नासिक भाग – ४

प्रभु श्रीरामचन्द्रजी के चरणस्पर्श से और परमात्मत्रयी के निवास से नासिक की यह भूमि पावन हुई है। नासिक की यह भूमि जितनी पावन है, उतनी ही वह सुजलाम् सुफलाम् भी है।

प्रभु श्रीरामचन्द्रजीनासिक की इस उपजाऊ मिट्टी में ऊगनेवाली प्रमुख फसल है, अँगूर की। नासिक का नाम लेते ही अँगूर की याद आती है, इतना नासिक और अँगूर इनका अटूट रिश्ता है। अँगूर के साथ साथ नासिक और उसके आसपास के इला़के में दो प्रमुख फसलें ली जाती हैं। उनमें से एक है प्या़ज, जो आँखों से आँसू निकालता है, जब कोई उसे काटता है, तब भी और जब उसके दाम लगातार बढ़ने लगते हैं, तब भी। साथ ही यहाँ पर ली जानेवाली दूसरी फसल है टमाटर की।

आज नासिक की गिनती ते़जी से विकसित होनेवाले औद्योगिक शहरों में की जाती है। कई मशहूर उद्योग यहाँ पर हैं। ‘पुण्यभूमि’ इस बिरुद के साथ साथ आज नासिक को औद्योगिक भूमि यह सम्मान भी प्राप्त हो चुका है।

प्राचीन समय में यहाँ पर निरन्तर ऋषियों के मन्त्रघोष गूँजते रहते थे और यज्ञकर्म भी होते रहते थे। हालाँकि समय की करवट के साथ साथ बहुत कुछ बदल चुका है और आज इन मन्त्रघोषों की गूँज अतीत का हिस्सा बन चुकी है, मग़र फिर भी नासिक में वेदों का अध्ययन-अध्यापन करनेवाली पाठशाला आज भी कार्यरत है। प्रभु श्रीरामचन्द्रजी

अर्थात्, नासिक शहर ने अपनी पुरानी परम्पराओं को जतन करने के साथ साथ नये युग के विकासमन्त्र को भी अपनाया है। अत एव नासिक को हम प्राचीन सभ्यता और आधुनिक विज्ञानयुग का एक सुन्दर मिलाप कह सकते हैं।

संग्रहालय, यह जैसे बड़े शहरों में होता है, वैसे ही छोटे गाँवों में भी होता है। संग्रहालय कहते ही हमारी आँखों के सामने दिखायी देती हैं, प्राचीन समय की कुछ वस्तुएँ और हर एक संग्रहालय में प्रायः ऐसा ही पाया जाता है। लेकिन नासिक शहर के दो संग्रहालय अपने आप में ख़ास हैं।

उनमें से एक संग्रहालय है, सिक्कों का; वहीं, दूसरा है, पत्थरों का। देखा जाये, तो ये दोनों बातें परस्परविरोधी हैं। सिक्कें प्रतिनिधित्व करते हैं, अर्थव्यवहार का; वहीं, पत्थर इस कार्य में किसी उपयोग के नहीं हैं। ऐसी दो वस्तुओं का संग्रहालय होना, यह एक अनोखी ही बात है।

आजकल हम सिक्कें और नोटों का चलन के रूप में इस्तेमाल करते हैं, लेकिन एक जमाना ऐसा भी था, जब सोने-चाँदी की मुद्राएँ, ताँबे के होन इस तरह विभिन्न धातुओं से बने सिक्कों का चलन के रूप में इस्तेमाल किया जाता था। विभिन्न सियासतों के शासक अपने अपने नाम और मुद्राओं को अंकित कर सिक्कों का निर्माण करते थे और उनके शासनकाल में उन्हींका उपयोग चलन के रूप में किया जाता था। इसवी १९८० में स्थापित यह ‘सिक्कों का संग्रहालय’ चलन के रूप में सिक्कों का उपयोग किस तरह होता रहा, यह स्पष्ट करता है। दुर्लभ सिक्कें, पुराने सिक्कों के फोटोग्राफ्स, उनके रेखाचित्र, उनकी प्रतिकृतियाँ ऐसी कई बातें इस संग्रहालय में हैं। विभिन्न कालखण्डों में भारत में चलन के रूप में इस्तेमाल किये जानेवाले सिक्कों का अन्वेषण और सिक्कें तथा मुद्राएँ इस विषय का गहरा अध्ययन ये इस संग्रहालय की ख़ासियत है।

