रक्ताभिसरण संस्था – ०१

प्रत्येक जीवित पेशी को अपने कार्यों के संपादन के लिये अन्न-घटकों की आवश्यकता होती है। विभिन्न प्रकार के अणुओं का एवं वायु का आदान-प्रदान पेशियों में होता रहता है। शरीर के विभिन्न संप्रेरकों का विभिन्न अवयवों में प्रसरण जरूरी होता है। पेशियों के कार्यों के दौरान बननेवाले ज़हरीले घटक एवं अन्य त्याज्य पदार्थों को शरीर से बाहर निकालने के लिए उनका योग्य अवयवों तक पहुँचना आवश्यक होता है। इतना ही नहीं, बल्कि इन सभी कार्यों का निरंतर होते रहना भी जरूरी होता है। इसके लिये इन सभी घटकों का अच्छी तरह वहन करनेवाले द्रव पदार्थों एवं इन द्रव पदार्थों को बहाकर ले जाने वाले सिस्टिम की आवश्यकता होती है। हमारे शरीर के रक्त को प्रवाहित करनेवाली रक्तवाहिनियाँ इन सभी चीजों की पूर्तता करती हैं। आज से हम हृदय एवं रक्तवाहिनियों की रचना एवं कार्यों के बारे में जानकारी प्राप्त करने वाले हैं।

हमारा रक्त अनेकों रासायनिक पदार्थों का निरंतर बड़ी मात्रा में आवागमन का माध्यम है। संप्रेरक, प्राणवायु, कार्बन डाय ऑक्साईड, अन्नघटक (antibodies), विघटनकारी रसयाने (catabodies), लाल एवं सफ़ेद पेशियाँ, विविध जीवाणु एवं विषाणु एवं अन्य ज़हरीले घटक इत्यादि सभी का पूरे शरीर में आवागमन रक्त के माध्यम से ही शुरु रहता है। इसके अलावा शरीर के तापमान को बरकरार रखना, मॅकेनिकल अ‍ॅक्शन में पेशी की मजबूती बनाये रखना तथा गुरुत्वाकर्षण के कुछ दुष्परिणामों को टालने जैसे काम रक्त के मार्फ़त ही होते हैं।

* रक्ताभिसरण संस्था की सभी कार्यों को समाविष्ट करने की क्षमता काफ़ी ज्यादा है। साथ ही साथ उसके कार्य भी तेज गति से होते हैं। ऐसा होना हृदय एवं मांसल रक्तवाहिनियों के यांत्रिक कार्यो एवं शरीर में ज्यादा मात्रा में उपस्थित रक्त के फ़लस्वरूप होता है।

* रक्ताभिसरण संस्था को मुख्य रूप से चार भागों में बांटा जाता है –
१) हृदय – जो इसका मुख्य पंप है।
२) हृदय से शरीर के अन्य भागों में रक्त ले जानेवाली रक्तवाहिनियाँ अथवा आर्टिरीज (Artery)
३) पेशियों में केशवहिनियों के जाले (Capillaries) और
४) इन केशवाहिनियों के जालों से शुरु होकर, हृदय की ओर आने वाले और रक्त को शरीर के विभिन्न भागों से हृदय की ओर लाने वाली वाहिनियाँ (veges)
* रक्ताभिसरण संस्था की विशेषता यह है कि यह एक क्लोज़ड सर्किट (closed circuit)। हृदय से निकला हुआ रक्त पूरे शरीर में घूमकर फ़िर हृदय में वापस आता है। इस गोले के दो उपप्रकार हैं –

१) फ़ेफ़ड़ों में रक्ताभिसरण (pulmonary circulation):
इसे लेसर सर्कल अथवा छोटा वर्तुल कहते हैं। इसमें हृदय के दाहिनी वेंट्रिकल में से दोनों फ़ेफ़ड़ों में रक्त जाता है। फ़ेफ़ड़ों की ओर रक्त ले जाने वाली रक्तवाहिनी को पलमनरी आस्टरी (pulmonary artery)कहते हैं। फ़ेफ़ड़ों से होता हुआ रक्त फ़िर हृदय की ओर जिस रक्तवाहिनी के द्वारा आता है। उसे पलमनरी वेन कहते हैं।

