मिनिकॉय भाग – २

समुद्री सफ़र में दूर से दिखायी देनेवाला यह ऊँचा मीनार हमें यह संकेत देता है कि हम मिनिकॉय के क़रीब अब पहुँच चुके हैं। दर असल यह मीनार है, मिनिकॉय द्वीप पर स्थित लाईट हाऊस।

नीले सागर में चलती नाव से मिनिकॉय के सफ़ेद रेतवाले किनारे पर कदम रखते ही सामने दिखायी देते हैं, दूर दूर तक फैले हुई नारियल के बाग़ान। यहाँ की जलवायु नारियल के लिए पोषक है, यह आप इन विशाल बाग़ानों को देखकर समझ ही चुके होंगे।

लक्षद्वीप द्वीपसमूह के दक्षिणी विभाग में बसा यह मिनिकॉय ‘मलिक’ इस नाम से भी जाना जाता है। ‘मार्को पोलो’ नाम के यात्री इस द्वीप का वर्णन ‘महिलाओं का द्वीप’ इन शब्दों में करते हैं। मार्को पोलो जिस समय यहाँ पधारे थे, उस समय मिनिकॉय में ‘मातृासत्ताक’ परिवार पद्धति थी।

समुद्री सफ़र

आइए, अब चलते हैं मिनिकॉय के अन्तरंग में।

लक्षद्वीप के इस दूसरे नंबर के द्वीप का इतिहास लिखित स्वरूप में उपलब्ध नहीं है। यहाँ पर विभिन्न कालावधि में विभिन्न शासकों ने राज किया था, इस संदर्भ में बस कुछ उल्लेख प्राप्त होते हैं। मिनिकॉय का इतिहास कुछ अंश तक लक्षद्वीप के इतिहास से समान्तर ही है। अंग्रेज़ों ने इसपर कब्ज़ा करने के बाद अपनी आवश्यकता के अनुसार इस द्वीप को विकसित किया। ऊपर उल्लेखित लाईट हाऊस का निर्माण भी अंग्रेज़ों ने ही किया। भारत को आज़ादी मिलने के बाद यह द्वीप भारत का एक अविभाज्य घटक बन गया और केन्द्रशासित प्रदेश भी।

मिनिकॉय में कुल अकरा गाँव हैं और उन सबकी मिलकर आबादी है, लगभग दस हज़ार।

यहाँ के हर गाँव में एक विशेष परिपाटी है। हर गाँव में उस गाँव का कामकाज़ करने के लिए एक पुरुष और एक महिला को नियुक्त किया जाता है। वे गाँव की समस्याओं को सुलझाने में गाँववालों का मार्गदर्शन करते हैं। इनमें से नियुक्त पुरुष-प्रतिनिधि को ‘बोडुकाका’ कहते हैं और महिला को ‘बोडुढाथा’। इस सिस्टिम को ‘अथिरीस्’ कहा जाता है। साधारणत: ये प्रतिनिधि गाँव के बुज़ुर्ग व्यक्ति रहते हैं। सारा गाँव इनसे परामर्श लेने के लिए जहाँ इकट्ठा होता है, उसे ‘बेमेडु’ कहा जाता है।

