उज्जैन

हमारे भारतवर्ष में संस्कृति, कला, इतिहास, अध्यात्म आदि कईं क्षेत्रों की श्रेष्ठ परंपरा सदियों से चली आ रही है। प्राचीन काल से हमारा भारत देश ज्ञान, विज्ञान, अध्यात्म इनमें अग्रसर रहा है। भारत की मानवीय संस्कृति के विकास में जितना योगदान विज्ञान का हे, उतना ही अध्यात्म, ज्योतिषशास्त्र, खगोलशास्त्र, गणितशास्त्र, आयुर्वेद जैसे शास्त्रों का भी है।

ujjain (3)महाकाल मन्दिर, विक्रमादित्य और भास्कराचार्य इन तीनों में क्या समानता है? इस प्रश्न का उत्तर है कि ये तीनों ही ‘उज्जैन’ इस शहर में सम्बन्धित हैं।

महाकाल मन्दिर उज्जैन शहर में क्षिप्रा नदी के किनारे पर बसा हुआ है और वह उज्जैन के भूतकाल एवं वर्तमानकाल का गवाह है। वहीं विक्रमादित्य और भास्कराचार्य ये नाम इस नगरी के वैभवशाली इतिहास के साथ जुड़े हैं।

‘उज्जयिनी’, ‘अवन्ती’, ‘अवन्तिकापुरी’ इन नामों से सुविख्यात यह नगरी आज मध्यप्रदेश के ‘उज्जैन’ शहर के रूप में जानी जाती है।

पुराणकाल में शंकर भगवान ने त्रिपुरासुर पर विजय प्राप्त की थी, इसीलिए इस स्थान को ‘उज्जयिनी’ कहते हैं, यह बात स्कंदपुराण में आवन्त्य खण्ड में कही गई है। स्कंदपुराण के अनुसार यह नगरी भिन्न-भिन्न कल्पों में कनकशृंग, कुशस्थली, अवंती, उज्जयिनी, पद्मावती, कुमुदवती, अमरावती एवं विशाला इन नामों से सुविख्यात थी।

महाभारत के अनुसार यह नगरी अवन्ती राज्य की राजधानी थी। बुद्ध काल में भी इस नगरी का अवन्ती राज्य की राजधानी के रूप में उल्लेख किया गया है।

प्राचीन काल से भारतीयों के मन में उज्जैन नगरी के बारे में पवित्र भावना रही है। इस नगरी में स्थित महाकाल यह ज्योतिर्लिंग बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक है। ऐसा कहा जाता है कि देव और दानवों ने समुद्रमन्थन करके जब अमृत की प्राप्ति की, तब उस अमृत को पाने के लिए देव-दानवों के बीच संघर्ष शुरू हुआ। उस संघर्ष में अमृत की कुछ बूँदें पृथ्वी पर गिर गईं। वे बूँदें जिन स्थानों पर गिरी थीं, वहीं पर आज के हरिद्वार, नासिक, प्रयाग और उज्जैन ये नगर बसे हुए हैं। उज्जैन यह इक्यावन शक्तिपीठों में से एक शक्तिपीठ है। यहाँ पर सति (उमाजी) की कुहनी गिरी थी, ऐसा कहा जाता है। उज्जैन यह सात मोक्षदायिनी नगरियों में से एक है।

राजा अशोक, जो आगे चलकर सम्राट अशोक बन गएँ, उन्होंने इस अवन्ती नगरी पर कुछ वर्षों तक शासन किया था। उस समय यह नगरी मौर्य साम्राज्य का एक हिस्सा थी। मौर्यों के पश्चात इस नगरी पर पहले संग और बाद में सातवाहनों की हुकूमत थी। सातवाहनों के पश्चात कुछ समय तक शक और फिर गुप्त राजवंश की यहाँ पर सत्ता थी। चौथी सदी के अन्त में सम्राट चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य की उज्जयिनी यह राजधानी थी। चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के शासनकाल में ही उज्जैन समृद्धि के शिखर पर था। कला, काव्य, नाट्यशास्त्र, खगोलशास्त्र, गणित के साथ-साथ वैदिक, बौद्ध एवं जैन धर्म की शिक्षा का भी यह नगरी एक प्रमुख केन्द्र थी।

