श्रवण-इन्द्रिय का कार्य – भाग २

loudspeaker-waveform

श्रवण-इन्द्रिय का कार्य कैसे चलता है, यह आज हम देखेंगे। जो हम सुनते हैं उसे आवाज अथवा ध्वनि कहा जाता है। भौतिकशास्त्र के अनुसार ध्वनि यह स्पंदन अथवा लहरें (साऊंड व्हेव) होती हैं। ये स्पंदन अथवा लहरें हमें आंखों से दिखायी नहीं देती। प्रत्येक लहर की एक विशिष्ट लंबाई होती है एवं तीव्रता होती है। साथ ही साथ प्रत्येक लहर की एक विशिष्ट आवर्तता भी होती है।

ध्वनिलहरों के ये गुणधर्म बदलते रहते हैं और वे एक दूसरे से संबंधित भी होते हैं। एक विशिष्ट लंबाईवाली, विशिष्ट तीव्रतावाली एवं विशिष्ट आवर्तता वाली ध्वनिलहरें मधुर होती हैं। उसी तरह जब वे कैसे भी, विभिन्न लंबाई, तीव्रता तथा विभिन्न आवर्तनों में आती हैं तो हम उन्हें कोलाहल कहते हैं।

जब कोई भी आवाज हमारे बाह्यकर्ण पटल पर पड़ती है, जिसे हम ‘पीना’ कहते हैं, तो बाह्यकर्ण की ऊँची नीची रचनाएँ उसमें उचित बदलाव करके उन्हें हमारी बाह्यकर्ण नलिका में छोड़ती हैं। इस बाह्यकर्ण नलिका से होते हुये यें ध्वनिलहरियाँ सबसे पहले कान के परदे से टकराती हैं अथवा कान के परदे तक पहुँचती हैं। हमने पिछले लेख में पढ़ा है कि कान के भीतर कान का परदा थोड़ा तिरछा होता है। ऊपरी हिस्से में थोड़ा आगे झुका हुआ और मध्य भाग में थोड़ा अंदर दबा हुआ होता है। फलस्वरुप वह कोनिकल (कोन शेप्ड) होता है। इसके पीछे मध्य कर्ण होता है। इस मध्य कर्ण में तीन छोटी सी अस्थियाँ होती हैं। मॅलिअस, इंकस और स्टेपीझ उनके नाम हैं। इनमें से मॅलिअस कान के परदे के मध्यभाग में परदे से जुड़ी होती हैं। मॅलिअस का दूसरा सिरा डेकसाल व डेकस स्टेपीझ से जुडा होता है। अंत में स्टेपीझ का निचला सिरा, अंतःकर्ण में कॉकलिया नामक जो छोटी खिड़की होती है, उससे जुडा होता है।

कान का परदा-मॉलिअस-इंकस-स्टेपीझ, कॉकलीया, ऐसी यह श्रृंखला है। इसी रास्ते से ध्वनिलहरें परदे से होती हुई मध्यकर्ण से अंतःकर्ण तक पहुँचायी जाती हैं। कान के पर्दे का मध्यभाग जहाँ पर मॅलिअस से जुड़ा होता है वहाँ पर वह हमेशा तनी हुई अवस्था में होता है।

फलस्वरुप पर्दे पर पड़नेवाली सभी ध्वनि लहरें एकत्रित होकर इस मध्यभाग में जमा हो जाती हैं तथा मॅलिअस व अन्य अस्थियों की सहायता से अंतःकर्ण तक पहुँचती हैं।

