हंपी भाग – १

राजदरबार भरा हुआ है। सभी अपना अपना आसन ग्रहण कर चुके हैं। दरबार में इतनी शान्ति है कि मानो यदि पेड़ से पत्ता भी गिरे, तो उसकी भी आवा़ज सुनायी दे। इतने में….महाराज के आगमन की ख़बर पहुँच जाती है और लोगों की ऩजरें उनके आने का इन्त़जार कर रही हैं। हंपी के लिए ऐसी घटना कोई नयी नहीं है। क्योंकि गत कई सदियों से हंपी ने ऐसी ललकारियाँ लगभग रो़ज ही सुनी हैं।

आज का हंपी किसी राज्य की राजधानी नहीं है या कोई बड़ा शहर भी नहीं है; लेकिन इस हंपी ने एक वैभवशाली साम्राज्य की धरोहर को जतन किया है। लेकिन यह हंपी कभी एक समृद्ध और बहुत ही सुन्दर शहर था और वैभवशाली विजयनगर साम्राज्य की राजधानी भी था।

हंपीआज दुनिया के नक्षे पर हंपी जाना जाता है, युनेस्को द्वारा वहाँ की वास्तुओं को दिये गये ‘वर्ल्ड हेरिटेज’ इस दर्जे के कारण। हंपी में स्थित वास्तुओं को दिया गया वर्ल्ड हेरिटेज का दर्जा इस बात की पुष्टि करता है कि यहाँ की वास्तुएँ बहुत ही सुन्दर और विशिष्ट प्रकार की शिल्पकला की पहचान हैं। लेकिन हंपी यह केवल एक इतिहास नहीं है, इतिहास के साथ साथ यह है सुन्दर वास्तुओं का शहर और श्रद्धालु भाविकों का नगर।

कर्नाटक के बेल्लारी जिले में बसे हुए ‘हंपी’ के पास ही तुंगभद्रा नदी है।

हंपी की खोज में निकलने के बाद इस बात का पता चला कि इसका अस्तित्व रामायण के काल में भी था। लेकिन विजयनगर के साम्राज्य के काल में हंपी मानो वैभव के शिखर पर था। विजयनगर यह एक वैभवशाली तथा शक्तिशाली साम्राज्य था और इसकी राजधानी थी, हंपी।

अब जरा अतीत में झाँककर हंपी के विकास और विस्तार के पड़ावों को देखते हैं।

रामायणकाल में भारत के इस दक्षिणी प्रदेश में वानरों के राज्य थे। रामायण में वर्णित ‘किष्किंधा नगरी’ हंपी के पास ही थी। उसी प्रकार वानरों के राज्य में मशहूर रहनेवाला ‘पंपा सरोवर’ भी हंपी के पास ही था। उस समय किष्किंधा नगरी पर वाली का राज्य था और उसने ग़लत़फहमी के कारण सुग्रीव को राज्य से निकाल बाहर कर दिया था; इससे यह ज्ञात होता है कि हंपी उस समय वानर राज्य का हिस्सा रहा होगा।

ऐसा मत है कि ‘हंपी’ यह शब्द ‘पंपा’ इस कन्नड शब्द का अपभ्रंश है। दूसरी बात यह है कि इस हंपी में होनेवाले ‘विरूपाक्ष’ नामक प्रमुख देवता को ‘पंपापति’ नाम से जाना जाता है। संक्षेप में, हंपी और पंपा इनका आपस में अटूट रिश्ता है।

रामायणकाल में अस्तित्व में होनेवाली इस नगरी का आगे चलकर कई सदियों तक अर्थात् एक बहुत बड़े अरसे तक इतिहास में कहीं पर भी जिक्र किया गया नहीं दिखायी देता। इससे दो बातों का अंदा़जा लगाया जा सकता है – या तो रामायण के बाद यहाँ पर लोगों का बसेरा नहीं रहा होगा या फिर यहाँ पर लोगों का बसेरा होने के बावजूद भी इतिहास के पन्नों में शायद इस स्थान का जिक्र नहीं किया गया होगा।

