कोणार्क भाग – ३

कोणार्क के इस विशाल सूर्यमंदिर का निर्माणकार्य जब पूरा हो चुका होगा, तब उसे देखकर यहाँ की मिट्टी का दिल भी भर आया होगा। इस मंदिर के निर्माण में कुल बारह वर्ष का समय व्यतीत हुआ।

इस मंदिर में सूर्यभगवान की मूर्ति की प्रतिष्ठापना भी की गयी थी और उसकी पूजा भी की जाती थी। वाचस्पतिमिश्र के ‘तीर्थचिंतामणि’ नामक ग्रंथ से तथा जगन्नाथपुरी के बखर वृत्तांत से यह ज्ञात होता है। वाचस्पतिमिश्र ने उनके ग्रंथ में पूजनपद्धति का भी वर्णन किया हुआ है।

इससे हम यह समझ सकते हैं कि पुराने ज़माने में यहाँ पर सूर्य के उपासक तथा पूजा-अर्चना करनेवाले भक्तों का ताँता लगता होगा। फिर आगे चलकर समय की धारा में यहाँ की जलवायु में कुछ परिवर्तन होते रहे होंगे। कोणार्क के शासक भी बदलते रहे होंगे और उनके आराध्य भी अलग होंगे। समय के साथ साथ लोगों के आचार-विचारों में भी परिवर्तन आते ही हैं। इन सब बातों का असर वास्तुओं, शिल्पों तथा मंदिरों पर होता ही है।

सूर्यमंदिर का निर्माणकार्य

….और यह विशाल सूर्यमंदिर तो पत्थरों से बना है, सागर के बहुत ही पास है और चंद्रभागा नदी के पात्र में इसका निर्माण किया गया है। तो फिर इन सारी बातों का इस मंदिर पर कुछ न कुछ तो असर अवश्य होगा ही। समय किसी को नहीं बक्षता, यह तो हम जानते ही हैं।

सूर्यमहाराज के विशाल एवं ख़ूबसूरत रथ को हम पिछले भाग में देख ही चुके हैं। आज इस रथ के साथ साथ इस मंदिर के कुछ अन्य हिस्से भी भग्न अवस्था में हैं, टूट चुके हैं। प्रमुख मंदिर का शिखर भी आज अपनी जगह पर नहीं है। इस ऐतिहासिक वास्तु को आनेवाली पीढ़ियाँ देख सकें, इस उद्देश्य से आज मंदिर का जो हिस्सा सुस्थिति में है, उसे महफूज़ रखने की दिशा में कोशिशें की जा रही हैं।

धूप, बारिश, तेज़ हवा के झोंकें और समुद्री खारी हवा इनकी वजह से इस मंदिर को का़ङ्गी क्षति पहुँच चुकी है। इन हालातों में आधुनिक तकनीक तथा प्राकृतिक उपाय इनकी सहायता से मंदिर को सुरक्षित रखने की कोशिशें की जा रही हैं। समुद्री हवा के तेज़ झोंकों को रोकने के उद्देश्य से उस तरह के पेड़ लगाये जा रहे हैं। दर असल १९वीं सदी की शुरुआत में इन कोशिशों का प्रारम्भ हुआ और आज उन्हें तेज़ किया जा रहा है।

कोणार्क का यह वैभव बीच की कुछ अवधि में मानों गुम सा हो गया था। इस मंदिर के चारों ओर घना जंगल बढ़ चुका था, रेत के ढेर जम चुके थे, दिन दहाड़े जंगली जानवर यहाँ पर घूमा करते थे और इन हालातों में भला कोई मनुष्य यहाँ पर आने की हिम्मत कैसे जुटा सकता है? इस मंदिर में सूर्य की पूजा और उपासना कब तक चल रही थी, इस बारे में हालाँकि कोई ठोस जानकारी तो नहीं मिलती; लेकिन लगभग १८वीं सदी के मध्य के बाद मंदिर को इन हालातों ने घेर लिया था, ऐसा कहा जाता है।

फिर एक दिन किसीको इस खज़ाने का पता चला और कोणार्क पर लोगों का ध्यान पुन: आकर्षित हुआ। कोणार्क के इस सूर्यमंदिर के इर्दगिर्द की रेत, मिट्टी, जंगल, जानवर आदि अनावश्यक बातों का सफाया कर फिर एक बार सूर्यमहाराज के इस रथ को दर्शन के लिए उपलब्ध कराया गया। अतीत के इस बेजोड़ सुंदर शिल्प को अब लोग जी भरकर देख सकते थे।

