६४. १९३० के दशक की गतिविधियाँ

इसवीसन १९२९ में जेरुसलेम में हुए अरब-ज्यू दंगे, ज्यूधर्मियों की जायदादों का, सिनोगॉग्ज का प्रचंड ध्वंस करने के बाद और बड़े पैमाने पर जीवितहानि होने के बाद आगे चलकर थम गये; ऊपरी तौर पर सबकुछ शान्त हुआ प्रतीत हो रहा था, लेकिन दोनों पक्षों में झुलस रही आग शान्त नहीं हुई। इन दंगों के बाद पॅलेस्टाईन के अरबों ने ज्यूधर्मियों की मालिकियत के व्यवसायों-धंधों का बहिष्कार किया था।

मग़र फिर भी ज्यूधर्मियों का जेरुसलेम लौटना बन्द नहीं हुआ। उल्टे हर साल दुनिया के कोने कोने से जेरुसलेम लौटनेवाले ज्यूधर्मियों का आँकड़ा बढ़ता ही चला गया। सन १९३१ में पॅलेस्टाईन में हुई अधिकृत जनगणना (सेन्सस) में अरबों की संख्या ७,५९,९५२; ख्रिश्‍चनों की संख्या ९०,६०७ (इनमें कई अरब ख्रिश्‍चन थे); वहीं, ज्यूधर्मियों की संख्या १,७५,००६ थी। सन १९३१ इस एक साल में ४,०७५ ज्यूधर्मीय जेरुसलेम लौटे; वहीं, यह आँकड़ा सन १९३५ में ६१,५८४ तक पहुँच चुका था।

इस सारे घटनाक्रम में ब्रिटीश दोनों पार्टियों को खुश करने गये, लेकिन ऐसा करते समय उन्होंने दोनों पार्टियों को अपना दुश्मन बना लिया। एक तरफ़ ‘बेलफोर डिक्लरेशन’ में ब्रिटिशों द्वारा दिया गया – ‘पॅलेस्टाईन में ज्यूधर्मियों का नॅशनल होम बनाने का’ आश्‍वासन प्रत्यक्ष रूप में पूरा नहीं हो रहा है, इस कारण ज्यूधर्मीय उन्हें अपना दुश्मन मानने लगे थे; वहीं, दूसरी तरफ़ पॅलेस्टाईन में ज्यूधर्मियों की संख्या में लगातार बढ़ोतरी हो रही होने के बावजूद भी ब्रिटीश उसपर कुछ भी कार्रवाई नहीं कर रहे हैं, यह देखकर वहाँ के अरब उन्हें अपना दुश्मन मानने लगे थे।

इस प्रकार सन १९२० के दशक से पॅलेस्टाईन में एक अलग ही समीकरण तैयार हो चुका था। अरबों के शत्रु ज्यूधर्मीय और ब्रिटीश थे; वहीं, ज्यूधर्मियों के शत्रु अरब और ब्रिटीश थे। ‘शत्रु का शत्रु, वह अपना मित्र’ यह सर्वमान्य रणनीतित्मक समीकरण यहाँ पर हरगिज़ लागू नहीं हो रहा था। उस दौर में पॅलेस्टाईन में तो ज्यूविरोधी और ब्रिटीशविरोधी ऐसे कई छोटे-बड़े स्थानिक सशस्त्र अरब संगठन पैदा होने लगे थे।

जर्मनी छोड़ पॅलेस्टाईन लौटनेवाले ज्यूधर्मियों को, बदन पर पहने कपड़ों के अलावा केवल १० जर्मन मार्क्स साथ ले जाने की अनुमति थी, मग़र फिर भी उनका जोश क़ायम था।

इसी दौरान इसवीसन १९२९ से जागतिक महामंदी (‘द ग्रेट डिप्रेशन’) शुरू हो चुकी थी। पूरी दुनियाभर में ही उत्पादन ठण्ड़ा पड़ने लगा था और उद्योगधंधें बन्द पड़ने लगे थे। बेरोज़गारी, भूखमरी जैसीं समस्याएँ गंभीर रूप धारण करने लगी थीं। कई युरोपीय समाजों में वैसे भी ज्यूधर्मियों से नफ़रत की जाती ही थी, अब इस जागतिक मंदी के कारण लोगों पर आ धमकीं समस्याओं ने उस नफ़रत को बढ़ावा ही दिया। जर्मनी के पीछे पीछे अब पोलंड और रोमानिया में भी ज्यूधर्मियों के विरोध में होनेवाले आंदोलन तीव्रतापूर्वक किये जाने लगे।