रामायण के बाद आगे चलकर हंपी से फिर हमारी मुलाक़ात होती है, विजयनगर साम्राज्य की राजधानी के रूप में। ‘विजयनगर’ यह एक अत्यन्त वैभवशाली तथा विस्तृत साम्राज्य था, जिसके राजा उनके पराक्रम के लिए जाने जाते थे। ‘हंपी’ इस विजयनगर साम्राज्य के केन्द्र में था। इसी कारण हंपी और उसके आसपास आज भी विजयनगर के कई वैभवशाली चिह्नों का अस्तित्व है।

‘विजयनगर साम्राज्य’ यह स्कूली इतिहास का एक अविभाज्य हिस्सा था। इसी कारण कई लोगों ने उसे जरूर पढ़ा होगा। लेकिन हंपी के बारे में जानकारी लेते समय हम इस साम्राज्य को ऩजरअन्दाज नहीं कर सकते। हमें उसका विस्तृत इतिहास देखना होगा।

विजयनगर साम्राज्य का इतिहास तक़रीबन तीन सौ साल का है। लेकिन हम उसमें से कुछ गिनेचुने महत्त्वपूर्ण इतिहास में झाँकते हैं।

इसवी १३०० के आसपास लगभग समूचे उत्तरी भारत पर मुग़लों का कब़्जा हो चुका था। लेकिन दक्षिणी भारत में कुछ गिनेचुने राज्यों में यानि कि वरंगल, मदुराई, द्वारसमुद्र, देवगिरी यहाँ पर स्वकीयों की सत्ता थी, लेकिन वे आपस में लड़ते थे। ऐसे में चौदहवी सदी की शुरुवात में ही मुग़लों ने ऊपर वर्णित चारों राज्यों पर अपना कब़्जा जमा लिया।

उसी दौरान दक्षिण में ‘कांपिली’ नाम का एक स्वतन्त्र राज्य था। मुग़लों ने उसपर भी अपना कब़्जा जमा लिया। इस राज्य के ‘हरिहर’ और ‘बुक्क’ नाम के दो सरदार थे। मुग़लों ने जीते हुए कांपिली की शासनव्यवस्था सँभालने के लिए इन दोनों को नियुक्त किया।

‘विद्यारण्यस्वामी’ इन हरिहर और बुक्क के गुरु थे। इन दोनों ने कांपिली पर ही अपना शासन प्रस्थापित किया और हरिहर उस राज्य का राजा बन गया। इस प्रकार विजयनगर साम्राज्य की नींव रखी गयी। मानो एक विशाल वृक्ष के अंकुर का जन्म हुआ। इन दोनों ने फिर अपने गुरु विद्यारण्यस्वामी के प्रति होनेवाले सम्मान के रूप में अपने राज्य का नाम ‘विद्यानगर’ रखा, जो आगे चलकर ‘विजयनगर’ बन गया। आज विद्यमान हंपी इसी विशाल विजयनगर का हिस्सा थी।

इस विजयनगर साम्राज्य में कुल चार राजवंशों ने शासन किया। ये चार राजवंश हैं – संगम, साळुव, तुळुव और आरविडु।

हरिहर और बुक्क इनमें से हरिहर सर्वप्रथम शासक बन गये। अर्थात् उन्हें ही विजयनगर साम्राज्य के पहले राजा कह सकते हैं। उनके पिता का नाम ‘संगम’ होने के कारण उनके वंश को ‘संगम राजवंश’ कहा जाता है। इस प्रकार इसवी १३३६ में स्थापित विजयनगर साम्राज्य के प्रथम शासक बने संगमवंशीय राजा। इसवी १३३६ से लेकर १५ वी सदी के उत्तरार्ध तक इन्होंने विजयनगर पर शासन किया।

कुशल प्रशासक रहनेवाले हरिहर ने अपने मन्त्रियों की सहायता से अपने राज्य की नींव म़जबूत की।

हरिहर के बाद, उसके साथ इस राज्य की स्थापना करनेवाले बुक्क ने यहाँ का शासन सँभाला। यह भी एक कुशल प्रशासक और पराक्रमी था; साथ ही उसने वैदिक धर्म को पुनरुज्जीवित करने के प्रयास किये। उसने इसी दौरान वेद और ब्राह्मण ग्रन्थों पर भाष्य लिखवाए।

