म्हैसूर भाग-२

मुम्मडी कृष्णराज वोडेयर राजा के शासनकाल मे अंग्रे़जों ने म्हैसूर पर कब़्जा कर लिया। अंग्रे़जों से अपने राज्य को पुनः हासिल करने के लिए मुम्मडी कृष्णराज ने कईं कोशिशें कीं, लेकिन वे नाक़ाम रहीं। आखिर डॉ. कँपबेल और बक्षी नरसप्पा ने इसवी १८६७ में मुम्मडी कृष्णराज को उसका म्हैसूर राज्य पुनः दिलवाया, लेकिन अब वह मात्र एक नामधारी राजा के तौर पर काम कर सकता था। नामधारी राज्यपद प्राप्त हो जाने के बाद इस राजा ने लगभग एक साल तक शासन किया और फिर उसकी मृत्यु हो गयी।

Mysore_Palace_Front_view- म्हैसूर

मुम्मडी कृष्णराज के बाद उसके गोद लिये बेटे ने गद्दी सँभाली। इस ‘चामराजेन्द्र वोडेयर’ राजा को हालाँकि कृष्णराज के वारिस के तौर पर अंग्रे़जों ने मंज़ूरी तो दे दी थी; मग़र फिर भी वह एक नामधारी राजा ही था। इस चामराजेन्द्र राजा ने प्रजाहित के कईं काम किये।

२० वी सदी में कृष्णराज वोडेयर (४थे) ने राजगद्दी सँभाली। लेकिन उस समय वे नाबालिग़ थे, इसीलिए उनकी माँ ने लगभग आठ साल तक शासनव्यवस्था को सँभाला। उसके बाद कृष्णराज के पास म्हैसूर की सत्ता थी और उन्होंने भी प्रजाहित के कईं काम किये।

जब भारत आ़जाद हो गया, उस समय म्हैसूर पर ‘जयचामराज वोडेयर’ का शासन था। जयचामराज ये कृष्णराज वोडेयर (४थे) के भतीजे थे। इनके शासनकाल में म्हैसूर का काफी हद तक विकास हुआ।

भारत के आ़जाद हो जाने के बाद सभी राज्यों तथा संस्थानों को आ़जाद भारत में शामिल किया गया। उस समय म्हैसूर को स्वतन्त्र राज्य का दर्जा दिया गया। उस समय म्हैसूर की राजगद्दी सँभालनेवाले जयचामराज वोडेयर को म्हैसूर के राजप्रमुखपद पर नियुक्त किया गया। इसवी. १९७३ में ‘कर्नाटक’ राज्य की स्थापना होने के बाद म्हैसूर का समावेश कर्नाटक राज्य में किया गया। इस तरह एक छोटे से गाँव से लेकर विकसित होता गया म्हैसूर शहर आज कर्नाटक राज्य के एक महत्त्वपूर्ण शहर के रूप में मशहूर है।

म्हैसूर यह कर्नाटक राज्य की ‘सांस्कृतिक राजधानी’ के रूप में तो पहचाना जाता ही है, साथ ही ‘राजमहलों (पॅलेसेस) का शहर’ यह भी उसकी एक पहचान है।

म्हैसूर के वोडेयर राजवंश के विभिन्न राजाओं ने उनके शासनकाल में निवास के उद्देश्य से कईं राजमहलों का निर्माण किया। उनमें से लगभग सभी राजमहल आज भी सुस्थिति में हैं। ये राजमहल म्हैसूर के अतीत के गवाह तो हैं ही, साथ ही म्हैसूर रियासत की आर्थिक सम्पन्नता और राजकीय स्थिरता के भी गवाह हैं।

रात के आसमान की पार्श्वभूमि पर लाखों जलते दियों से प्रकाशित होनेवाला ‘म्हैसूर का राजमहल’! म्हैसूर में कईं महल हैं। उनमें से ‘अंब विलास’ नाम का महल ‘म्हैसूर के राजमहल-पॅलेस ऑफ म्हैसूर’ के रूप में जाना जाता है।

