तिरुअनन्तपुरम् (भाग – २)

Padmanabhaswami-temple-at-Trivandrumअनन्त की इस सदाहरित नगरी में अनन्त का सुन्दर मंदिर है। इस मंदिर का निर्माण क़िले के भीतर किया गया था। यह मंदिर ‘पद्मनाभस्वामी मंदिर’ इस नाम से जाना जाता है। यहॉं विष्णुजी को ‘अनन्तशयन’ या ‘अनन्तपद्मनाभ’ इस नाम से पुकारते हैं।

इस पद्मनाभस्वामी मंदिर का उल्लेख महाभारत में किया गया है। कईं पुराणकथाओं में भी इस क्षेत्र की महिमा का वर्णन करनेवाली कथाएँ हैं।

ऐसा कहा जाता है कि प्राचीन काल में यहॉं अनन्तवन नाम का अरण्य था। उस अरण्य में पुलया नामक आदिवासियों का बसेरा था। इसके करीब ही एक नगर में दिवाकर नाम का एक विष्णुभक्त रहता था। उसकी भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान विष्णुजी ने उसे दर्शन दिया और वे एक छोटे बालक के रूप में अपने भक्त के अर्थात् दिवाकर के घर में रहने लगे। कुछ समय पश्चात् वह बालक अचानक अदृश्य हो गया और उस बालक ने दिवाकर से कहा कि यदि तुम पुनः मेरे दर्शन करना चाहते हो, तो इसके लिए तुम्हे अनन्तवन में आना पड़ेगा। तब तक दिवाकर ने पहचान लिया था कि वह बालक और कोई नहीं, बल्कि साक्षात् भगवान विष्णुजी ही हैं। भगवान विष्णुजी के आदेश के अनुसार दिवाकर फिर से विष्णुजी के दर्शन करने अनन्तवन चला गया। वहॉं एक कनकवृक्ष के नीचे भगवान विष्णु के प्रकट हुए बालरूप को ही पुनः उसने देखा। प्रतिदिन एक पुलया आदिवासी महिला नारियल की कटोरी में उस बालक को चावल की खीर खाने के लिए प्रदान करती थी। भगवान की खोज में दिवाकर के अनन्तवन में उस स्थान पर आते ही उस बालक ने उस कनकवृक्ष की क़ोटर में प्रवेश किया और उस बालक ने भीतर प्रवेश करते ही वह वृक्ष जमीन पर गिर गया। उस गिरे हुए वृक्ष में दिवाकर को भगवान विष्णुजी के शेषशायी स्वरूप का विराट दर्शन हुआ। इस विराट दर्शन के बाद दिवाकर ने विष्णुजी से प्रार्थना की कि आप हर एक मानव आपको देख सके, ऐसे रूप के धारण कीजिए। इस तरह से इस मंदिर की कथा पुराणग्रन्थ में वर्णित है।

विष्णुजी के विराट रूप के नाभिकमल का दर्शन जहॉं हुआ, उस स्थान पर दिवाकर ने मंदिर का निर्माण किया। गिरे हुए कनकवृक्ष के काष्ठ से उस मंदिर की मूर्ति का निर्माण किया गया।

मंदिर एवं मूर्ति इनके जीर्ण हो जाने के कारण इसवी १०४९ में वहॉं एक विशाल मंदिर का निर्माण किया गया, जिसे हम आज देख रहे हैं। इसवी ११६५ के उसी स्थान पर अंकित शिलालेख में यह उल्लेख है। राजा मार्तण्डवर्मा ने उसके कार्यकाल में इस मंदिर का जीर्णोद्धार किया। उसके बाद किसी के द्वारा इस मंदिर का जीर्णोद्धार किया जाने का उल्लेख नहीं है। ‘अनन्तपद्मनाभ’ यह त्रावणकोर राजवंश का कुलदैवत है। मार्तण्डवर्मा राजा ने इसवी १७५० में अपने राज को अनन्तपद्मनाभ के चरणों में अर्पण किया और वे एवं उनके पश्चात् के सभी राजा पद्मनाभ के दास के तौर पर प्रशासन करते रहे।