इसवी १२३५ में दिल्ली के सुलतान ने इस नगरी पर कब्ज़ा कर लिया। अठारहवी सदी के उत्तरार्ध में मराठा सरदार शिन्देजी ने यहाँ पर अपनी राजधानी की स्थापना की। श्रीमन्त राणोजीराव शिन्देजी ने इसवी १७३१ में उज्जैन को अपनी राजधानी का दर्जा दिया। दौलतराव शिन्देजी के कार्यकाल में (१७९४-१८२७) उन्होंने ग्वाल्हेर का राजधानी के रूप में चयन किया। भारत के स्वतन्त्र होने तक उज्जैन यह ग्वाल्हेर संस्थान का एक हिस्सा था। अंग्रेजों ने मराठों से उज्जैन को जीत लिया और उसे सेंट्रल इंडिया एजन्सी के अन्तर्गत समाविष्ट किया। स्वतन्त्र भारत में उज्जैन का समावेश मध्य भारत स्टेट में किया गया। अन्त में, इसवी १९५६ में मध्य भारत स्टेट को मध्य प्रदेश राज्य में विलीन कर दिया गया और मालव प्रदेश की उज्जयिनी मध्य प्रदेश की उज्जैन नगरी बन गई।

उज्जैन शहर की एक और विशेषता यह है कि यहाँ हर बारह वर्षों के बाद कुम्भमेला सम्पन्न होता है।

बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक है, उज्जैनस्थित महाकाल मन्दिर। यह एकमात्र ऐसा ज्योतिर्लिंग है, जिसका मुख दक्षिण दिशा में है, अर्थात यह दक्षिणामुखी शिवलिंग है। इस शिवलिंग को स्वयंभू माना जाता है। इस शिवलिंग को ‘ॐकारेश्वर’ कहते हैं। यह विशाल शिवलिंग नागपरिवेष्टित है। किसी भी देवता को एक बार पुष्प अर्पण करने के बाद उन्हें पुनः ग्रहण करने पर उनका निर्माल्य बन जाता है। लेकिन यह शिवलिंग इस नियम के लिए एकमात्र अपवाद है। इस शिवलिंग को एक बार अर्पण किये गये बेल के पत्तों को पुनः धोकर उसी शिवलिंग को अर्पण किया जा सकता है। यह मन्दिर पाँच-मंज़िला है। इनमें से एक मंज़िल जमीन के नीचे भी है। इस मन्दिर की तीसरी मंज़िल पर स्थित नागचन्द्रेश्वरजी के दर्शन सिर्फ़ नागपंचमी को ही कर सकते हैं।ujjain (2)

महाकाल के प्रकटीकरण की कथा शिवपुराण में दी गई है। अवन्ती नगरी में एक योगी धार्मिक ब्राह्मण रहता था। दूषण नामक एक राक्षस इस नगरी की प्रजा को बहुत ही पीड़ा दे रहा था। उससे छुटकारा पाने के लिए नगरवासियों ने उस ब्राह्मण से राक्षस से होनेवाली पीड़ा से मुक्ति दिलाने की बिनति की। नगरवासियों की व्यथा को सुनकर उस ब्राह्मण ने उग्र तपश्चर्या की और तब जमीन दो हिस्सों में विभाजित होकर महाकाल प्रकट हुएँ। उन्होंने ब्राह्मण की इच्छा के अनुसार राक्षस का वध किया और भक्तों की प्रार्थना के अनुसार वे हमेशा के लिए वहीं विराजित हो गएँ।

शिव भगवान के साथ-साथ उनकी शक्ति हरसिद्धि का मन्दिर भी उज्जैन में है और भक्तगण उनकी आराधना करते हैं। हरसिद्धि के बारे में स्कन्दपुराण कहता है कि एक बार कैलास पर्बत पर शिव-पार्वतीजी चौसर खेल रहे थें। उसी समय चण्ड और प्रचण्ड इन दो राक्षसों ने उनकी क्रीडा में विघ्न उत्पन्न करके नन्दी को भी घायल कर दिया। तब शिवजी ने उन राक्षसों का नाश करने के लिए देवी उमाजी से प्रार्थना की और उमाजी ने उन राक्षसों का संहार किया। इस तरह हर के कार्य को सिद्ध करनेवाली देवी उमाजी की हरसिद्धि के रूप में अर्चना की जाती है।

इसी उज्जैन नगरी में ऋषि सान्दीपनीजी का आश्रम था और कृष्ण, बलराम एवं सुदामा इनका अध्ययन के लिए यहीं पर निवास था।