यह राजमहल म्हैसूर के राजवंश का निवासस्थान था। ‘श्रीमन्महाराज वंशावलि’ में इस प्रकार उल्लेख प्राप्त होता है कि १४वी सदी में म्हैसूर के राजाओं का निवास एक राजमहल में था। इससे यह सिद्ध होता है कि इस राजमहल का इतिहास १४वी सदी से शुरू होता है। १७वी सदी में बिजली के गिर जाने से इस राजमहल का काफी नुकसान हुआ और ‘रणधीर कंठीरव वोडेयर’ राजा ने इसका पुनर्निर्माण किया। पुराने राजमहल में कईं कक्ष होने का उल्लेख मिलता है। लेकिन उसके बाद इसके देखभाल की ओर विशेष ध्यान न देने की वजह से १८वी सदी के अन्त तक इस राजमहल की स्थिति बहुत ही ख़राब हो गयी। इसीलिए १९वी सदी के प्रारम्भ में नये राजमहल का निर्माण किया गया। लेकिन यह राजमहल भी इसवी १८९७ में ‘राजकुमारी जयलक्षमण्णी’ के विवाह के समय लगी हुई आग के कारण क्षतिग्रस्त हो गया। उस समय म्हैसूर की शासनव्यवस्था सँभालनेवाली ‘महारानी केंपनंजमण्णी’ ने उसी जगह पर नये राजमहल का निर्माण करने की योजना बनायी। ‘हेन्री आयर्विन’ नामक अंग्रे़ज वास्तुविशारद ने इस राजमहल की रचना की है। इस राजमहल का निर्माणकार्य इसवी १९१२ में पूरा हो गया और इस राजमहल के निर्माण के लिए उस समय तक़रीबन ४२ लाख रुपैये खर्च हो गये, ऐसा उल्लेख प्राप्त होता है।

इस तरह इसवी. १९१२ में बना यह ‘अंब विलास’ नामक राजमहल आज ‘पॅलेस ऑफ म्हैसूर’ इस नाम से जाना जाता है। इस राजमहल की रचना तथा निर्माण की विशेषता यह है कि इसकी रचना एवं निर्माण में कईं शिल्पशैलियों का एकत्रीकरण किया गया है। अत एव यह राजमहल कईं स्थापत्यशैलियों का एक बेहतरीन नमुना माना जाता है।

राजमहल की प्रमुख इमारत तीन मंजिला है और इसके निर्माण में ग्रॅनाईट का इस्तेमाल किया गया है। इस राजमहल में लगभग पाँच मंजिल की ऊँचाई के मीनार हैं। इस राजमहल के निर्माण में महोगनी की लकड़ी, चाँदी और काँच आदि का बहुत ही कुशलतापूर्वक इस्तेमाल किया गया है।

इस राजमहल के इर्द-गिर्द बड़ा बग़ीचा तथा लगभग बारह मन्दिर हैं। इन मन्दिरों का निर्माण १४वी सदी से लेकर २०वी सदी तक किया गया।

इस राजमहल का ‘अंब विलास’ यह विभाग राजा के साथ कुछ ख़ास तथा प्रमुख चुनीन्दा लोगों की मुलाक़ात के स्थल के रूप में बनाया गया था।

राजमहल में हम प्रवेश करते हैं, ‘गोम्बे थोट्टी’ में से। गोम्बे थोट्टी यह कईं प्रकार की गुड़ियों का संग्रहालय है। इसमें १९वी सदी से बनीं विभिन्न प्रकार की गुड़ियाँ रखी गयी हैं।

राजमहल का एक और प्रमुख विभाग है, ‘कल्याण-मंडप’, जहाँ पर राजाओं के विवाहसमारोह सम्पन्न होते थे। इसके अलावा राजाओं का शस्त्रागार, प्रजा से मिलने के लिए राजा का दरबार ऐसे कईं विभाग यहाँ पर हैं।

इस राजमहल में आग के ख़तरे को ध्यान में रखकर अग्निशामक यन्त्रणा की व्यवस्था की गयी है।