सागर यहाँ के निवासियों का सहचर है। तो फिर इनका सागर के साथ क़रीबी रिश्ता होना यह स्वाभाविक ही है। यहाँ के निवासी कुशल नाविक माने जाते हैं। सागर की तरह नारियल भी इनके जीवन से जुड़ा हुआ है। नारियल से संबंधित उद्योग यह भी यहाँ के निवासियों की रोज़ीरोटी का एक साधन है। यहाँ के सागर में विभिन्न प्रकार की मछलियाँ पायी जाती हैं। उनमें ‘ट्युना’ नाम की मछली ख़ास मानी जाती है और उसे पकड़ना यह यहाँ का प्रमुख व्यवसाय है। ऊपर विशाल गगन, ज़मीन पर दूर दूर तक फैले हुए नारियल के बाग़ान और चारों ओर अथाह सागर! इस द्वीप पर पुराने ज़माने में संपर्क यन्त्रणा विकसित नहीं हुई थी। लेकिन केन्द्रशासित प्रदेश के रूप में भारत से जुड़ जाने के बाद यहाँ पर शिक्षा, वैद्यकीय तथा अन्य सुविधाएँ उपलब्ध करायी गयीं और यहाँ के बेहतरीन कुदरती नज़ारों के कारण ‘पर्यटन’ यहाँ का प्रमुख व्यवसाय बन गया। मानव के मन में अप्रत्यक्ष तत्त्वों के प्रति बहुत ही जिज्ञासा रहती है। सागर के तल तक जाकर वहाँ के सागरी जीवन को देखने की जिज्ञासा में से ‘वॉटर स्पोर्टस्’ की संकल्पना का जन्म हुआ होगा। स्कूबा डायव्हिंग, स्नॉर्केलिंग जैसी तकनीकों में विशेष प्रकार की स्विमिंग पोशाक़ पहनकर, साथ ही ऑक्सिजन सिलिंडर पीठ पर लेकर सागर में गोता लगाते हैं। वहीं स्नॉर्केलिंग में ‘स्नॉर्केल’ नाम की ऑक्सिजन की पूर्ति करनेवाली विशेष ट्यूब का इस पोशाक़ तथा अन्य उपकरणों में समावेश होता है।

सागरी जीवन के साथ साथ यहाँ का नागरी जीवन भी सुन्दर है। मनोरंजन के लिए यहाँ के निवासी विभिन्न नृत्य करते हैं।

मिनिकॉय द्वीप के लोकनृत्यों में ‘लावा’, ‘बंदिया’, ‘थारा’, ‘दंडी’, ‘फुली’ इन नृत्यों का समावेश होता है। नृत्य के साथ गायन भी मनुष्य-स्वभाव-विशेष है। फिर यहाँ के निवासी भी इसमें अपवाद कैसे हो सकते हैं? वे उनकी ‘माहल्’ इस भाषा में गीतों को रचकर उन्हें गाते हैं। लोकनृत्य और गीत-संगीत यहाँ के निवासियों की सांस्कृतिक धरोहर भी है और जीवन का एक अविभाज्य अंग भी!

विभिन्न उत्सवों तथा पर्वों के अवसर पर गाँवों के पुरुष ‘लावा’ यह लोकनृत्य करते हैं और दर्शक होते हैं, महिलाएँ और बच्चें! इस नृत्य के प्रस्तुतीकरण के समय विशेष पोशाक़ पहनी जाती है और हर समूह अपनी कल्पकता के अनुसार इस पोशाक़ की सुन्दरता को बढ़ाते रहता है।

‘बंदिया’ यह महिलाओं का लोकनृत्य है। यह नृत्यप्रकार अर्वाचीन है ऐसा माना जाता है। ‘बंदिया’ का अर्थ है, पानी भरने का घट। घट द्वारा घर में पानी भरने की परिपाटी भारतीयों में है और उसीमें से इस लोकनृत्य का उद्गम हुआ है। घट हाथ में लेकर, ख़ास पोशाक़ पहनकर महिलाएँ यह नृत्य करती हैं।

‘थारा’ यह डफली के ताल पर किया जानेवाला लोकनृत्य है। ‘मुरिदु’ नामक त्योहार के साथ यह जुड़ा है। इस नृत्य के लिए सभी की सुविधा के अनुसार एक हॉल का निर्माण किया जाता है। उस हॉल को ‘मुरिदुग’ कहते हैं। इस हॉल में थारा यह समूहनृत्य किया जाता है। हाथ में थारा यानि कि डफली लेकर उसे बजाते हुए, गीत गाते हुए यह नृत्य किया जाता है।

‘दंडी’ यह भी त्योहार से संबंधित नृत्य है। दंडी का अर्थ है लाठी। इस नृत्य में सजायी गयी लाठियाँ हाथ में लेकर गीत गाते हुए नृत्य किया जाता है।

‘फुली’ यह भी एक नृत्यप्रकार है। सीपों को एक अ‍ॅल्युमिनियम की बोतल में भरते हैं और नाचते समय उस बोतल को हाथ में पकड़ लेते हैं। नृत्य के दौरान उन सीपों से आवाज़ निकलती है। सीपों का इस तरह नृत्य में उपयोग करना यह कितनी अनोखी बात है!