इस विशाल मंदिर का प्रवेशद्वार पूर्वाभिमुख है। इस मंदिर के गर्भगृह का निर्माण कसौटी के काले पत्थरों के द्वारा किया गया है। गर्भगृह में शेषशायी भगवान विष्णुजी की विशाल मूर्ति है। गंडकी नदी में से लाये गए हजारों शालिग्रामों के द्वारा इस मूर्ति का निर्माण किया गया है और मूर्ति के निर्माणकार्य में कटुशर्करा योग अर्थात् विशेष प्रकार का आयुर्वेदीय औषधियों का मिश्रण प्लास्टर के रूप प्रयुक्त किया गया है। गर्भगृह के तीन द्वार हैं। बायें द्वार से विष्णुजी के मुखकमल के दर्शन होते हैं, बीच के द्वार से उनके शरीर के मध्यभाग के एवं नाभिकमल के दर्शन होते हैं और दाहिने द्वार से उनके चरणों के दर्शन होते हैं। शेषशायी विष्णुजी का दाहिना हाथ शिवलिंग पर है और उनके नाभि से निकलनेवाले कमल में ब्रह्माजी विराजमान हैं।

इस मंदिर के गोपुर सात मंजिला हैं। इस मंदिर से संलग्न ‘नाटकशाला’ नाम का एक विभाग है। यहॉं केरल की विख्यात नृत्यशैली कथकली को उत्सवकाल में प्रस्तुत किया जाता है। इस मंदिर की विशेषता है, वह यहॉं चली आ रही नैवेद्य की प्रथा। जिस तरह वह पुलया महिला नारियल की करोटी में भगवान विष्णु के बालरूप को खाने के लिए खीर प्रदान करती थी, इसी पद्धति का आज भी अनुसरण किया जा रहा है।

इस मंदिर में मनाये जानेवालें उत्सवों में से एक नयनमनोहर उत्सव है, ‘लक्षदीपम्’। हर छः वर्ष बाद होनेवाले इस उत्सव में मंदिर और मंदिर के प्रांगण में तेल के लाखों दीप जलाये जाते हैं। इस उत्सव के पूर्व ५६ दिन तक वेदमन्त्र एवं प्रार्थनाओं का पठण किया जाता है और उत्सव के पर्व पर दीप प्रज्वलित किये जाते हैं।

अपने आपको पद्मनाभ का दास मानकर शासन करनेवाले त्रावणकोर के राजाओं ने तिरुअनन्तपुरम् की जनता को शिक्षित करने के लिए कईं तरह के प्रबन्ध किएँ। उनमें से एक है, केरल विश्‍वविद्यालय (युनिव्हर्सिटी ऑफ केरल)। केरल राज्य की स्थापना से पहले ही, इसवी १९३७ में इस विश्‍वविद्यालय की स्थापना की गयी। केरल का सबसे पहला समाचारपत्र – ‘केरलचन्द्रिका’ इसी शहर में १७८९ में प्रकाशित किया गया। १८३९ में स्वाती तिरुनल नामक त्रावणकोर के राजा ने तिरुअनन्तपुरम् में सरकारी मुद्रणालय (गव्हर्नमेंट प्रेस) की शुरुआत की।

शिक्षा और ज्ञान के क्षेत्र में गतकालीन इतिहास की अहम भूमिका रहती है। मुद्रणकला (प्रिंटिंग) का आविष्कार होने से पूर्व ग्रन्थों का लेखनकार्य हाथ से किया जाता था। ऐसे कईं हस्तलिखितों का संग्रह तिरुअनन्तपुरम् की ‘ओरियंटल रिसर्च इन्स्टिट्यूट एवं मॅन्युस्क्रिप्ट लायब्ररी’ में है। उन्होंने अपने राज्य के सभी हस्तलिखितों को एक स्थान पर सुरक्षित रखना चाहिए, इस उद्देश्य से उन्हें इकठ्ठा करके राजमहल की लायब्ररी में रख दिया। उनमें से कईं हस्तलिखितों को राजा स्वाती तिरुनल ने प्राच्यविद्या अनुसन्धाकर्ताओं के लिए प्रकाशित किया। इस लायब्ररी में लगभग ६५,००० हस्तलिखित हैं। उनमें से लगभग ३०,००० हस्तलिखित तालपत्र पर लिखे गये हैं, कुछ काग़ज पर, तो कुछ ताम्रपट पर लिखे गये हैं। भूर्जपत्र, अगुरुत्वक् (अगुरु नामक पेड़ के तने की छाल) और वस्त्र पर लिखे गये हस्तलिखित भी इस संग्रह में मौजूद हैं। इस संग्रह में केरल के अलावा भारत के अन्य राज्य एवं भारत के बाहरी देशों के हस्तलिखित भी हैं। इनमें से लगभग ८०% हस्तलिखित संस्कृत भाषा के हैं। बंगाली, मराठी, गुजराती, कन्नड, तेलगु, ओरिया, आसामी इन आज प्रचलित रहनेवाली भाषाओं की लिपि के प्रारंभिक छाप भी इस लायब्ररी में उपलब्ध हैं। इस संस्था के नाम के अनुसार यह संस्था इन हस्तलिखितों का मात्र संग्रह नहीं करती, बल्कि अनुसन्धान कार्य भी करती है। हस्तलिखितों का संग्रह एवं संशोधन इस कार्य के लिए यह संस्था केवल भारत में ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया में मशहूर है।

