काशी भाग-२

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काशी नगरी जितनी प्राचीन है, उसका इतिहास भी उतना ही प्राचीन है| इस नगरी का इतिहास उसके अस्तित्व के साथ ही शुरू होता है और हजारों वर्षों के प्रवास की झॉंकी दिखलाता है|

वेदकाल से ही इस नगरी का अस्तित्व था, क्योंकि अथर्ववेद में काशी नगरी बसानेवाले काशी या काश्य नामक लोगों का उल्लेख किया गया है| इतिहासकारों का मत है कि काशी नगरी बसानेवाले ये मूल लोग शिवोपासक अनार्य थें| इसीसे यह बात स्पष्ट होती है कि शिवोपासना और काशी इनका आपस में कितना घनिष्ठ और पुराना रिश्ता है| वैदिक साहित्य में इस नगरी के स्थापनकर्ताओं का निर्देश कोसल और विदेह इनके साथ ही आता है|

हर एक शहर-नगर को अपना खुद का इतिहास होता है और इस इतिहास से एक प्रमुख सत्य उजागर होता है और वह यह है कि अधिकांश नगर नदी के किनारों पर – नदी के सहारे ही बसाये जाते हैं| इसका महत्त्वपूर्ण कारण यह है कि मनुष्य की प्रमुख आवश्यकता है पानी और इस पानी की आपूर्ति करनेवालीं नदियों के किनारों पर बसना ही मानव पसन्द करता है| खेती की खोज के साथ-साथ ही नदी और उसके इर्द-गिर्द का प्रदेश इनकी खेती के लिए होनेवाली सहायता उस नगरी को सम्पन्न तथा समृद्ध करनेवाली होती है| इसी कारण निरन्तर बहनेवाली पवित्र गंगानदी के तीर पर बसी हुई काशी इसी प्रकार से समृद्ध होती गयी|

अनार्य शिवोपासकों की काशी पर आर्यों नें कब्जा कर लिया और उनकी संस्कृति वहॉं पर फलने-फूलने लगी| लेकिन आर्यों के काल में भी काशी और शिव यह रिश्ता उतना ही अटूट रहा|

हर एक नगर-शहर की संस्कृति उसपर शासन करनेवाले शासकों के साथ-साथ बदलती रहती है| फिर चाहे वह राज्य उस शासक ने आक्रमण के द्वारा प्राप्त किया हो अथवा सामोपचार के द्वारा| काशी में भी हर भिन्न-भिन्न कालखण्ड में भिन्न-भिन्न राज्यकर्ताओं के साथ विभिन्न संस्कृतियों का उदय हुआ, लेकिन इसके बावजूद काशी का धार्मिक, सांस्कृतिक तथा व्यापारी महत्त्व अबाधित रहा है| इसीलिए ज्ञान और धन के प्रकाश से यह नगरी प्रकाशित होती गयी|

शतपथ ब्राह्मण नामक ग्रन्थ में काशी के धृतराष्ट्र नामक राजा का निर्देश मिलता है और बृहदारण्यक में अजातशत्रु नामक राजा का उल्लेख है|

महाभारत में भी काशी का निर्देश मिलता है| महाभारत के अनुसार, सत्यवती और शान्तनु इनके चित्रांगद एवं विचित्रवीर्य नामक दो पुत्र थें| शान्तनु की मृत्यु के पश्चात् भीष्म ने इन दोनों का पालन किया| उनमें से चित्रांगद गन्धर्वों द्वारा मारा गया| अब जीवित बचे युवा विचित्रवीर्य के विवाह के लिए भीष्म ने अम्बा, अम्बिका तथा अम्बालिका इन तीन कन्याओं का हरण किया| ये तीनों ही काशीराज की कन्याएँ थीं, अर्थात् काशी की राजकन्याएँ थीं| इन तीनों में से अम्बा ने पहले ही शाल्व नामक राजा का पति के रूप में मन से चयन किया था| इसीलिए भीष्म ने उसे शाल्व के पास जाने की अनुमति दी| लेकिन शाल्व ने उसका स्वीकार नहीं किया| इस घटना के कारण अम्बा भीष्म पर क्रोधित हुई और भीष्म का प्रतिशोध लेने के लिए उसने तप किया| आगे चलकर इसी काशीराज की कन्या अम्बा ने शिखण्डी के रूप में जन्म लिया और वह भीष्म की मृत्यु का कारण बन गयी|

साथ ही महाभारत के युद्ध में काशी के राजा ने पाण्डवों को सहायता की, ऐसा उल्लेख महाभारत में प्राप्त होता है| इस निर्देश से काशी के पुरातन होने का सबूत तो मिलता ही है, साथ ही यह बात भी समझ में आती है कि उस समय में भी काशी कोई छोटा गॉंव नहीं था, बल्कि राजा द्वारा शासित की जानेवाली नगरी थी|

