दिल्ली भाग-९

खिलौने, हर मानव के बचपन का एक अविभाज्य अंग। हर एक मनुष्य के बचपन का एक कोना तरह तरह के खिलौनों की यादों से भरा रहता है। उसमें भी लड़कों और लड़कियों के खिलौने अलग अलग रहते हैं और लड़कियाँ फिर चाहे वे किसी भी देश की, कोई भी भाषा बोलनेवाली हों; लेकिन उनके पास एकाद गुड़िया तो रहती ही है। तो ऐसी यह गुड़िया क्या किसी म्युज़ियम का विषय बन सकती है? गत लेख में हम इन गुड़ियों के विषय तक आकर रुक गये थे। तो चलिए, आज इन गुड़ियों को ही पहले देखते हैं।

दिल्ली के ‘इंटरनॅशनल डॉल्स म्युज़ियम’ में देशविदेशों की गुड़ियों की एक अनोखी ही दुनिया साकार की गयी है। बीसवीं सदी के मशहूर व्यंगचित्रकार (कार्टूनिस्ट) के. शंकर पिल्लैजी इस म्युज़ियम के जनक माने जाते हैं। इसलिए उन्हीं के नाम से यानि ‘शंकर्स इंटरनॅशनल डॉल्स म्युज़ियम’ इस नाम से यह म्युज़ियम जाना जाता है।

उन्होंने ‘चिल्ड्रन्स बुक ट्रस्ट’ की स्थापना की, जिसका कार्य बालसाहित्य के साथ जुड़ा हुआ है। उन्हें एक बार विदेश से भेंट स्वरूप एक गुड़िया मिली थी और उसी से देशविदेश की गुड़ियों का संग्रह करने की कल्पना उनके मन में उदित हुई, जिस पर उन्होंने अमल भी किया और उसी के फल स्वरूप यह म्युज़ियम साकार हुआ।

उद्घाटन के समय यहाँ पर केवल ५०० विभिन्न प्रकार की गुड़ियाएँ थीं। समय के साथ साथ उनकी संख्या भी बढ़ती गयी और आज इस म्युज़ियम में लगभग छह हज़ार पाच सौ के आसपास गुड़ियाएँ हैं और इनमें ८५ विभिन्न देशों की गुड़ियाएँ शामिल हैं।

यहाँ की हर गुड़िया निराली है। उसका रंग-रूप-पहनावा सब कुछ अलग है और उससे यह ज्ञात होता है कि वह गुड़िया किस देश या प्रदेश से आयी है। संक्षेप में, प्रत्येक देश-प्रदेश की विविधता और विशेषता इन गुड़ियों के माध्यम से साकार होती है।

अब इस जानकारी को प्राप्त करने के बाद आइए, चलते हैं इन गुड़ियों की दुनिया में। यहाँ पर मिट्टी, कपड़ा, चमड़ा (लेदर), घास और लकड़ी इन विभिन्न मटेरियल्स से बनी गुड़ियाएँ हैं। इनमें से एक विभाग में आशियाई देशों की गुड़ियाएँ रखी गयी हैं; वहीं दूसरे विभाग में युरोप, अमरीका आदि देशों की गुड़ियाएँ रखी गयी हैं। भारतीय पहनावे में १५० गुड़ियों के साथ हमारी मुलाक़ात होती है।

जापानी बच्चों के उत्सव के समय की गुड़ियाएँ, रानी के संग्रह की गुड़ियों की प्रतिकृतियाँ, हंगेरी की नर्तक गुड़ियाएँ, जपानी काबुकी और समुराई गुड़ियाएँ और थायलँड, श्रीलंका, स्पेन की गुड़ियाएँ ये सब यहाँ की ख़ास गुड़ियाएँ हैं। यहाँ की सबसे पुरानी गुड़िया लगभग २५० वर्ष पुरानी है, ऐसा कहा जाता है।

दर असल ये गुड़ियाएँ भले ही बेजान क्यों न हों, लेकिन वे दुनिया भर के विभिन्न प्रदेशों की कला, संस्कृति, रहनसहन को हमारे सामने जीवित करती हैं।

ख़ास बात यह है कि यहाँ, बीमार गुड़ियों के लिए एक दवाख़ाना भी है, जहाँ पर पुरानी गुड़ियों के रंग, रूप, चेहरा आदि को ठीक किया जाता है। देखिए, बातें करते करते हमने म्युज़ियम देख भी लिया। है ना! तो आइए, अब गुड़ियों की दुनिया में से बाहर निकलकर दिल्ली की अन्य कुछ महत्त्वपूर्ण वास्तुओं को देखते हैं।