इस कारण अब पॅलेस्टाईन लौटने के अलावा और कोई चारा ही न रहनेवाले ज्यूधर्मियों ने दुनिया के कोने कोने से पॅलेस्टाईन लौटना शुरू किया। लेकिन पूरी ज़िन्दगी उस उस देश में बीताकर अपनी प्रचंड मेहनत के बल पर जो कुछ जमापूँजी इकट्ठा की थी, उसे भी अपने साथ ले जाने का उनका हक़ छीना जा रहा था। जर्मनी में तो – जर्मनी छोड़कर पॅलेस्टाईन लौटनेवाले ज्यूधर्मियों को, बदन पर पहने कपड़ों के अलावा महज़ १० जर्मन मार्क्स साथ ले जाने की अनुमति थी। संक्षेप में, पॅलेस्टाईन आनेवाले ज्यूधर्मियों के पास अब केवल उनकी मेहनती वृत्ति, उद्यमशीलता और अपने अपने क्षेत्र का हुनर इसके अलावा कुछ भी नहीं था;

….और इन्हीं बातों का उपयोग कर, इन स्थलांतरित हुए ज्यूधर्मियों ने पॅलेस्टाईन का विकास करना शुरू किया। कई नये उद्योगधंधे शुरू हुए। बंजर ज़मीनों को ऊपजाऊ बनाने के प्रयोगों के बाद कुछ स्थानों पर खेती की जाने लगी। थोड़े ही समय में पॅलेस्टाईन की अच्छीख़ासी तरक्की होने लगी। जब इसवीसन १९३० के दशक में जागतिक मंदी के कारण ब्रिटन, फ्रान्स तो क्या, अमरीका की अर्थव्यवस्था भी मार खा रही थी, तब पॅलेस्टाईन की अर्थव्यवस्था अधिक से अधिक मज़बूत होती जा रही थी। इन बढ़ते उद्योगधंधों में काम करने के लिए कर्मचारियों की आवश्यकता भी बढ़ गयी थी, जिसे आसपास के अरब राष्ट्रों में से आनेवाले अरबों ने पूरा किया। (ज्यूधर्मियों की बढ़ती संख्या के कारण अस्वस्थ हुए स्थानिक अरब नेता, अरबों की संख्या में बढ़ोतरी करने के कारण आसपास के प्रान्तों के अरबों को पॅलेस्टाईन में आकर रहने के लिए बुलाते थे)। ये बाहर से आये अरब प्रायः यहाँ के ज्यूधर्मियों के उद्योगधंधों में कर्मचारी के तौर पर ही काम करते थे।

अपनी मेहनती वृत्ति, उद्यमशीलता इन गुणों का उपयोग कर, इन स्थलांतरित हुए ज्यूधर्मियों ने अन्य उद्योगधंधों के साथ ही खेती भी शुरू की।

अब अरब नेता, ज्यूधर्मियों के पॅलेस्टाईनप्रवेश के विरोध में स़ख्त भूमिका अपनाने लगे थे। उन्होंने ज्यूधर्मियों का विरोध करने के लिए पॅलेस्टाईन में जगह जगह पर अरब समितियों का गठन किया था। अब केवल ज्यूधर्मियों को ही नहीं, बल्कि ब्रिटीश प्रशासन का भी सशस्त्र विरोध करने का पुरस्कार करनेवाले स्थानिक अरब नेता आगे आ रहे थे। उन्हीं में से एक नेता इझद्दिन अल् कासम सन १९३५ में ब्रिटीश सेना के साथ हुए संघर्ष में मारा गया। उसकी मृत्यु से सन १९३६ के अरब बग़ावत की चिंगारी भड़क उठी।

केवल ज्यूधर्मियों का ही नहीं, बल्कि ब्रिटीश प्रशासन का भी सशस्त्र विरोध करने का पुरस्कार करनेवाला स्थानिक अरब नेता इझद्दिन अल् कासम

यह बग़ावत मुख्य रूप से दो चरणों में की गयी। पहला पड़ाव अप्रैल १९३६ से अक्तूबर १९३६ के बीच लड़ा गया। शुरुआती दौर में कर्मचारी और स्थानिक समितियों तक ही सीमित रहनेवाली इस बग़ावत में धीरे धीरे शहरी रईस अरब और स्थानिक अरब धार्मिक नेता भी शामिल होते गये। उस बग़ावत के सुसूत्रीकरण के लिए सर्वोच्च ‘अरब हाय कमिटी’ (अरब उच्चसमिति) का गठन किया गया। पॅलेस्टाईन का ग्रँड मुफ्ती अल्-हुसैनी यह इस उच्चस्तरीय समिति का प्रमुख था। लेकिन इसके बावजूद भी यह बग़ावत मुख्य रूप से शहरी इला़के तक ही सीमित रही; और वह हड़ताल तथा तत्सम राजकीय साधनों का उपयोग कर, काफ़ी हद तक अहिंसक मार्ग से लड़ा गया।