स्कंदपुराण के काशीखण्ड में काशी के दिवोदास नामक महापराक्रमी शासक का विस्तृत विवेचन प्राप्त होता है| काशी में राजपरम्परा हर्यश्‍व नामक राजा के साथ शुरू हुई, ऐसी एक राय है| हर्यश्‍व का पुत्र सुदेव और सुदेव का पुत्र दिवोदास| यह दिवोदास वैतहव्य राजाओं से परास्त हो गया, लेकिन दिवोदास के पुत्र प्रतर्दन ने वैतहव्यों का नाश कर काशी पर पुनः अपनी सत्ता स्थापित की|

बौद्ध साहित्य में भी काशी का प्रमुख रूप से उल्लेख मिलता है| काशी नगरी के साथ बौद्ध और जैन इन धर्मों का भी बहुत निकटतम सम्बन्ध रह चुका है|

पालीभाषा की कईं जातककथाओं की शुरुआत ही ‘प्राचीन काल में वाराणसी में ब्रह्मदत्त नामक राजा राज कर रहा था’ इस प्रकार से होती है|

जैन धर्मियों के सातवें तीर्थंकर सुपार्श्वनाथ और तेइसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ इन दोनों की काशी यह जन्मस्थली है|

काशी नगरी यह पुराने जमाने से ज्ञान प्रदान करनेवाली नगरी मानी जाती है| इस बात की प्रतीति उपनयन (यज्ञोपवीत) संस्कार करते समय होती है| जिसका उपनयन किया जाता है, उसे ‘बटु’ कहा जाता है और उपनयन संस्कार होने के बाद यह बटु शिक्षा प्राप्त करने के लिए अर्थात् विद्यार्जन के लिए काशी चला जाता है| अर्थात् उपनयन संस्कार के पश्चात् उस बटु की शिक्षा आरम्भ होती है| पुराने जमाने में यह रिवा़ज था| लेकिन बदलते समय के साथ-साथ इसे मह़ज एक रूढि का रूप प्राप्त हुआ है| लेकिन इससे हम जान सकते हैं कि उस समय विद्या-शिक्षा प्राप्त करने की दृष्टि से काशी का स्थान कितना महत्त्वपूर्ण रहा होगा| अर्थात् विद्यादान में काशी नगरी अग्रसर थी| यहॉं पर एक महत्त्वपूर्ण बात पर गौर करना चाहिए कि विभिन्न विदेशी आक्रमणों के बावजूद भी काशी में विद्यादान की परम्परा को अखण्डित रखने के लिए वहॉं के अध्यापकों ने हरसम्भव प्रयास किये| काशी में स्थित ‘बनारस हिंदु विश्‍वविद्यालय’ (बी.एच.यु.) आज के जमाने में काशी का विद्यादान की दृष्टि से महत्त्व विशेष रूप से प्रतिपादित करता है|

ज्ञान की इस परम्परा के साथ ही काशी को धन की समृद्धि भी प्राप्त हुई थी| काशी यह व्यापार के लिए प्रसिद्ध नगरी थी| काशी में व्यापार का इतना उत्कर्ष होने के लिए नित्य बहनेवाली गंगा नदी तथा काशी का भौगोलिक स्थान ये दो बातें निश्चित ही प्रमुख रूप से सहायक साबित हुई होंगी|

चन्दन, हाथीदॉंत, सूती वस्त्र, सुगन्धी द्रव्य, लकड़ी की ची़जें इनके व्यापार के लिए काशी सदियों से प्रसिद्ध थी|

Pg12_Banarasi Silkआज भी बनारस का नाम लेते ही कईं लोगों को बनारसी सिल्क की याद तो आती ही है|

पुराने जमाने में काशी नगरी तक्षशिला, पाटलिपुत्र, गोरखपुर, वैशाली, अयोध्या आदि नगरों से सड़कों के द्वारा जुड़ी हुई थी और इसी मार्ग से व्यापार होता था| मौर्यकाल में तक्षशिला से काशी तक पाटलिपुत्र से होकर एक रास्ता निकलता था| आगे शेरशहा सूरी ने इस रास्ते की अच्छी तरह से मरम्मत करवाई और आगे चलकर यह रास्ता ‘ग्रँड ट्रंक रोड’ के नाम से मशहूर हो गया|

काशी की खोज करते हुए जैसे-जैसे हम आगे चलते हैं, वैसे-वैसे यह नगरी स्वयं ही अपने विभिन्न पहलुओं को हमारे लिए प्रकाशित करती है| लेकिन इस पूरे प्रवास में गंगाजी और शिवजी ये दोनों ही इस नगरी की हमेशा साथ-संगत करते ही हैं|

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