कहते हैं। कभी-कभी इसके साथ-साथ प्लीहा बनती ही नहीं (asplenism) अथवा एक की जगह अनेक प्लीहाएँ (polysplenism) तैयार हो जाती हैं।

२) एट्रिआ व वेंट्रिकल्स के बीच द्विभाजक परदे के दोष इस प्रकार में समाविष्ट होते हैं। हृदय के कुल दोषों में से इस प्रकार के दोष सब से ज्यादा मात्रा में पाये जाते हैं।

एट्रिआ परदे के दोष (Atrial Septal Defects)
– दो एट्रिओं के बीच में जो परदा होता है उसमें ओवल फोरॅमेन होता है। पिछले लेख में हमने देखा कि इस फ्लॅप में से दाहिनी एट्रिआ का रक्त बांयी वेंट्रिकल में जाता है। बच्चे के जनम के समय यह फ्लॅप बंद हो जाता है। कभी-कभी यह फोरॅमेन के सिरे से पूरी तरह नहीं जुड़ता। कुछ बच्चों में इस फ्लॅप के बीच में ही छेद होता है व उससे दोनों एट्रिआओं के रक्त में मिलावट होती है।

– गर्भ की वृद्धि के दौरान दो एट्रिआओं के बीच का परदा वेंट्रिकल की दिशा में बढ़ता जाता है। एट्रिआ व वेंट्रिकलस के बीच के पट्टे में हृदय के अंदरूनी आवरण के कुछ उभार होते हैं। उन उभारों के साथ यह परदा पूरी तरह जुड़ जाता है। इस प्रकार दोनों एट्रिआ की खाली स्थान अलग-अलग हो जाते हैं। इस स्थान से आगे एट्रिआ व वेंट्रिकल्स के बीच परदा तैयार होता हैं या विकसित होता है। कभी-कभी कुछ कारणों से दोनों एट्रिआओं के बीच का परदा बढ़ता नहीं हैं। इस स्थान पर गॅस तैयार हो जाता है व इस गॅस में से दोनों एट्रिआओं का रक्त आपस में मिल जाता है। इस प्रकार के दोष को ‘ऑस्टिअम प्राइमम’  कहते हैं। इस में एट्रिकल परदा व एट्रिओ-वेंट्रिक्युलर परदा दोनों में दोष होता हैं।

– एट्रिआ व वेंट्रिकल के बीच में जो आंतरिक आवरण के उभार होते हैं, वे यदि एक-दूसरे से नहीं  जुड़ते तो एट्रिओ-वेंटिक्युलर परदे में दोष रह जाता है। इसमें दो एट्रिआओ व दो वेंट्रिकल से मिलकर एक ही कॉमन एट्रिाओे-वेंट्रिक्युलर मुख होता है। इस स्थान पर रक्त की आपस में मिलावट होती रहती है।

३) वेंट्रिकल्स में परदे के दोष (Ventricular Septal Defect) :-

दोनों वेंट्रिकल के बीच में जो परदा होता है उसके दो भाग होते हैं। इसका अधिकांश भाग स्नायुओं का बना होता है तथा शेष भाग पहले परदे जैसा होता है। इन दोनों में से किसी एक भाग में छेद होता है। इस छेद में से रक्त प्रवाह बांयी वेंट्रिकल में से दांयी वेंट्रिकल में होता है। एट्रिअम व वेंट्रिकल के बीच स्थित परदे के जिन दोषों का हमने अध्ययन किया, वे ज्यादा गंभीर नहीं होते हैं। इन दोषों में बायी ओर का शुद्ध रक्त दाहिनी ओर बहता है व वहाँ के अशुद्ध रक्त में मिल जाता है। यह रक्त आगे चलकर फेफड़ों में जाता है व फिर से शुद्ध होकर बांयी ओर आ जाता है। इस दोष में अशुद्ध रक्त शरीर के रक्ताभिसरण में नहीं मिलता। फलस्वरूप इस तरह के दोषमुक्त बच्चे नीले नहीं दिखायी देते। हृदय के अन्य कुछ दोष होते हैं, जिस में शुद्ध व अशुद्ध रक्त की आपस में मिलावट हो जाती है व इस तरह की मिलावट वाला रक्त शरीर के अन्य अवयवों में फैलता है। ऐसे डिऑक्सिजनेटेड रक्त के शरीर की धमनियों में बहनें के कारण बच्चे की जीभ, नाखून, होंठ इत्यादि भाग काले-नीले दिखायी देते हैं। वैद्यकीय भाषा में इसे सायनोसिस (Cyanosis) कहते हैं।

ऐसे दोषों को हृदय के सायनोटिक दोष कहते हैं। इसमें वेंट्रिकल परदे के दोष व उनके साथ-साथ रक्तवाहनियों के दोष होते हैं। फिर कभी एओर्टा व प्लमनरी आरटरी का उद्गम एकत्र ही होता है, तो कभी वेनाकॅवा के द्वारा रक्त सीधे हृदय की बांयी ओर आ जाता है, तो कभी पलमनरी वेन्स में से कुछ रक्त वापस हृदय की दाहिनी तरफ़ में जाता है। इस प्रकार के अनेकों दोष होते हैं। प्राय: एक से ज्यादा दोष एक ही समय पर किसी व्यक्ति में होते हैं। ऐसे दोषो में सब से ज्यादा पाये जाने वाले दोष को ‘फॅलोट्ज टेट्रालॉजी’(Fallot’s Tetralogy) कहते हैं। इसमें एक ही समय हृदय में चार प्रकार के दोष होते हैं।

उपरोक्त सभी दोष हृदय में होते हैं। इसके अतिरिक्त हृदय के बाहर एक दोष कभी-कभी निर्माण हो जाता है। गर्भ में बालक के रक्ताभिसरण में पलमनरी ट्रंक व एओर्टा को जोड़ने वाली एक छोटी ही नलिका होती है। इस नलिका कोक डक्ट्स आरटिरिओसस कहते हैं। बच्चे के जनम के बाद ही यह डक्ट बंद हो जाती हैं। कभी-कभी यह नलिका अगले जीवन में भी इसी तरह कार्यरत रहती है। सिर्फ रक्त का प्रवास एओर्टा से पलमनरी ट्रंक की ओर होता है। इस दोष में भी बच्चा नीला दिखायी नहीं देता है। हृदय के कुल दोषों में से २०% दोष वेंट्रिकल के पडदे के दोष होते हैं। शेष अन्य दोषों की मात्रा सिर्फ ५% से १०% तक होती है। हृदय के इन विभिन्न दोषों का इलाज उपलब्ध है। हृदय पर शस्त्रक्रिया करके इनमें से अनेक दोषों को ठीक किया जा सकता है।

(क्रमश:)

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