तिरुचिरापल्ली भाग-६

तिरुचिरापल्ली, इतिहास, अतुलनिय भारत, श्रीरंगनाथजी, तमिलनाडू, भारत, भाग-६

श्रीरंगम् के पास, त्रिचि शहर से लगभग ३ कि.मी. की दूरी पर बसे एक स्थल की ओर अब हम जा रहे हैं।

‘तिरुवनैकोईल’ इस नाम से जाने जानेवाले गाँव हमें जाना है। यहाँ भगवान शिवजी और पार्वतीजी इनका एक प्राचीन मन्दिर है।

यहाँ शिवजी को ‘जम्बुकेश्‍वर’ इस नाम से और पार्वतीजी को ‘अखिलंदेश्‍वरी’ इस नाम से जाना जाता है। यहाँ का शिवलिंग यह ‘आप’ तत्त्व का प्रतीक माना जाता है। भगवान शिवजी के कुल पाँच स्थान पंचमहाभूतों में से एक एक महाभूत के प्रतीक माने जाते हैं। उनमें से यह स्थान यानि जम्बुकेश्‍वरजी का स्थान ‘आप’ महाभूत का प्रतीक माना जाता है।

‘आप’ महाभूत से ही सृष्टि में संपूर्ण जल का निर्माण होता है। इसलिए यहाँ ‘आप’ यानि जल की उपस्थिती होना यह स्वाभाविक ही है। यहाँ के शिवलिंग के पास जलस्रोत है। इस देवालय का निर्माण साधारणत: श्रीरंगनाथजी के देवालय के निर्माण के साथ साथ ही हुआ है, ऐसा माना जाता है।

पाँच प्राकार और सात गोपुर रहनेवाला यह शिवमंदिर भी विशाल और विस्तृत हैं।

इस देवालय के निर्माण के संदर्भ में एक कथा कही जाती है। स्वयं देवी पार्वतीजी ने उनके अखिलंदेश्‍वरी इस रूप में यहाँ आप तत्त्व से शिवलिंग का निर्माण किया और उसकी स्थापना कर पूजन भी किया। इसीलिए यहाँ के शिवलिंग को ‘आप’ महाभूत का प्रतीक माना जाता है।

तिरुचिरापल्ली, इतिहास, अतुलनिय भारत, श्रीरंगनाथजी, तमिलनाडू, भारत, भाग-६शिवजी के ‘जम्बुकेश्‍वर’ इस नाम के संदर्भ में भी एक कथा है। जम्बु का अर्थ है, जामुन। पुराने समय में यहाँ जामुन के कई पेड़ थे और पास में ही चन्द्रतीर्थ नाम की झील भी थी। कावेरी नदीसे इस झील में पानी आता था । यहीं के एक जामुन के पेड़ के नीचे भगवान शिवजी शिवलिंग के रूप में प्रकट हुए। जामुन के यानि जम्बु के पेड़ के नीचे प्रकट हुए इस शिवलिंग को ‘जम्बुलिंगम्’ कहा जाने लगा।

जामुन के पेड़ के नीचे प्रकट हुए इस शिवलिंग की पूजा करने प्रतिदिन दो जीव आते थे । उनमें से एक था स़फेद हाथी और दूसरा था मकड़ा (स्पायडर)। ये दोनों भी पूर्वजन्म में पुष्पदन्त और मालव्य नामक शिवगण थे, जिन्हें किसी कारणवश पशुयोनि में जन्म लेना पड़ा था। उनमें से जो हाथी था, वह अपनी सूँड में जल भरकर ले आता थाऔर साथ ही कमल भी। उस जल और कमल के द्वारा वह शिवलिंग की पूजा करता था। मकड़ा भी शिवलिंग की पूजा करता था और जामुन के पेड़ के सूखे हूए पत्ते शिवजी की पिण्डी पर न गिरें, इसलिए शिवलिंग पर जाल भी बनाता था।

उसके द्वारा बनाया गया जाल हाथी को पसंद नहीं था और वह हर रोज़ जाल को तोड़ देता था। लेकिन यह कार्य मकड़े की ग़ैरमौजूदगी में करता था, इसलिए मकड़ा पुन: दूसरे दिन नया जाल बनाता था।

यह सिलसिला काफ़ी दिनों तक चला और एक दिन दोनों रुबरु हो गये। उनके बीच द्वन्द छिड़ गया। हाथी द्वारा रौंदे जाने के कारण मकड़े की मृत्यु हो गयी और मकड़े के डसने के कारण हाथी की।

इस मकड़े का आगे चलकर चोळ राजवंश में जन्म हुआ और वह ‘कोचेनकण्णन्’ नाम से राज करने लगा। ‘कोचेनकण्णन्’ ने ही यहाँ पर शिवमंदिर बनवाया, जो आज का विद्यमान मन्दिर है। लेकिन उसके पूर्वजन्म के अनुभव के कारण उस राजा ने जहाँ शिवलिंग की स्थापना की, उस गर्भगृह को एवं वहाँ तक जाने के मार्ग को कुछ इस तरह बनाया, जिससे कि हाथी कभी भी गर्भगृह में प्रवेश न कर सकें।

इस तरह बनाये गये ‘जम्बुकेश्‍वरजी’ के इस मंदिर में शिवलिंग आज भी उस छोटे से गर्भगृह में विराजमान है और वहाँ जाने का प्रवेशमार्ग भी सँकरा है।

पाँचवें प्राकार में शिवलिंग विराजमान है और चौथें प्राकार में अखिलंदेश्‍वरीजी प्रतिष्ठित हैं। इस विशाल मंदिर के आसपास नौं तीर्थ हैं।

इस स्थान को ‘उपदेशस्थल’ भी माना जाता है। क्योंकि यहीं पर भगवान शिवजी ने देवी पार्वतीजी को उपदेश किया था, ऐसा कहा जाता है। जम्बु को यानि कि जामुन के पेड़ को यहाँ का ‘स्थलवृक्ष’ अर्थात ‘मंदिर का पवित्र वृक्ष’ माना जाता है।

अन्य मंदिरों की तरह यहाँ भी सालभर विभिन्न उत्सव मनाये जाते है।

आइए, इस महत्त्वपूर्ण एवं अनोखे मंदिर के दर्शन करने के बाद हम कावेरी के साथ साथ पुन: त्रिचि लौटते हैं।

रॉक फोर्ट के साथ शुरू हुआ इस नगर का सफ़र आज एक आधुनिक शहर तक हो चुका है। आज के त्रिचि में भारत के एक आधुनिक शहर में उपलब्ध रहनेवाली सभी सुखसुविधाँए मौजूद हैं। लेकिन आधुनिक त्रिचि ने प्राचीन तिरुचिरापल्ली को सहेजा भी है और स्वयं में समाया भी हैं।

प्राचीनता से आधुनिकता तक का सफ़र तय कर चुके इस शहर को हमेशा से ही साथ मिला है, कावेरी नदी का और जी हाँ, रॉक फोर्ट का भी। चलिए, हम भी फिर एक बार रॉक फोर्ट को जी भरकर देख लेते हैं और हमारे अगले पड़ाव की ओर यानि नये गाँव की ओर प्रस्थान करते हैं।

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