कान की रचना का अध्ययन करते समय हमने देखा कि बाह्य व मध्यकर्ण में हवा रहती है तथा अंतःकर्ण में द्रवपदार्थ होता है। हवा की तुलना में द्रवपदार्थ का जडत्व ज्यादा होता है। जितनी तीव्रता की ध्वनिलहरें हवा में तरंग निर्माण करती हैं उतनी ही तीव्रतावाली ध्वनिलहरें द्रवपदार्थ पर तरंग का निर्माण नहीं कर सकती। तात्पर्य यह है कि द्रवों पर तरंग निर्माण करने के लिये ध्वनिलहरों की तीव्रता अधिक होनी चाहिये। तो ऐसा अपनी कर्ण इन्द्रियों में कैसे घटित होता है? दो चीजें यहाँ पर मदद करती हैं। पहली यदि मध्यकर्ण से जानेवाली ध्वनिलहरें सीधे हवा के माध्यम से अंतःकर्ण तक पहुँचती हैं, तो जब वे पिटुकल अस्थियों की श्रृंखला तक प्रवास करती हैं तो उन्हें, कम दूरी तय करनी पड़ती हैं। साथ ही साथ इन अस्थियों में से गुजरते समय इन लहरों की शक्ति ५.३ गुना बढ़ जाती हैं। दूसरा कारण यह है कि कान के पर्दे का क्षेत्रफल ५५ चौ.मिमि होता है तथा स्टेपीस का क्षेत्रफल ३.२ चौ.मिमि होता है जिससे यहाँ पर तीव्रता १७ गुना बढ़ जाती है। यदि इन दोनों का गुणाकार करें (१७ गुना १.३) तो हम जान सकते हैं कि अंतःकर्ण के द्रव पर इन लहरों का दबाव मध्य व बाह्यकर्ण की हवा पर पड़ रहे दबाव की तुलना में २२ गुना ज्यादा होता है। फलस्वरुप अंतःकर्ण की चेतापेशियों तक ये ध्वनिलहरें क्षीण न होकर उतनी ही तीव्रता से पहुँचती हैं, उतनी ही तीव्रता से वे कान के परदे पर टकराती हैं। सोचो, यदि कान का पर्दा और अंदर की छोटी हड्डियाँ नहीं होती तो क्या होता? ऐसी परिस्थिति में भी ध्वनि लहरें अंतःकर्ण में प्रवेश तो करती परंतु अत्यंत क्षीण स्वरुप में पहुँचती। फलस्वरुप वो ध्वनि हम सुन तक नहीं सकते। इससे हमें कान के इन छोटे छोटे अवयवों का महत्व समझ में आता है।

अतिकर्कश आवाज यदि लगातार हमारे कानों पर पड़ती रहें तो हमारे कान बहरें हो सकते हैं। हम अकसर यह कहते रहते हैं कि शोर शराबे के कारण हमारे कान बहरें हो गये हैं। इससे क्या तात्पर्य है? बहरा होना हमारे अंतःकर्ण की अतिशक्तिशाली आवाज से संरक्षण करनेवाली संरक्षक क्रिया है। अब हम देखेंगे कि यह किस तरह कार्यरत होती है। जब ये अतिशक्तिशाली ध्वनि लहरें मस्तिष्क तक पहुँचती हैं तो ४० से ९० मिलिसेकंड के बाद मस्तिष्क से मध्यकर्ण के स्नायुओं को संदेश पहुँचता है। इस संदेश के अनुसार मध्यकर्ण के दो स्नायु आकुंचित हो जाते हैं। एक स्नायु मॅनिअस अस्थि को अंदर की ओर खींचता है तो दूसरा स्नायु स्टेपीझ को बाहर की ओर खींचता है। फलस्वरुप इस अस्थि श्रृंखला का जडत्व बढ़ जाता है और ध्वनिलहरों का वाहन करने की क्षमता घट जाती है। फलस्वरुप हमें सुनायी देनेवाली आवाज की तीव्रता कम हो जाती है। इस आवाज के १००० आवर्त / प्रति सेकेड़ से कम आवर्त की आवाज हम नहीं सुन पाते हैं।

इस क्रिया के दो फायदे हैं :-

१) अंतःकर्ण का अतितीव्र आवाज से संरक्षण
२) शोर शराबे की बीच में भी हम किसी विशिष्ट आवाज को पूरी तरह एकाग्र होकर सुन सकते हैं।

अब तक हमने मध्यकर्ण व बाह्यकर्ण के कार्यों का अध्ययन किया।

अब हम हमारे अंतःकर्ण के कार्यों का अध्ययन करेंगे। अंतःकर्ण में ही संवेदनशील पेशी व संवेदनशील तंतु होते हैं जो ध्वनिलहरों के कंपनों का रुपांतर संवेदन अथवा अनुभूति में करते हैं। इन संवेदन लहरों का वहन संवेदनशील तंतुओं से होकर मस्तिष्क में होता है। मस्तिष्क में एक अलग श्रवण क्षेत्र (ऑडिटरी एरिया) होता है। वहाँ पर इन ध्वनि लहरों का विश्‍लेषण व पृथक्करण किया जाता है। इन चीजों को हम थोड़ा सरल ढंग से समझते हैं।