कहा जाता है कि विदेशी आक्रमण के समय यहाँ की सूर्यमूर्ति को यहाँ से अन्य सुरक्षित स्थल पर ले जाया गया। कोणार्क के इस मंदिर के साथ जिस तरह इतिहास जुड़ा हुआ है, उसी तरह कई कथाएँ, लोककथाएँ तथा दंतकथाएँ भी इससे जुड़ी हुई हैं।

मंदिर की भग्नस्थिति की वजह प्रतिपादित करनेवालीं कुछ कथाओं पर तथा ऐतिहासिक तथ्यों पर भी हम ग़ौर करेंगे। मंदिर की भग्न स्थिति की भौगोलिक वजहों के साथ साथ अन्य कुछ वजहें भी हो सकती हैं, यह क्या हमने कभी सोचा है?

चंद्रभागा नदी के पात्र में इसका निर्माण किया गया है। एक राय ऐसी है कि हालाँकि आज नदी भले ही यहाँ पर न भी हों, लेकिन जब इसे बनाया गया होगा, तब नदी के गहरे पानी में बड़ी बड़ी शिलाओं को रखकर उसपर इसका निर्माण किया गया होगा। आगे चलकर यह नींव अस्थिर बन चुकी होगी और इसके लिए वजह बनी होगी, भूगर्भ की भीतरी गतिविधियाँ। लेकिन इस मत का खण्डन करनेवालों की राय है कि मंदिर की नींव नदी में काफ़ी गहराई तक बनायी गयी होगी और इसीलिए नींव के उथलें या कमज़ोर होने के दावे में कोई दम नहीं है।

भूकंप यह एक ऐसी आपत्ति है, जो एक पल में सब कुछ टहस-नहस कर देती है। भूकंप के कारण ही इस मंदिर की हालत आज ऐसी बन चुकी है, ऐसी कुछ लोगों की राय है; वहीं कुछ लोगों का कहना है कि बिजली गिरने के कारण यह मंदिर भग्न हुआ होगा।

कुछ लोगों की राय यह है कि दरअसल इस मंदिर का निर्माणकार्य पूरा हो ही नहीं सका था; क्योंकि इसका निर्माण करनेवाले राजा नरसिंहदेव इस मंदिर के पूरे होने से पहले ही परलोक सिधार गये और फिर यह अधूरा रहा मंदिर समय के प्रवाह में भग्न हो गया। लेकिन यह मत पूरी तरह अग्राह्य माना जाता है, क्योंकि इस मंदिर में सूर्यभगवान का पूजन होने के उल्लेख ‘तीर्थचिंतामणि’ नामक ग्रंथ में तथा ‘मदल पंजी’ इस पुरी के ऐतिहासिक अभिलेख में प्राप्त होते हैं।

इस मंदिर के भग्न होने के विषय में कुछ अलग सी ही एक कहानी बतायी जाती है। इस मंदिर के शिखर का निर्माण जिस पत्थर से किया गया था, वह पत्थर दर असल चुंबकीय (मॅग्नेटिक) शक्तियुक्त अनोखा पत्थर था। उसकी इस चुंबकीय शक्ति के कारण सागर में से सफ़र करनेवाले जहाज़ उसकी ओर आकर्षित हो जाते थे और दुर्घटनाग्रस्त हो जाते थे। इस वजह से कुछ नाविकों ने मिलकर उस पत्थर को वहाँ से हटा दिया और मंदिर को एकसन्ध रखनेवाले उस पत्थर के हटाये जाने के कारण मंदिर भग्नस्थिति को प्राप्त हुआ।