म्हैसूर शहर का दशहरा बहुत ही ख़ास माना जाता है। इस दशहरे के उत्सव का केन्द्रस्थान होता है, म्हैसूर का राजमहल। दशहरे के दिन राजमहल से निकलनेवाली शोभायात्रा का आयोजन पुराने समय से किया जाता है और आज भी इस पद्धति का अनुसरण उतने ही हर्ष और उल्हास के साथ किया जाता है। दशहरे के उत्सव के दौरान म्हैसूर के राजाओं के २०० किलो स्वर्ण (सोने) के सिंहासन को हम देख सकते हैं। इस दशहरे के उत्सव की शोभायात्रा के विभिन्न प्रसंगों को राजमहल की दीवारों पर रेखांकित किया गया है।

कुछ विशिष्ट दिन तथा प्रसंगों के समय यह पूरा राजमहल दियों से प्रकाशित हो जाता है। इस दीपोत्सव के लिए लगभग एक लाख दियों (इलेक्ट्रिसिटी से प्रकाशित होनेवाले) का इस्तेमाल किया जाता है। तब दर्शकों को ऐसे लगता है कि मानो ‘जैसे आसमान के तारे जमीन पर उतर आये हैं।’

म्हैसूर के अतीत के गवाह होनेवाले इस राजमहल को रोशनी में नहाते हुए देखना यह एक अविस्मरणीय अनुभव है।

म्हैसूर के महलों में से एक पुराना महल है ‘जगनमोहन पॅलेस’। इसका निर्माण लगभग देढ़ सौ वर्ष पूर्व किया गया, ऐसा माना जाता है।

म्हैसूर के राजा ने बनाया हुआ यह देढ़ सौ वर्ष पुराना ‘जगनमोहन पॅलेस’, म्हैसूर की रियासत की कईं महत्त्वपूर्ण घटनाओं का गवाह है।

जिस समय म्हैसूर का राजमहल आग के कारण क्षतिग्रस्त हो गया था, उस समय नये राजमहल का निर्माण पूरा हो जाने तक राजपरिवार का निवास इसी महल में था। इसवी १९०२ में यहीं पर कृष्णराज वोडेयार (४थे) का राजपदग्रहण समारोह सम्पन्न हुआ।

इस महल में म्हैसूर रियासत की कईं महत्त्वपूर्ण मन्त्रणाएँ होती थीं। साथ ही, महत्त्वपूर्ण कामकाज के लिए भी इस महल को उपयोग में लाया जाता था। कुछ समय पूर्व तक कुछ महत्त्वपूर्ण सभा, अधिवेशन जैसे कार्यक्रमों के लिए भी इसका उपयोग किया जाता था।

इस महल की प्रमुख वास्तु ३ मंज़िला है और आज इसमें एक प्रमुख संग्रहालय है।

राजा-महाराजाओं के समय में कईं महलों का निर्माण किया जाता था। उनमें से कुछ राजा उनकी सन्तानों के लिए भी महल बनवाते थे।

म्हैसूर में इस प्रकार के महल अर्थात् पिता ने बेटी के लिए, राजा ने राजकन्या के लिए बनाये गये महल भी हैं। बहुत बार राजा ने राजकन्या के लिए बनाये गये महलों के बारे में हम कहानियों में ही सुनते या पढ़ते हैं; लेकिन म्हैसूर में इस प्रकार के महलों को हम प्रत्यक्ष देख सकते हैं।

‘जयलक्ष्मी विलास’ यह लगभग सौ वर्ष पूर्व बनाया गया महल महाराज चामराज वोडेयार ने उनकी कन्या ‘जयलक्ष्मी’ के लिए बनाया था। इसका निर्माण जल्द से जल्द पूरा हो, इस उद्देश्य से इसके निर्माण में पथ्थर का इस्तेमाल नहीं किया गया, ऐसी एक राय है।

महाराज कृष्णराज वोडेयार (४थे) ने उनकी ‘चेलुवम्बा’ नामक कन्या के लिए एक महल का निर्माण किया। यह महल उसी राजकुमारी नाम से अर्थात् ‘चेलुवम्बा मॅन्शन’ इस नाम से जाना जाता है।

म्हैसूर के ये और इन जैसे अन्य भी कुछ महल, इस शहर के अतीत को हमारे सामने रखते ही हैं; साथ ही वहाँ के राजाओं के कलाप्रेम और सुन्दरता की दृष्टि से भी हमें परिचित कराते हैं।

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