हमने देखा कि अंतःकर्ण के तीन भाग होते हैं। प्रत्येक भाग का बाह्यकवच हड्डियों का तथा अंदर का भाग पतले परदे का होता है। इसका प्रत्येक भाग कुछ विशिष्ट कार्य करता है।

१) कॉकलीया

कान की रचना का अध्ययन करते समय हमने इसकी संक्षिप्त जानकारी प्राप्त की थी। अब हम इस कार्य की दृष्टि से इसकी सविस्तार जानकारी हासिल करेंगे। कॉकलिया में तीन नलिका आपस में जुडी रहती हैं। उनके नाम हैं  १) स्काला क्यूटीक्यूती २) स्काला मीडिया तथा ३) स्काला टिंपॅनी।

इन नलिकाओं को एक दूसरे से अलग करनेवाले परदे होते हैं तथा इन सबमं एंडोलिम्फ नामक द्रवपदार्थ होता है। मध्यकर्ण की अंतिम अस्थि स्टेपीझ में से आनेवाली ध्वनिलहरें वेस्टिब्यूल में कंपन निर्माण करती हैं। ये कंपन आगे चलकर स्काला मीडिया में पहुँचते हैं तथा वहाँ से उनका वहन स्काला टिंपॅनी में होता है। स्काला टिपॅनी में जो भीतरी स्तर होता है उसे वॅसिलर स्तर कहते हैं। इस स्तर पर संवेदनशील पेशीयां होती हैं। पेशियों के इस समूह को कॉर्टीचा अवयव कहा जाता है। इसमें जो संवदेशनशील पेशियाँ होती हैं उन्हें केशीयपेशी कहते हैं। यही पेशियाँ श्रवणसंवेदना को मस्तिष्क तक पहुँचानेवाली पेशियाँ होती हैं। (ऑडिटोरी – सेन्सरी एंड ऑर्गन )

वॅसिलर स्तर ध्वनिलहरों के कंपनों का वहन कॉर्टीचा अवयव तक कैसे करता है, अब हम यह देखेंगे। इस स्तर की जो पेशियाँ होती हैं उनपर पतले से तंतु होते हैं। ये तंतु पेशियों पर अचल तथा किनारों पर चल होते हैं। फलस्वरुप प्रत्येक कंपन के साथ इनकी आगे-पीछे हलचल होती रहती हैं। वॅसिलर स्तर के आरंभिक भाग के तंतुओं की लंबाई ०.०४ मिमि होती हैं तथा अंतिम भाग (कॉर्टीचा अवयव के पास) इनकी लंबाई ०.५ मिमि होती हैं। इसी तरह ऊंचाई के साथ इन तंतुओं का मोटापन भी कम होते जाता है। इसका लाभ कैसे होता है? तीव्र आवर्तनों के लहरों का वहन आरंभिक तंतुओं में से होते हुए अत्यंत वेगपूर्वक होता हुआ फिर यही वहन आगे चलकर धीमी गति से होता है। इसी दरमियान ये लहरें एक दूसरे से अलग होती है और कॉर्टी के अवयवों में से केशपेशींओं की व्यवस्थित रुप से जाँच कर सकती हैं। साथ ही साथ ऊँचाई के साथ इन तंतुओं आवर्तन वाली लहरों का वहन शुरुवात के तंतुओं द्वारा होता है जिसका वेग ज्यादा होता है तथा अगले हिस्से में यह वहन धीमी गति से होता है। इसी दरम्यान ये लहरें एक-दूसरे से अलग होती हैं तथा कॉर्टीचा अवयव के केशपेशिओं की ठीक से गणना की जा सकती हैं। यदि ऐसा नहीं होता है तो निश्‍चित ही यदि तीव्र आर्वतनों वाली ये ध्वनिलहरें एकत्रित ही रहती तो संवेदनशील पेशियाँ उन्हें अलग अलग नहीं पहचान सकती थी। फलस्वरुप आनेवाली आवाज का उचित ज्ञान हमें नहीं हो सकता है।

