६३. १९२९ के अरब-ज्यू दंगे

इसवी १९२० के दशक में पॅलेस्टाईनस्थित अरब और ज्यूधर्मीय इनके बीच की दरार बढ़ती ही चली जा रही थी। ब्रिटीश शासकों का रूझान भी ज्यूधर्मियों पर अधिक से अधिक पाबंदियाँ लगाते हुए, अरबों का अनुनय करने की ओर ही था।

वैसे देखा जायें, तो इसवीसन १९२५ के दौरान पॅलेस्टाईन में ज्यूधर्मियों की संख्या लगभग १५ प्रतिशत थी, मग़र फिर भी पॅलेस्टाईन के संपादित किये जा रहे करों (टॅक्सेस) में से पूरा ४५ प्रतिशत हिस्सा यह ज्यूधर्मियों की ओर से आता था। इसके बावजूद भी इन टॅक्सेस में से अधिकांश रक़म यह ब्रिटिशों द्वारा पॅलेस्टाईनस्थित अरब भाग पर खर्च की जाती थी। साथ ही, ज्यूधर्मियों के माध्यम से पॅलेस्टाईन का जो विकास हो रहा था, उसके फल वहाँ के अरबों को भी चखने को मिल रहे ही थे।

लेकिन अब दुनियाभर से बढ़ती संख्या में पॅलेस्टाईन लौटनेवाले ज्यूधर्मियों की ओर वहाँ के अरब शक्की निगाहों से देखने लगे थे कि ऐसी ही इनकी संख्या यदि बढ़ती गयी, तो कुछ समय बाद उनकी बहुसंख्या (मेजॉरिटी) होकर वे इस प्रान्त पर राज करने लगेंगे। इस संशयाग्नि में तेल डालने का काम स्थानिक अरब धार्मिक नेता कर ही रहे थे और उसके अनुसार, पॅलेस्टाईन के बाहर के अरब भी अधिक से अधिक संख्या में पॅलेस्टाईन में बसने लगें, इसके लिए उनकी कोशिशें जारी थीं।

इन सारी गतिविधियों का अंजाम इसवीसन १९२९ में पुनः एक बार अरब-ज्यू दंगों में हुआ। यह कोई अचानक घटित हुई घटना नहीं थी। सन १९२० और २१ के अरब-ज्यू दंगों के बाद कई बार पॅलेस्टाईन में वैसी ही विस्फोटक परिस्थिति का निर्माण हुआ था। कई बार तो बिलकुल मामूली कारणों से या फिर कभी तो विघ्नसंतोषी लोगों ने जानबूझकर फैलायीं अफवाहों से भी क्रायसिस निर्माण हुए थे। कई बार परिस्थिति हाथों से बाहर जाते जाते आग का शमन हुआ था, लेकिन गुस्से का शमन नहीं हुआ था।

जेरुसलेम शहर को गत हज़ारों सालों से ज्यूधर्मियों की तरह ही, ख्रिस्तीधर्मीय और इस्लामधर्मीय भी पवित्र मानते होने के कारण, ऑटोमन साम्राज्य के दौर में ही, ऑटोमन शासकों ने सर्वधर्मीय प्रतिनिधियों को एकत्रित बुलाकर, ‘यह शहर धार्मिक मामलों में हमेशा ही ‘जैसे थे’ स्थिति में (status quo maintained) रहेगा और इनमें से किसी भी धर्म के अनुयायियों को, जेरुसलेमस्थित अपने अपने आदरस्थानों में दर्शन, प्रार्थना, धार्मिक विधियाँ आदि करने से रोका नहीं जा सकेगा’ ऐसा अध्यादेश जारी किया था और इतने साल थोड़ेबहुत मामूला अपवादों (एक्सेप्शन्स) को छोड़कर उसका बाक़ायदा पालन भी हो रहा था।

ज्यूधर्मियों का विरोध करनेवाले जेरुसलेम के तत्कालीन ग्रँड मुफ़्ती अल् हुसैनी ने आगे चलकर ज्यूधर्मियों के खिलाफ़ हिटलर से भी मिलीभगत की।

इसवीसन ०७० में हुए दूसरे होली टेंपल के ध्वंस के बाद, उसका एकमात्र बचाकुचा भग्नावशेष यानी ‘वेस्टर्न वॉल’ यह ज्यूधर्मियों के लिए अत्यधिक लगाव होनेवाली और सबसे आदरणीय बातों में से एक है, जहाँ हररोज़ ज्यूधर्मियों द्वारा प्रार्थना का आयोजन किया जा है। वैसे ही वह उस वक़्त भी किया जाता था। ज्यूधर्मीय उस स्थान पर प्रार्थना करने नित्यनियमित रूप में आया करते थे। उनमें बुज़ुर्ग ज्यूधर्मीय भी होने के कारण उनके लिए कुर्सियों/बेंचों का प्रबंध किया जाता था। महिलाओं और पुरुषों के लिए अलग गुटों में ये कुर्सियाँ लगायीं जातीं थीं और बीचोंबीच एक अस्थायी विभाजक भी लगाया जाता था।