हरिहर और बुक्क के पश्चात् उनके कई वंशजों ने विजयनगर की राजगद्दी को सँभाला। हालाँकि उन्हें विदेशियों से लड़ना तो पड़ा, मग़र फिर भी उन्होंने अपने राज्य का भौगोलिक दृष्टि से विस्तार किया। साथ ही ये राजा ज्ञान और कला के उपासक तथा आश्रयदाता थे, क्योंकि हंपी और उसके आसपास विद्यमान कई वास्तुओं का निर्माण इन्होंने ही करवाया। इससे यह बात समझ में आती है कि ये राजा केवल कुशल प्रशासक ही नहीं थे, बल्कि सुन्दरता और कला के प्रेमी थे।

हरिहर से शुरू हुआ यह संगम राजवंश ‘विरूपाक्ष’ नामक राजा के पुत्र की मृत्यु के पश्चात् समाप्त हो गया।

राज्य-पद, सत्ता इन बातों के साथ ही कई बार कपट कारस्तान एक अविभाज्य हिस्से के रूप में आते हैं।  विरूपाक्ष के बेटे से साळुव नरसिंह नामक व्यक्तिने यहाँ की सत्ता को हथिया लियाऔर उसके बाद विजयनगर पर साळुव राजवंश की सत्ता स्थापित हो गयी। लेकिन इस साळुव राजवंश की सत्ता केवल अकेले ‘साळुव नरसिंह’ इसी एक राजा तक सीमित रही। क्योंकि साळुव नरसिंह की मृत्यु के समय उसके दोनों बेटों के नाबालिग़ रहने के कारण उसने उसके बेटों और राज्य की देखभाल करने के लिए ‘नरसा नायक’ को नियुक्त किया।

यह नरसा नायक ही तुळुव राजवंश के पहले राजा थे। उसने कई विदेशियों और अन्तर्गत विरोधकों का भी बन्दोबस्त किया। दरअसल उसने साळुव नरसिंह के पुत्र को बालिग़ होते ही राजगद्दी पर बिठाया; लेकिन कई स्थित्यन्तरों के बाद अन्त में वही विजयनगर पर शासन करने लगा।

नरसा नायक के बाद विजयनगर की राजगद्दी सँभालनेवालों में से सबसे पराक्रमी राजा माने जाते हैं, सम्राट कृष्णदेवराय। विजयनगर के राजाओं ने ‘सम्राट’ इस उपाधि का स्वीकार किया था, इससे यह पता चलता है कि उनका राज्य बहुत दूर दूर तक फैला हुआ होगा।

कृष्णदेवराय के पश्चात् भी कई शासक हुए, उनमें से अन्तिम राजा थे, ‘रामराय’। इन राजा के बाद तुळुव राजवंश की सत्ता समाप्त हो गयी, ऐसा ऐतिहासिक दस्तावे़जों से ज्ञात होता है।

तुळुव राजवंश के बाद ‘आरविडू राजवंश’ ने विजयनगर की राजगद्दी सँभाली। इस राजवंश के पहले शासक थे ‘रामराय’, कृष्णदेवराय के मन्त्री का पुत्र था। इसके बाद आरविडू राजवंश के कई शासकों ने राजगद्दी सँभाली। लेकिन विदेशी आक्रमकों में अब केवल मुग़ल ही नहीं थे, बल्कि पुर्तगालियों ने भी राज्य की लालसा से भारत के अन्तर्गत प्रदेशों में प्रवेश करना शुरू किया था। तब विजयनगर का साम्राज्य विदेशियों का आक्रमण और गृहयुद्ध ऐसे दो प्रकार के शत्रुओं का सामना कर रहा था। इसी अ़फरात़फरी में अन्ततः १६वी सदी से इस वैभवशाली साम्राज्य के अन्त की शुरुआत हो गयी।

विजयनगर के साम्राज्य का तो अन्त हो गया, लेकिन उसकी सुन्दरता और इतिहास आज भी हंपी के रूप में जीवित है। उसके इस ख़जाने की चाभी तो हमें मिल ही चुकी है, देर है तो स़िर्फ दरवा़जा खोलकर अन्दर जाने की।

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