कान के इन अवयवों के विभिन्न कार्यों का भला हमें क्या फायदा होता है। तो इसका फायदा यह है कि कामाफूसी से लेकर अत्यंत ऊँची आवाज तक (शोर शराबे तक) कान विविध तीव्रतावाली आवाजें सुन सकते हैं। आवाज की तीव्रता हम डेसिबल युनिट्स में नापते हैं। अब तक हमने देखा कि आवाज सुनने की क्रिया कैसे होती हैं। अब हम देखेंगे कि आवाज न सुनने की क्रिया अर्थात बहरेपन की क्रिया कैसे होती है। बहरापन दो तरह का होता है –

१) संवेदन तंतु के कारण होनेवाला बहरापन- जब किन्हीं कारणों से कॉकलीया अथवा श्रवणमज्जा (ऑडिटरी नर्व्ह) क्षतिग्रस्त हो जाती है तब इस प्रकार का बहरापन आ जाता है। यह बहरापन ठीक किया जा सकता है। बाह्यकर्ण नलिका का मार्ग खुला करके पहला कारण दूर किया जा सकता है तथा श्रवणयंत्र का उपयोग करके दूसरे प्रकार का बहरापन दूर किया जा सकता है।

बहरापन किस प्रकार का है इसका निर्णय डॉक्टर लोग ऑडिओमेट्री तथा ऑडियोग्राम की सहायता से करते हैं।

कॉकलिया के द्वारा श्रवणकार्य कैसे किया जाता है, यह हमने देखा। परंतु अपना अंतःकर्ण सिर्फ इतना ही कार्य नहीं करता।

इसकी वेस्टिब्यूल एवं तीन अर्धवर्तुलाकार नलिकायें क्या कार्य करती हैं, अब हम यह देखेंगे –

वेस्टिब्यूल अवयव के कार्य –

१) शरीर का संतुलन बनाये रखना।
२) किसी भी वस्तु पर नजर स्थिर करना।

इन कार्यों के लिये वेस्टिव्यूल के दो अलग अलग भाग होते हैं –

१) चल लँबिरिंथ (कायनेटिक लॅबिरिंथ) – यह भाग मस्तिष्क की प्रत्येक कृति पर नजर रखता है। मस्तिष्क की कृति के अनुसार इस भाग के एंडोलिंफ का प्रवाह बदलता है। इस कार्य के लिये अर्धवर्तुलाकार नलिकायें उपयोगी साबित होती हैं। ये तीनों नलिकायें एक दूसरे से समकोण बनाये रखती हैं।

२) अचल लॉविरीध ( स्टॅटिक लॅबिरिंथ)– यह भाग गुरुत्वाकर्षण शक्ति (हमारे शरीर में कार्यरत) तथा उसकी तुलना में आँखों की स्थिति का अंदाज रखता है। अपना संतुलन बनाये रखने के लिये शरीर के गुरुत्वमध्य के खास मस्तिष्क को यथासंभव स्थिर रखने में सहायता करता है।

इससे हम जान सकते हैं कि जब हमें बार बार चक्कर आने लगता हैं तो डॉक्टर हमें कानों की जाँच कराने की सलाह क्यों देते हैं। क्योंकि इस वेस्टिब्यूलर अवयव में खराबी आ जाने पर उसके कार्यों में बाधा उत्पन्न होने लगती है। फलस्वरुप संतुलन बनाये रखने की क्रिया बाधित हो जाती है जिसके कारण या तो हमें चक्कर आने लगता हैं अथवा बार बार हमारा संतुलन बिगडने लगता है और जान पडता है कि हम अब गिर जायेंगे।

कानों का अध्ययन करते समय हमने उनकी रचना, उनके कार्यों बहरापन क्या है और वह कैसे आता है, उसके निदान के क्या उपाय है तथा शरीर के संतुलन को बनाये रखने में कानों के सहभाग को भी हमने देखा। अब हम अगले लेख में दूसरी ज्ञानेंद्रियों के बारे में ज्ञान अर्जित करेंगे। (क्रमशः)

Leave a Reply

Your email address will not be published.