इस भारतवर्ष को जिस तरह एक वैभवशाली आध्यात्मिक इतिहास है, उसी तरह एक गौरवशाली वैज्ञानिक इतिहास भी है। भारत में आध्यात्मिक विकास एवं प्रगति के साथ-साथ विज्ञान के क्षेत्र में भी विकास एवं प्रगति हुई थी। खगोलशास्त्र और अंकशास्त्र यह भारत की देन है।

चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के दरबार में नौं विद्वान थें, जिन्हें ‘नवरत्न’ कहा जाता था। धन्वन्तरि, क्षपणक, शंकू, घटखर्पर, कालिदास, अमरसिंह, वेतालभट्ट, वराहमिहिर एवं वररुचि ये ही वे नवरत्न थें।

छठी और सातवी सदी में उज्जैन यह खगोल एवं गणित इन शास्त्रों के अनुसन्धान का मुख्य केन्द्र था।

ujjainवराहमिहिर, ब्रह्मगुप्त और भास्कराचार्य ये तीन खगोल एवं गणित इन शास्त्रों के विशेषज्ञ इसी उज्जैन नगरी से सम्बन्धित थें।

वराहमिहिर ने गणित, खगोल और जातक इनसे सम्बन्धित ग्रन्थों की रचना की थी। उनके द्वारा रचित ग्रन्थों में से ‘बृहत्संहिता’ यह ग्रन्थ ज्ञान का भाण्डार था। खगोल से सम्बन्धित प्रश्नों की गुत्थी सुलझाने के लिए गणित का उपयोग करनेवाले सबसे पहले विशेषज्ञ थें, ब्रह्मगुप्त। वे उज्जैनस्थित वेधशाला के प्रमुख थें और गणित एवं खगोलशास्त्र से सम्बन्धित चार ग्रन्थों की रचना उन्होंने की थी।

‘लीलावती’ इस ग्रन्थ के कर्ता के रूप में ‘भास्कराचार्य’ सुविख्यात हैं। इनके कार्यकाल में अर्थात्‌ १२ वी सदी में गणित एवं खगोलशास्त्र उत्कर्ष की चरमसीमा पर थें।

हमारी पृथ्वी की मूल देशान्तर रेखा ग्रिनिच में है। उज्जैन को भारत का ग्रिनिच कहा जाता है, क्योंकि यह शहर भूमि की मध्यरेखा अर्थात मुख्य देशान्तर रेखा पर स्थित है।

इसी उज्जैन शहर में महाराजा जयसिंहजी (इसवी १६८६-१७४३) ने एक वेधशाला का निर्माण किया। उन्होंने इस तरह की कुल पाँच वेधशालाओं का निर्माण किया। मौसम एवं ऋतुचक्र की जानकारी के लिए उपयोगी विभिन्न उपकरणों को यहाँ पर रखा गया है।

उज्जैन का वर्णन करते हुए अवश्य स्मरण होता है, कालिदासजी का। ‘अपनी प्रिय पत्नी के विरह से व्याकुल यक्ष मेघ को ही दूत बनाकर उसे अपनी पत्नी के पास भेजता है’ इस विषय पर आधारित कालिदास की रचना ‘मेघदूत’ में उज्जयिनी का वर्णन भी किया है। कवि और नाटककार के रूप में सुविख्यात, मेघदूत, कुमारसंभव, रघुवंश, मालविकाग्निमित्र, विक्रमोर्वशीय, शाकुंतल एवं ऋतुसंहार इन रचनाओं के रचयिता कालिदासजी इसी उज्जैन नगरी के निवासी थें, ऐसा विद्वानों का मानना है। साथ ही, भवभूति, भारकि, भर्तृहरि आदि कवि एवं नाटककारों का निवास भी इसी नगरी में था, यह कुछ विद्वानों का मत है।

कला, नाट्य, अध्यात्म, गणित एवं खगोलशास्त्रज्ञ इनका आश्रयस्थान होनेवाले उज्जैन शहर का यह था, गौरवशाली इतिहास। कईं सदियाँ बीत गईं, इतिहास के सुराग भी मिट गएँ, लेकिन जिस क्षिप्रा नदी के तट पर यह उज्जैन बसा हुआ है, वह क्षिप्रा इस इतिहास की गवाह है, यह तो निश्चित ही सत्य है।

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