यह इस बग़ावत के पहले चरण को, अन्यत्र फैलने से पहले पॅलेस्टाईन के ब्रिटीश प्रशासन ने छः महीनों में ही साम-दान-भेद-दंड आदि उपायों से कुचल दिया। इनमें विभिन्न राजकीय और अन्य सहूलियतें, दमनतन्त्र और आसपास के अरब राष्ट्रों से दबाव जैसे उपायों का इस्तेमाल किया गया था। इराक के तत्कालीन सुलतान गाझी, सौदी अरेबिया के राजा अब्दुलअजीज, ट्रान्सजॉर्डन के राजा अब्दुल्ला ने बग़ावत को पीछे लेने के मामले में मध्यस्थता की।

यह बग़ावत (पहला चरण) हालाँकि अक्तूबर १९३६ में थम गये जैसा प्रतीत हुआ, ब्रिटिशों ने इस नुकसान को पूरा करने के लिए पूरे पॅलेस्टाईन में अतिरिक्त कर लागू करने के कारण ब्रिटिशों के खिलाफ़ स्थानिकों में असंतोष उबल ही रहा था। इस कारण इस बग़ावत का दूसरा चरण सन १९३७ में शुरू हुआ। लेकिन यह शहरों तक सीमित न रहते हुए, यह अरब किसानों द्वारा, ब्रिटीश प्रशासन ने अपनाये दमनतन्त्र के रवैये के विरोध में और करों में बढ़ोतरी करने के विरोध में किया गया था और उसने हिंसक मोड़ ले लिये और ब्रिटीश सेना को लक्ष्य बनाया गया।

सन १९३६ की, पॅलेस्टाईनस्थित ब्रिटिशों के खिलाफ़ की अरब बग़ावत सशस्त्र रूप में लड़ी गयी।

इस कारण खौल उठे ब्रिटिशों ने ‘अरब उच्च समिति’ के साथ साथ, पॅलेस्टाईनस्थित सभी अरब समितियों को ग़ैरक़ानूनी घोषित किया और बड़े पैमाने पर दमनतन्त्र का इस्तेमाल कर कई अरब स्थानिक नेताओं को गिरफ़्तार करना शुरू किया। अब उसे भी गिरफ़्तार किया जायेगा, यह जान चुके ग्रँड मुफ्ती अल्-हुसैनी ने भेस बदलकर पॅलेस्टाईन से पलायन किया। उसने पहले फ्रेंच-नियंत्रित लेबेनॉन में और कुछ समय बाद जर्मनी में पनाह ली।

सन १९३६ की अरब बग़ावत के दूसरे पड़ाव में ब्रिटीश सेना को लक्ष्य बनाया गया होने के कारण खौल उठे ब्रिटिशों ने कई अरब स्थानिक नेताओं को ग़िरफ़्तार करना चालू किया।

हालाँकि पूर्ण रूप में ईमर्जन्सी नहीं लागू की गयी थी, मग़र फिर भी विभिन्न स़ख्त क़ानून और अध्यादेश जारी कर ब्रिटिश प्रशासन ने दमनतन्त्र शुरू किया। ब्रिटिशों ने जारी किये स्टॅटिस्टिक्स के अनुसार, २००० से भी अधिक अरब दंगेखोर प्रत्यक्ष संघर्ष में मारे गये, १०८ लोगों को फ़ाँसी दिया गया; वहीं ९६१ लोग आतंकवादी कारनामों में मारे गये; लेकिन कुछ संशोधकों के अनुसार यह संख्या और भी ज़्यादा थी।

कुछ भी हो, लेकिन सन १९३६ की यह पॅलेस्टाईनस्थित अरबों ने की हुई बग़ावत क़ामयाब नहीं हुई और उसका अप्रत्यक्ष परिणाम, आगे चलकर इस प्रदेश को ‘इस्रायल देश’ के रूप में घोषित करने की निर्णयप्रक्रिया पर हुआ।(क्रमश:)

– शुलमिथ पेणकर-निगरेकर

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