२) शरीर के अन्य भागों में रक्ताभिसरण :
इसे ग्रेटर सर्कल अथवा बड़ा वर्तुल कहते हैं। इसमें हृदय से बाहर निकला हुआ रक्त अन्य सभी अवयवों में होता हुआ फ़िर हृदय में आता है।

यहाँ पर एक बात ध्यान में रखनी की हृदय से बाहर रक्त ले जाने वाली सभी रक्तवाहिनियों को आरटरी अथवा रोहिणी कहते हैं और शरीर के अन्य भागों से हृदय की ओर रक्त लानेवाली सभी रक्तवाहिनियों को अशुद्ध रक्तवाहिनियाँ को वेन अथवा नील वाहनियाँ कहते हैं। पहले हमने पढ़ा था कि शुद्ध रक्तवाहिनियों को रोहिणी और अशुद्ध रक्तवाहिनियों को नीला कहते हैं। ग्रेटर सर्कल की रक्तवाहिनियों के बारे में यह बात सच है, परन्तु यदि लेसर सर्कल के बारे में विचार करें तो पता चलता है कि हृदय से फ़ेफ़ड़ों की ओर रक्त ले जाने वाली आरटरी अशुद्ध रक्त लेकर जाती हैं और फ़ेफ़ड़ों से हृदय की ओर रक्त लेकर आनेवाले वाहिनी शुद्ध रक्त लेकर आती है। अत: यह नया नामकरण किया गया है।

शरीर में इस प्रकार रक्त के प्रवाह का आविष्कार सबसे पहले विल्यम हार्वे नामक वैज्ञानिक ने किया था।

हृदय से निकलने वाली मुख्य रक्तवाहिनियों से लेकर केशवाहिनियों तक के प्रवास में इन रक्तवाहिनियों में तीन महत्त्वपूर्ण बदलाव होते हैं। वे इस प्रकार हैं-
१) हृदय से रोहिणी अथवा आर्टरीज जैसे-जैसे दूर जाती हैं वैसे-वैसे उनका विभाजन होता रहता है। उसी तरह बीच में ही कुछ शाखायें निकलती हैं।

इस प्रकार उनकी संख्या बढ़ती जाती है। फ़ेफ़ड़ों व शरीर दोनों में रक्ताभिसरण के दरमियाँ ऐसा होता हैं।

२) जैसे-जैसे आरटरीज़ हृदय से दूर जाती हैं वैसे-वैसे पतली अथवा संकरी होती जाती हैं। उनका व्यास कम होता जाता है। परन्तु उनकी संख्या में होने वाली वृद्धि की तुलना में उनके व्यास में आनेवाली कमी अत्यल्प होती है। फ़लस्वरूप हृदय के पास में रहनेवाली रोहिणी में रक्त को जितनी जगह मिलती है, उससे ज्यादा जगह उसे सभी छोटी रक्तवाहिनियों में मिलकर प्राप्त होती है। इसीलिये मुख्य धमनी में रक्त के प्रवाह का वेग ज्यादा होता है और छोटी रक्तवाहिनियों में यह वेग कम होता है। यहाँ पर इसकी समानता नदी के प्रवाह से की जा सकती है। जब नदी का पात्र संकरा होता है तो वहाँ पर पानी का वेग ज्यादा होता है और जहाँ नदी का पात्र चौड़ा, विशाल हो जाता है वहाँ पर यह वेग कम हो जाता है।

३) आरटरीज जैसे-जैसे, हृदय से दूर जाती हैं वैसे-वैसे वे पतली होती जाती हैं यानी उनकी दीवारों की मोटाई कम होती जाती है।

(क्रमश: )

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