पहले ही ज्यूधर्मियों के, बढ़ती संख्या में पॅलेस्टाईन लौट आने की ओर शक्की निगाहों से देखनेवाले वहाँ के स्थानिक अरबों की आँखों में यह सब चुभ रहा था। इस तरह ज्यूधर्मियों का, हररोज़ टेबल-कुर्सियाँ लेकर, शाम को पेट्रोल की लालटेनें भी लेकर वेस्टर्न वॉल के पास प्रार्थना के लिए आना, यह स्थानिक अरबों को – ‘ज्यूधर्मियों का इस स्थान पर कब्ज़ा करने का पहला कदम’ प्रतीत हुआ; और सन १९२५ में एक बार जेरुसलेम का ‘ग्रँड मुफ्ती’ – हाज अमीन अल हुसैनी ने उसपर ब्रिटीश प्रशासन के पास ऐतराज़ जताया था। (इसी अल-हुसैनी ने आगे चलकर ज्यूधर्मियों को अधिक से अधिक विरोध करने के लिए हिटलर से भी मिलीभगत की और इस कारण ब्रिटिशों ने उसका जेरुसलेम में से देशनिकाला किया था।) इस आक्षेप के प्रतिसादस्वरूप ब्रिटीश प्रशासन ने ज्यूधर्मियों को उस इला़के में अस्थायी रूप में भी फर्निचर लाने पर रोक लगायी थी। लेकिन ऐसा नहीं है कि इस पाबंदी का हमेशा ही बारिक़ी से पालन किया गया। बाद में धीरे धीरे अरबों ने भी उसपर ऐतराज़ जताना कम कर दिया। लेकिन उनके दिल में ज्यूधर्मियों के खिलाफ़ दीर्घकालीन मनमुटाव क़ायम ही रहा।

इसी दुःस्वास के चलते ही कई घटनाएँ घटित हो रही थीं। सितम्बर १९२८ में ज्यूधर्मियों का पवित्र त्योहार ‘योमकिप्पूर’ के उपलक्ष्य में ज्यूधर्मीय वेस्टर्न वॉल के पास प्रार्थना कर रहे थे। वे हररोज़ की तरह बैठने के लिए कुर्सियाँ साथ लाये थे और पुरुष एवं महिलाओं के गुटों का विभाजन करने के लिए, कुछ लकड़ी की फ्रेम्स पर कपड़ा डालकर अस्थायी रूप में विभाजक भी खड़ा किया था। उसी समय पास ही की एक ईमारत में अरबों के एक समारोह में ब्रिटीश हाय कमिशनर सम्मिलित हुआ था। यह मौक़ा देखकर वहाँ के अरब नेताओं ने उस सारे वाक़ये को लेकर तक़रार करना शुरू किया। ‘यह इन ज्यूधर्मियों की, मुस्लिमों के लिए आदर का स्थान होनेवाली अल-अक्सा मसजिद को अपने कब्ज़े में कर लेने की साज़िश है। यह यदि बन्द नहीं हुआ, तो उसके प्रतिकारस्वरूप अरबों द्वारा जो कदम उठाये जायेंगे, उसके ज़िम्मेदार हम नहीं, बल्कि ज्यूधर्मीय और ब्रिटीश प्रशासन ये दोनों ही होंगे’ ऐसी गर्भित धमकी भी दी।

वेस्टर्न वॉल यह पहले से ही ज्यूधर्मियों की श्रद्धा का विषय और प्रार्थनस्थल रह चुकी है।

इसी दौरान अक्तूबर १९२८ में ग्रँड मुफ्ती ने इकतरफ़ा निर्णय लेकर वेस्टर्न वॉल के नज़दीक और ऊपर कुछ बांधकाम करा लेने की शुरुआत की। इसके लिए फिर ज्यूधर्मियों के प्रार्थना के स्थान में से ही सामानवाहक खच्चरों की यातायात शुरू हुई, जो वहीं पर मल-मूत्रविसर्जन कर देते थे। साथ ही, ज्यूधर्मीय प्रार्थना करते समय अन्य भी कुछ रुक़ावटें डालीं जाने लगीं। ज्यूधर्मियों ने इसपर ऐतराज़ जयाता, लेकिन यह वाक़या जारी ही रहा।