दूसरा संग्रहालय है पत्थरों का, जो ‘स्टोन म्युझियम’ इस नाम से मशहूर है। यहाँ पर संग्रहित किये गये पत्थर अनोखे हैं। ‘फ्लिटं स्टोन’ अथवा जिसे हम ‘चक़मक़’ कहते हैं, उनका यहाँ पर संग्रह किया गया है। चक़मक़ इस पत्थर का प्राचीन समय से ज्ञात उपयोग है, उनके द्वारा चिंगारी निर्माण करना। विभिन्न तथा आकर्षक प्रकार के चक़मक़ के पत्थरों को हम यहाँ पर देख सकते हैं।

अब पत्थरों की बात चली ही है, तो पत्थर में तराशी जानेवाली गुफाओं को भी देखते हैं। पर्वत में विशिष्ट रूप से खोदाई करके उसमें गुफाओं और शिल्पों को तराशा जाता है।

नासिक से कुछ ही दूरी पर शंकु के आकार के तीन पर्वत हैं, जिन्हें ‘त्रिरश्मि’ कहा जाता है। इनमें से बीच के पर्वत में कुछ गुफाएँ पायी जाती हैं। ये गुफाएँ ‘पांडवगुफाएँ’ (पांडवलेणी) इस नाम से मशहूर हैं। खोजकर्ताओं के मत से, इनका निर्माण विभिन्न राजाओं के शासनकाल में किया गया है। ईसापूर्व २०० वर्ष शुरू हो चुका यह निर्माणकार्य चौथी सदी तक चल रहा था। कारीगर और शिल्पकारों की कई पीढ़ियों ने इस कार्य को यहाँ पर अखण्डित रूप से ज़ारी रखा था।

यहाँ के स्तम्भों और दीवारों पर कुल मिलाकर प्राकृत भाषा में २७ शिलालेख अंकित किये गये हैं। इतिहासकारों ने उन्हें पढ़कर उनका आशय स्पष्ट किया है। १९वी गुफा का शिलालेख सबसे प्राचीन अर्थात् ११० वर्ष ईसापूर्व का है। इस शिलालेख में कहा गया है कि ‘सातवाहन कुल के कृष्णराजा के शासनकाल में नासिक के श्रमण नाम के महा-अमात्य में इस गुफा का निर्माण करवाया।’

इस पर्वत की तलहटी से कुछ सीढ़ियाँ ऊपर चढ़ने के बाद ये २४ गुफाएँ सामने दिखायी देती हैं। लेकिन हर एक गुफा की रचना, लँबाई-चौड़ाई भिन्न है और जाहिर है कि निर्माण का प्रयोजन भी अलग ही होगा।

काले पत्थर में तराशी गयी इन गुफाओं में से पहली गुफा में पशुओं की म़जेदार आकृतियाँ तराशी गयी हैं। लेकिन आज समय के साथ साथ वे धुँधली हो चुकी हैं। एक गुफा में शिवलिंग भी है। यहाँ की गुफाओं में शिल्पाकृतियों के साथ साथ शिलालेख भी दिखायी देते हैं। तीसरी गुङ्गा के शिलालेख में सातकर्णी और उनकी माता गौतमी इनका उल्लेख  मिलता है; वहीं, दसवी गुफा में ‘उषवदात’ नाम के क्षत्रप राजा का उल्लेख मिलता है। उषवदात ने तीन लाख गौओं को दान किया था, ऐसा उल्लेख इसी दसवीं गुफा में मिलता है और उन्होंने सहस्रभोजन कराया था, यह उल्लेख चौदहवी गुफा में मिलता है।