इतिहास और भविष्यकाल इन्हें जोड़ता है, वर्तमानकाल। आज का वर्तमानयुग यह विज्ञान का युग है। आज मानव ने अन्तरिक्ष में छलांग लगाई है और इस अन्तरिक्ष कार्यक्रम में हमारा भारत भी अग्रसर है। तिरुअनन्तपुरम् का ‘विक्रम साराभाई स्पेस सेंटर’ यह इस्रो के मुख्य स्पेस रिसर्च सेंटर्स में से एक है। भारत के अन्तरिक्ष अनुसन्धान कार्यक्रम की नींव रखनेवाले प्रोफेसर विक्रम साराभाई (१९१९-१९७१) का नाम इस सेंटर को दिया गया है। अन्तरिक्ष में उपग्रहों (सॅटेलाईट) का प्रक्षेपण करने के लिए आवश्यक प्रणालि का निर्माण इस सेंटर में किया जाता है। तिरुअनन्तपुरम् के पास का थुंबा यह गॉंव भी स्पेस रिसर्च के साथ जुड़ा होने के कारण उसका उल्लेख करना आवश्यक है। भारत के दक्षिणी छोर पर स्थित थुंबा नाम का गॉंव पृथ्वी की चुम्बकीय भूमध्यरेखा से काफ़ी करीब रहने के कारण यहॉं से साऊंडिंग रॉकेट्स का प्रक्षेपण किया जाता है। इसवी १९६२ में ‘थुंबा इक्वेटोरियल रॉकेट लॉंचिंग स्टेशन’ की स्थापना की गयी।

हर एक शहर का इतिहास कथन करनेवाला एक म्युझियम उस शहर में होता ही है। तिरुअनन्तपुरम् में इसवी १८५५ में ‘नेपियर म्युझियम’ की नींव रखी गयी और इसवी १८७४ में पुराने म्युझियम के स्थान पर नये म्युझियम का निर्माण किया गया।

लॉर्ड नेपियर इस मद्रास (आज का चेन्नई) गव्हर्नर का नाम नये म्युझियम को दिया गया है। इसवी १८८० में इस म्युझियम का निर्माणकार्य पूरा हुआ। म्युझियम में इतिहास के खजाने को जतन किया गया है। भारतीय चित्रकला में राजा रविवर्मा का नाम मशहूर है। राजा रविवर्मा के चित्रों का संग्रह म्युझियम की आर्ट गॅलरी में किया गया है। म्युझियम के प्रांगण में भारत का सबसे पुराना प्राणिसंग्रहालय है। और इस प्राणिसंग्रहालय की स्थापना इसवी १८५७ में की गयी। यह प्राणिसंग्रहालय करीबन ५५ एकड़ के अहाते में फैला हुआ है।

केरल राज्य को प्रकृति का वरदान प्राप्त हुआ है। तिरुअनन्तपुरम् शहर भी इस बात को अपवाद नहीं है। लहरें उठनेवाला समुद्र और रेत का किनारा इस शहर का साथ दे ही रहा है।

प्रकृति की सुन्दरता के साथ-साथ इतिहास की रक्षा और उज्ज्वल भविष्य के निर्माण के लिए ज्ञान ओर विज्ञान का हाथ थामा हुआ वर्तमान, ये बातें इस शहर की सुन्दरता में वृद्धि कर रही हैं।

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