ज्यूधर्मियों में भी तब तक ऐसे भी कुछ गुट तैयार हुए थे, जो यह सबकुछ चुपचाप सहन करने के खिलाफ़ थे। ‘ईंट का जवाब पत्थर से देना चाहिए’ इस मत के वे थे। उनके मन में रहनेवाला ग़ुस्सा धीरे धीरे बढ़ता ही चला जा रहा था। अब – ‘इस वेस्टर्न वॉल को ज्यूधर्मियों ने निर्णायक रूप में अपने कब्ज़े मेे कर लेना चाहिए’ से लेकर ‘वहाँ तीसरे होली टेंपल का निर्माण ज्यूधर्मीय शुरू करें’ तक की कई सूचनाएँ इन गुटों के द्वारा खुलेआम की जाने लगीं। धीरे धीरे ज्यूधर्मियों की इन माँगों को प्रशासन तक पहुँचाने के लिए इन गुटों द्वारा जुलूस-प्रदर्शन आयोजित किये जाने लगे।

उसके जवाब के तौर पर स्थानिक अरब नेताओं ने भी बड़े बड़े जुलूस निकालने की और उनमें प्रक्षोभक भाषण करने की शुरुआत की। लक्षणीय बाब यह थी कि ऊपरउल्लेखित ज्यूधर्मीय गुट अपने माँगों के बारे में जनजागृति करने के लिए जो पत्रक आदि छापते थे, उन्हीं पत्रकों का इस्तेमाल ये स्थानिक अरब नेता अपने प्रक्षोभक भाषणों के समर्थन में करते थे! यह विस्फोटक परिस्थिति देखते हुए सन १९२९ की शुरुआत से ही ब्रिटीश प्रशासन ने वहाँ के पुलीस बंदोबस्त में बड़े पैमाने पर वृद्धि की। लेकिन जिसका डर था, वह हो ही गया।

१९२९ के अरब-ज्यू दंगों में ध्वस्त किया गया हेब्रॉन स्थित सिनोगॉग

आख़िरकार अगस्त १९२९ में इस दीर्घकालीन अनबन का रूपान्तरण दंगों में हो गया। विघ्नसंतोषी लोगों द्वारा फैलायी गयीं अफवाहों के कारण इन दंगों ने और भी ज़ोर पकड़ लिया। २३ से २९ अगस्त के बीच जेरुसलेम और हेब्रॉन, साफेद, तेल अवीव आदि आसपास के इलाक़ों में हुए इन दंगों में स्थानिक अरब दंगेखोरों के हाथों १३३ ज्यूधर्मीय मारे गयें और २२५ से ऊपर ज्यूधर्मीय ज़़ख्मी हो गये। अकेले हेब्रॉन में ही ६७ निहत्थे ज्यूधर्मियों को मार दिया गया। बाक़ी के ज्यूधर्मियों को ब्रिटीश पुलीस द्वारा सुरक्षित स्थल पर स्थानांतरित किया गया। हेब्रॉन में एक भी ज्यूधर्मीय नहीं है, ऐसी स्थिति हेब्रॉन के गत दो हज़ार वर्षों के इतिहास में पहली ही बार उद्भवित हुई थी।

इन दंगों में ज्यूधर्मियों के प्रार्थनास्थल, हॉस्पिटल्स इन्हें लक्ष्य बनाया गया। जेरुसलेम में तो कई ज्यूधर्मियों की मालमत्ताओं को भी लूटा गया। उसपर ज्यूधर्मियों द्वारा की गयी जवाबी कार्रवाई और ब्रिटीश पुलीस ने की कार्रवाई में ११५ से अधिक अरब दंगेखोर मारे गये और २३० से अधिक अरब दंगेखोर ज़़ख्मी हुए। सावधानी बरतने के उपाय के तौर पर १७ स्थानों की ज्यूधर्मीय बस्तियों को खाली कर दिया गया।

ब्रिटीश सरकार ने हालाँकि जाँच समिति (‘शॉ कमिशन’) नियुक्त की, लेकिन इस समिति ने सर्वंकष तहकिक़ात करने के बाद इन दंगों का दोषारोपण स्थानिक अरब दंगेखोरों पर ही रखा।

ये दंगे कुछ समय बाद शान्त हो तो गये, लेकिन इन दंगों के कारण अरब-ज्यूधर्मियों में कभी भी मिट न सकनेवाली दरार पैदा हुई!(क्रमश:)

– शुलमिथ पेणकर-निगरेकर

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