लोकनृत्य के इतने सारे प्रकार पढ़ने के बाद शायद आप यह सोच रहे होंगे कि दिन-रात क्या हम वहाँ जाकर लोकनृत्य ही देखेंगे? नहीं, इस सविस्तार विवेचन का उद्देश्य था, यहाँ की सांस्कृतिक धरोहर से आपको परिचित कराना। मिनिकॉय में शान्त नीलिमा और घनी हरियाली को आप अनुभव कर सकते हैं, वह आपके मन में बस जाती है। क्या आप जानते हैं कि जिस तरह सागर की लहरों का अपना एक संगीत होता है, उसी तरह समुद्री हवाओं का भी अपना एक संगीत होता है। क्या कभी आपने इन्हें महसूस किया है? यहाँ पर आप इस कुदरती संगीत को सुन सकते हैं।

आइए, अब चलते हैं, मिनिकॉय के उस मीनार में, जिसे हमने सागरी यात्रा करते हुए देखा था।

समुद्री मार्ग से होनेवाला व्यापार जैसे जैसे बढ़ता गया, वैसे वैसे बंदरगाह, लाईट हाऊस आदि रचनाएँ साकार होती गयीं। पहले पुर्तगाली और बाद में अंग्रेज़, भारत आये तो थे व्यापार का मुखौटा पहनकर, लेकिन उनके मनसूबें कुछ और ही थे। दिन की रोशनी में तो नौकाओं की आवाजाही में कोई दिक्कत नहीं थी, लेकिन दिन ढल जाने के बाद रोशनी की समस्या पेश आती थी। इसी से फिर नौकाओं को आवाजाही करने में सुविधा हों, इस उद्देश्य से लाईट हाऊस का निर्माण कर यथासमय उसका विस्तार भी किया गया। लखदीव के सागर में से सफ़र करनेवाली नौकाओं की सुविधा के लिए अंग्रेज़ों ने मिनिकॉय द्वीप पर इस लाईट हाऊस का निर्माण किया। १८८२ में किये गये इस फैसले पर अमल किया गया १८८३ में; और १८८५ में इसका निर्माणकार्य पूरा हो गया।

इस लाईट हाऊस की ऊँचाई है, ४९ मीटर्स। इतनी ऊँचाई की वजह है, मिनिकॉय द्वीप पर दूर दूर तक फैले हुए नारियल के पेड़। उनकी ऊँचाई से इस लाईट हाऊस की ऊँचाई का अधिक होना अनिवार्य था। १८८५ से इस लाईट हाऊस ने अपना काम करना शुरू किया। नौकाओं को दिशा दिग्दर्शित करने के लिए यहाँ पर उस समय जो दीपक जलाया जाता था, उसकी रोशनी लगभग उन्नीस मील तक दिखायी देती थी। समय के साथ साथ दीपकों में बदलाव होते रहे और उनकी रोशनी में भी। लेकिन एक बात अवश्य माननी पड़ेगी कि इस लाईट हाऊस के निर्माण से हज़ारों नौकाओं की तथा नाविकों की यात्रा-समस्या हल हो गयी।

आइए, इस ऊँचें लाईट हाऊस पर जाकर एक बार सारे मिनिकॉय को जी भरकर देखते हैं; क्योंकि हमारी वापसी नौका का भोंपू बस अब थोड़ी देर में बजने ही वाला है।

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