१५ अगस्त और २६ जनवरी को कड़क इस्त्री किये हुए युनिफॉर्म को पहनकर ध्वजवन्दन के लिए जब हम स्कूल जाते थे, तब दिल्ली के १५ अगस्त और २६ जनवरी के कार्यक्रम को देखने की बहुत दिलचस्पी रहती थी। हालाँकि स्कूल में सुबह जाने के कारण उस कार्यक्रम को देख तो नहीं सकते थे, लेकिन शाम को जब उसे पुन: प्रसारित किया जाता था तब उसे हम अवश्य देखते थे। अनुशासनपूर्ण एवं दर्शनीय रहनेवाला वह संचलन आज भी मन को मोह लेता है। आपमें से अधिकतर लोगों ने भी उस कार्यक्रम को देखा होगा। आज हम उसी तरह के एक अनोखे से कार्यक्रम की जानकारी प्राप्त करते हैं, जिसका संबंध २६ जनवरी के साथ यानि गणतन्त्र दिवस के साथ है।

अब पहेलियाँ न बुझाते हुए मुद्दे की बात करते हैं। हर २६ जनवरी को दिल्ली के राजपथ पर परेड होती है और उसके तीन दिन बाद यानि २९ जनवरी को इस परेड का समापन होता है। यह समापन जिस विशेष समारोह के साथ होता है, उसे ‘बिटींग द रिट्रीट’ कहते हैं।

इस ‘बिटींग द रिट्रीट’ नामक समारोह के पीछे होनेवाली संकल्पना का उदगम सोलहवीं सदी में इंग्लैंड़ में हुआ, ऐसा कहा जाता है।

वापसी की सूचना देने के लिए ढोल बजाना यह ‘बिट ए रीट्रीट’ का अर्थ है। पुराने ज़माने में क़िले के आसपास तैनात की गयी सेना को उसके शिबिर में वापस लौटने की सूचना देना, इसे ‘बिटींग द रिट्रीट’ कहा जाता था।

२९ जनवरी की शाम को इस समारोह का आयोजन किया जाता है। भारतीय फ़ौज के तीनों दल यानि आर्मी, नेव्ही और एअरफोर्स इस समारोह में उपस्थित रहते हैं।

फ़ौजी बँड द्वारा बजायी जानेवाली विशिष्ट धुनों के साथ फ़ौज के तीनों दल ‘मार्च’ करते हैं और यहीं से इस कार्यक्रम की शुरुआत होती है। उसके बाद यह कार्यक्रम और दिलचस्प होता जाता है। फिर विशिष्ट लय में फिर एक बार मार्चिंग होता है। इस कार्यक्रम की ख़ासियत यह है कि फ़ौजी बँड द्वारा बजायी जानेवाली कई धुनें यहाँ हम सुन सकते हैं।

इस जोश भरे माहौल में, अन्त में बिगुल बजाया जाता है और इस बिगुल का बजना यही रिट्रीट की सूचना होती है। अन्त में इस कार्यक्रम के प्रमुख सम्माननीय अतिथि रहनेवाले प्रधानमन्त्रीजी से अनुज्ञा लेकर उनसे इस कार्यक्रम का समापन हो रहा है यह निवेदित किया जाता है।

इस तरह फ़ौजी अनुशासन में योजनबद्ध रूप से इस कार्यक्रम का समापन होता है और उसके बाद चंद कुछ मिनटों में ही पार्लियामेंट हाऊस का कुछ हिस्सा दियों के साथ जगमगाने लगता है।

तो इस तरह होता है, यह ‘बिटींग द रिट्रीट’ का अनोखा समारोह।

दिल्ली की जलवायु को देखकर शायद किसी के मन में यह प्रश्‍न उठ सकता है की दिल्लीवासियों की प्यास कैसे बुझती होगी? क्योंकी यहाँ पर बरसात का औसत कम ही है। अब पुराने समय में दिल्ली वासियों को जल की आपूर्ति कैसे होती होगी, इसका जवाब दो तरह मिलता है। एक तो है दिल्ली के पास से कई सदियों से बहनेवाली यमुना नदी और दुसरी है दिल्ली में मिला हुआ एक ख़ास कुआँ। ये दोनों पुराने ज़माने में दिल्लीवासियों की प्यास बुझाते होंगे।

यह ख़ास कुआँ जाना जाता है, ‘अग्रसेन की बावली’ इस नाम से। बावली का अर्थ है कुआँ। समय की धारा में उपेक्षित हो चुका यह कुआँ है, एक ‘स्टेप वेल’। ‘स्टेप वेल’ यानि ऐसा कुआँ जिस कुए में पानी तक जाने के लिए सिढ़ीयाँ बनायी हुई होती है और ऐसे कुए अलंकृत रहते हैं॥