संक्षेप में, इन गुफाओं की निश्चित कालावधि की खोज करने में इन गुफाओं में किये गये शिल्पकाम के साथ साथ तराशे गये शिलालेख भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। ऐसी इन पाण्डवगुफाओं को अतीत का एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण साधन कहा जा सकता है।

प्राचीन समय से नासिक यह एक व्यापारी शहर के रूप में मशहूर था। पुरातत्त्व अन्वेषकों द्वारा अतीत की पगडण्डियों को उजागर करने के लिए किये गये उत्खनन में पक्की ईटों से निर्मित और रेत तथा कीचड़ के मिश्रण से बनी हुई जमीन होनेवाले घर पाये गये। इससे यह बात साबित हुई कि प्राचीन समय से लोग यहाँ पर बस रहे थे।

गोदावरी के जल से सुजलाम् सुफलाम् बनी नासिक की इस भूमि में कुछ असामान्य व्यक्तित्वों का निवास रहा है।

इनमें पहला नाम आता है, ‘विनायक दामोदर सावरकरजी’ का। नासिक के पास के भगूर नामक गाँव में उनका जन्म हुआ। उनके कर्तृत्व तथा भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम में उनके असीम योगदान से तो हम परिचित हैं ही।

एक समय ऐसा था, जब मनोरंजन के लिए केवल नाटक यही पर्याय उपलब्ध था। लेकिन अचानक एक क्रान्ति-सी हुई और मनुष्य पर्दे पर दिखायी देने लगे। यही वह पल है, जब सिनेमा का जन्म हुआ। भारतीय फिल्म जगत् में जिनका नाम ‘सिनेमा के जनक’ के रूप में सम्मानपूर्वक लिया जाता है, उन दादासाहब फालके का जन्म त्र्यम्बकेश्वर में इसवी १८७० में हुआ। कला की शिक्षा प्राप्त कर उन्होंने इसवी १९१३ में ‘राजा हरिश्‍चंद्र’ नामक पहली फिल्म बनायी। लेकिन इस फिल्म के कलाकार मात्र अभिनय करते थे, उनके बीच संवाद नहीं होता था; यानि कि वह मूकपट था। इसके बाद भी फालकेजी ने कुछ फिल्में बनायीं और भारतीय फिल्म जगत् की नींव रखी।

मराठी साहित्य में जिन्हें ‘कुसुमाग्रज’ इस नाम से जाना जाता है, उन वि. वा. शिरवाडकर का नासिक शहर के साथ गहरा रिश्ता था। उन्होंने मानो नासिक को कर्मभूमि के रूप में चुना था। उन्होंने अपने जीवन का का़फी समय नासिक शहर में व्यतीत किया और उनका अन्त भी इसी शहर में हुआ। ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त करनेवाले इस साहित्यिक के कई काव्यसंग्रह, नाटक तथा कथासंग्रह प्रसिद्ध हैं। लोगों को परिचित ऐसी उनकी साहित्यकृति  के उदाहरण के तौर पर ‘नटसम्राट’ इस लोकप्रिय नाटक का उल्लेख किया जा सकता है।

शास्त्रीय संगीत के दिग्गज के रूप में जाने जानेवाले ‘पंडित विष्णु दिगंबर पलुस्करजी’ का भी नासिक से गहरा रिश्ता था।

स्वतन्त्रतापूर्व समय में कई वीरों को जन्म देनेवाला नासिक आज भी भारतीय सेना से सम्बन्धित है।

संक्षेप में, नासिक यह वीरों की, शूरों की, भक्तों की, इतना ही नहीं, बल्कि जीवन में खुशियाँ बिखेरनेवाले साहित्यिकों की, जीवन में मनोरंजन करनेवाले चित्रपटनिर्माता ऐसे कई व्यक्तित्वों की भूमि है।

लेकिन दरअसल यह निरन्तर बहनेवाली गोदावरी की भूमि है और उससे भी बढ़कर उस त्र्यम्बक की भूमि है।

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