एक और कहानी भी बतायी जाती है। कहते हैं कि नरसिंहदेव ने इस मंदिर के निर्माणकार्य को निर्धारित समय से पहले पूरा करने के लिए निर्माणकर्ताओं से कहा। अत एव मंदिर के बाकी के हिस्सों का निर्माण तो तेज़ी से किया गया, लेकिन शिखर बनाना उन कारीगरों के लिए मुमक़िन नहीं हुआ। फिर इस काम को पूरा करने की ज़िम्मेदारी जिस निर्माणकर्ता ने ली थी, उसके बेटे ‘धर्मपाल’ ने शिखर को बनाने का ज़िम्मा लेकर उस काम को पूरा कर दिया। लेकिन काम पूरा हो जाने के बाद, ‘मेरे इस काम से बाकी के कारीगरों की बदनामी हो सकती है’, यह सोचकर उसने चन्द्रभागा नदी में कूदकर जान दे दी। उसने शिखर बनाने का काम भी काफ़ी जल्दबाज़ी में किया था और इसीलिए उस काम के कारण मंदिर के बाकी के ढ़ाँचे में असन्तुलन उत्पन्न हो गया और परिणामस्वरूप मंदिर भग्न स्थिति को प्राप्त हुआ।

कोणार्क पर जब विदेशी आक्रमण हुआ था, तब कालापहाड़ नामक किसी एक आक्रमक ने इस मंदिर को ध्वस्त कर दिया था, ऐसा भी कहा जाता है।

कारण चाहे जो भी हों, मंदिर भग्न हुआ, यह बात तो निश्‍चित है। हालाँकि यह सच है कि उसकी भग्नावस्था के कारण उसकी सुन्दरता में कुछ कमी सी रह गयी है, मग़र फिर भी आज के ढ़ाँचे को देखकर भी हम उन कारीगरों की कुशलता को जान सकते हैं। केवल छेनी, हथौड़े और उस समय उपलब्ध रहनेवाले अन्य उपकरणों के साथ बड़ी बड़ी चट्टानों को खुरचकर उनमें जान डालने का कार्य करनेवाले कारीगरों के इस हुनर को देखकर हम मन ही मन में उन्हें सलाम करते हैं।

इतिहास की इस विरासत को जतन करने के लिए ‘कोणार्क म्युज़ियम’ के माध्यम से एक और कोशिश की गयी है। मंदिर परिसर की मूर्तियों, शिल्पों को खंडित तथा अखंडित रूप में इस म्युज़ियम में जतन किया गया है।

इस म्युज़ियम में जतन की गयी वस्तुओं को सभी देख सकें, इस उद्देश्य से दिसंबर के पहले ह़फ़्ते में यहाँ पर ‘कोणार्क नृत्य महोत्सव’ का आयोजन किया जाता है। शाम के संधिप्रकाश के बाद जब रात का आगमन होता है, तब कोणार्क का यह मंदिर कई रंगों के दीपों के साथ रोशन हो जाता है और इसी पार्श्‍वभूमि पर भारत भर से आये हुए नर्तक अपना नृत्य पेश करते हैं। खुले आसमान के नीचे, ठंडी हवा के झोंकों में हज़ारों दर्शकों के सामने भारतीय शास्त्रीय नृत्यशैली के विभिन्न प्रकार चैतन्यमय बन जाते हैं। यहाँ पर भरतनाटयम्, मणिपुरी, कथ्थक, छाऊ इन नृत्यप्रकारों के साथ साथ उड़ीसा का ‘उड़ीसी’ यह नृत्यप्रकार भी प्रस्तुत किया जाता है। दर असल पुराने ज़माने में मंदिर में भगवान के सामने इस नृत्यप्रकार को प्रस्तुत किया जाता था। कहा जाता है कि इसापूर्व २०० वर्ष से उड़ीसा में यह नृत्यप्रकार प्रस्तुत किया जा रहा है। आँखें, भौंहें, गर्दन इनके साथ हाथों और पैरों की लयबद्ध गति करना और इसके द्वारा किसी कथानक के आशय को दर्शकों तक पहुँचाना, यह उड़ीसी नृत्य का स्वरूप होता है। आज कोणार्क मंदिर के रथ के पहिये जितनी ही उड़ीसी नृत्य परंपरा भी कोणार्क से जुड़ी हुई है।

किसी मराठी कवि ने सूर्य के संदर्भ में कहा है कि ‘जो तो वंदन करी उगवत्या, जो तो पाठ फिरवी मावळत्या’ यानि कि उगते हुए सूरज को सभी प्रणाम करते हैं, लेकिन वही सूरज जब डूबने लगता है तो सभी उससे अपना मुँह फेर लेते हैं। आज कोणार्क के सूर्यमंदिर में सूर्यमूर्ति भले ही न हों, मग़र तब भी इस मंदिर के वैभव का सूरज आज भी ढल नहीं गया है और उसे ढलने न देना यह हम इन्सानों के हाथ में है।

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