‘अग्रसेन की बावली’ भी बिल्कुल ऐसी ही है। कुछ लोगों की राय में इसका नाम ‘उग्रसेन की बावली’ है।

इस कुए की लंबाई ६० मीटर्स, चौड़ाई १५ मीटर्स है और इसमें कुल १०३ सीढियाँ हैं। इनमें से कुछ सीढियाँ हमेशा ही जल में डूबी हुई रहती हैं। कुए में कुल तीन स्तर दिखायी देते हैं और हर स्तर में ख़ास अलंकृत रचनाएँ भी दिखायी देती हैं।

राजस्थान, गुजरात इत प्रान्तों में स्टेप वेल्स अधिकतर दिखायी देती हैं। शायद पुराने ज़माने में दिल्ली में इस तरह की कुछ और भी स्टेप वेल्स बनायी गयी होंगी।

इस ‘अग्रसेन की बावली’के बारे में किसी भी प्रकार के ऐतिहासिक दस्तावेज़ नहीं मिलतें और इसी वजह से इसके निर्माण के बारे में निश्‍चितरूप से कुछ कहा नहीं जा सकता। लेकिन कहा जाता है कि इसका निर्माण महाभारत काल में हुआ था और चौदहवीं सदी में किसी ने इसका पुनर्निर्माण किया।

अब मुग़लकालीन दो वास्तुओं की ओर रुख करते हैं।

इनमें से पहली वास्तु है, ‘हुमायूँ की क़ब्र’, जिसे युनेस्को द्वारा १९९३ में ‘वर्ल्ड हेरिटेज साइट’ का दर्जा दिया गया।

हुमायूँ की मृत्यु के बाद इसका निर्माण किया गया। सोलहवीं सदी के उत्तरार्ध में इसका निर्माणकार्य शुरु हुआ और लगभग सात साल बाद वह पूरा हो गया।

इस अहातें में हुमायूँ की याद के साथ साथ उसके बाद के कुछ लोगों की यादों को भी जतन किया गया है। लाल और सफ़ेद रंग के पत्थरों से इसका निर्माण किया गया है। इसकी विशेषता यह है कि इसके चारों ओर एक बाग़ बनायी गयी है, जिसे ‘चार बाग़’ कहा जाता है।

सतरहवीं सदी में बनायी गयी ‘जामा मस्जिद’ यह इस्लामधर्मियों का प्रार्थनास्थल, यह मुग़लकालीन दुसरी वास्तु है।

इन दोनों वास्तुओं के निर्माण में मुग़लकालीन शिल्पशैली दिखायी देती है।

आज तो दिल्ली दूर दूर तक फ़ैल चुकी है। लेकिन पुराने समय में यहाँ पर बनाये गये कुछ क़िले आज भी दिखायी देते हैं।

आदिलाबाद नाम का क़िला, सलीमगढ क़िला, तुघलकाबाद क़िला, पुराना क़िला और सिरी फोर्ट, ये दिल्ली की सरज़मीन पर बनाये गये कुछ क़िले हैं। हालाँकि इनमें से अधिकतर आज अच्छी स्थिती में नहीं हैं, लेकिन हर क़िले की अपनी एक विशेषता है और अपने ज़माने में इन क़िलों ने इस भूमि की रक्षा करने के साथ साथ यहाँ के जनमानस पर भी राज किया है।

सलीमगढ फोर्ट अँग्रेज़ों द्वारा स्वतन्त्रता सेनानियों पर ढाये गये अनगिनत ज़ुल्मों का गवाह है और इसीलिए वह आज स्वतन्त्रता सेनानियों का स्मारक बना है। वहीं पुराने क़िले में आज हम इन्द्रप्रस्थ से लेकर दिल्ली तक के सफ़र को ध्वनि-प्रकाश (साऊंड अँड लाइट) के माध्यम से देख सकते हैं।

दिल्ली के इस हज़ारों वर्षो के सफ़र में इस भूमि पर कई वास्तुओं का निर्माण किया गया। उनमें से कुछ समय की धारा में बह गयीं, वहीं कुछ नये रूप में बनायी गयीं। लेकिन इस सफ़र के दौरान दिल्ली के पास से बहनेवाली यमुना मूक रूप में दिल्ली का साथ देती रही। दिल्ली और यमुना ने कई सूर्योदय और सूर्यास्त एक साथ मिलकर देखे हैं। देखिए, अभी सूर्यास्त ही हो रहा है। तो आइए, इस डूबते हुए सूर्य के साथ हम भी दिल्ली से अलविदा कहते हैं।

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