हंपी भाग -२

हंपी में प्रवेश करते ही विजयनगर साम्राज्य का ३०० सालों का इतिहास मानो हमारे सामने साकार हो जाता है। विजयनगर साम्राज्य के वैभव की साक्षी रह चुकीं कई वास्तुएँ हंपी और उसके आसपास विद्यमान हैं। इन वास्तुओं में मन्दिरों के साथ साथ महल, तालाब ऐसी वास्तुओं के साथ ही हाथियों के रहने के स्थान जैसीं विशेष वास्तुएँ भी हैं। आज हंपी इन्हीं वास्तुओं के कारण विख्यात है।

विजयनगर साम्राज्य

ये वास्तुएँ विजयनगर साम्राज्य के वैभव और सुन्दरता की गवाह हैं ही, साथ ही बेहतरीन वास्तुकला के बेमिसाल नमूने भी हैं। इतिहास और शिल्पकला का बेजोड़ मिलाप होनेवालीं इन वास्तुओं की रक्षा के लिए युनेस्को ने हंपीस्थित कई वास्तुओं को वर्ल्ड हेरिटेज का दर्जा बहाल किया है।

हंपी को राजधानी का दर्जा मिलने से पहले तुंगभद्रा के उत्तरी तट पर बसा हुआ ‘आनेगुंदी’ यह विजयनगर की राजधानी थी। लेकिन वह कालखण्ड विदेशियों तथा स्वकीयों के आक्रमण का होने के कारण आनेगुंदी यह भौगोलिक दृष्टि से सुरक्षित नहीं था। उसकी अपेक्षा तुंगभद्रा के दक्षिणी तट पर बसा हुआ एक स्थान भौगोलिक दृष्टि से अत्यधिक सुरक्षित था। हेमकूट, मातंग और मालयवन्त इन पर्वतों के कारण तथा एक ओर से बहती हुई तुंगभद्रा के कारण इस स्थान को कुदरती सुरक्षा प्राप्त थी और यह स्थान था हंपी, जो विजयनगर के साम्राज्य के अन्त तक उसकी राजधानी बना रहा।

आज हंपी तक पहुँचने के लिए सबसे ऩजदीकी शहर है – होस्पेट, जहाँ से हंपी क़रीबन १३-१४ कि.मी. की दूरी पर है। आजकल कई बार हंपी का उल्लेख ‘रुईन्स ऑफ़ हंपी’ इस प्रकार किया जाता है। संक्षेप में, हंपी यानि कि वैभवशाली गतसाम्राज्य की तबाही का मंजर, इस प्रकार हंपी का उल्लेख किया जाता है। लेकिन जिनके मन में इतिहास और शिल्पकला के प्रति प्रेम है, उनके लिए यह ‘रुईन्ड सिटी’ है, आज नामशेष हो चुके विजयनगर साम्राज्य की स्मृति। इस स्मृति को आँखों में ही समाकर मन के किसी कोने में जतन करना चाहिए, क्योंकि यहाँ के हर एक पत्थर को कुछ कहना है। चौंक गये ना? डरिये मत, यहाँ के पत्थर बात-वात नहीं करते। यहाँ की वास्तुओं के निर्माण में काम आये हर एक पत्थर के पीछे एक इतिहास है। जब हम यहाँ की किसी वास्तु को देखते हैं, उसके बारे में जानकारी लेते हैं, तब उस वास्तु के बेज़ुबान पत्थर उस वास्तु का वैभवशाली इतिहास हमारी आँखों के सामने मानो जीवित करते हैं। अर्थात् यह अपने अपने अनुभव की बात है।
दरअसल दक्षिण में विजयनगर की सत्ता के दौरान हंपी ने मानो वैभव की बुलंदियों को छू लिया था। आज इतना अरसा बीत जाने के बाद भी हंपी इतिहास अन्वेषकों, शिल्पप्रेमियों तथा लेखकों को उसके बारे में लिखने के लिए उद्युक्त कर रही है, तो वैभव के शिखर पर होनेवाली हंपी ने ना जाने कितने लोगों को उसका वर्णन करने के लिए उद्युक्त किया होगा!

कृष्णदेवराय नामक राजा का शासनकाल हंपी का वैभवकाल था। उस समय हंपी कला, शिल्प, संगीत का आश्रयस्थान होने के साथ साथ व्यापार का केन्द्र भी थी। यहीं से रत्नों और बेशक़ीमती जवाहरों का व्यापार चलता था। इस व्यापार के कारण तथा इस शहर की ख्याति के कारण यहाँ विदेशी व्यापारी तथा सैलानियों का आना-जाना लगा रहता था। इन्हीं में से कइयों ने उस समय की हंपी का वर्णन किया हुआ है, जिनमें निकोलो कोन्टाय, डोमिंगो पीस आदि का समावेश होता है।

आइए, मिसाल के तौर पर इन्होंने किये हुए हंपी तथा विजयनगर के वर्णन को हम देखते हैं -विजयनगर जैसा सुन्दर शहर शायद ही कहीं और देखने को मिले। सुरक्षा की दृष्टि से इसकी रचना सर्वोत्तम है। इस शहर के चहुँ ओर एक के बाहर एक ऐसी सात चहारदीवारें हैं। पहली चहारदीवारी के बाहर मनुष्य की ऊँचाई जितने और जमीन में आधे तक गाड़े गये पत्थर हैं। संक्षेप में, कोई भी आक्रमक इस रचना को आसानी से पार नहीं कर सकता। बाहर की तीन चहारदीवारों के बीच ख़ेती, बागान और घर हैं, लेकिन अधिकतर आबादी भीतर की ओर बसती है। इनमें सबसे महत्त्वपूर्ण वास्तु है, राजमहल और उसके सामने चार बा़जार हैं। सम्पूर्ण शहर में अत्यधिक कड़ी सुरक्षा व्यवस्था है।

‘फ़िग्यूरेडो’ नामक एक प्रवासी राजमहल का कुछ इस प्रकार वर्णन करता है – इस महल के दालान दो मंजिला हैं। नीचली मंजिल पर जाने के लिए दो सीढ़ियाँ उतरनी पड़ती हैं। गिलट किये हुए ताँबे के पत्रे से सीढ़ियाँ आच्छादित हैं। महल में जमीन से लेकर छत तक सोने का पत्रा लगाया हुआ है। महल के छत पर वेत की चौकोर जाली लगी हुई है। उसमें हीरे, मोती, माणिक जैसी मूल्यवान ची़जें जड़ी हुई हैं और ऊपर से सोने के दो गोलक टँगे हुए हैं।

इस पूरे वर्णन से हमारी समझ में आ सकता है कि हंपी और विजयनगर का उल्लेख ‘वैभवशाली साम्राज्य’ इस प्रकार क्यों किया जाता हैं। जिस राजमहल के एक दालान में इतनी बड़ी मात्रा में सोना, मोती, हिरे, माणिक आदि मूल्यवान ची़जों का इस्तेमाल किया गया है और एक विदेशी सैलानी भी उसे आसानी से देख सकता है, ऐसे साम्राज्य की सम्पन्नता का क्या कहना!

ख़ैर! हंपी का वर्णन देखते हुए बीच में ही हमने वहाँ के राजमहल की जानकारी ली। अब फ़िर एक बार इन सैलानियों द्वारा किये गये हंपी के वर्णन को देखते हैं – यहाँ से मोती, हीरे, माणिक, विभिन्न प्रकार के कपड़े का व्यापार होता है। यहाँ के बा़जारों में कोई भी ची़ज आसानी से मिल जाती है। हर शाम रास्तों पर लगनेवाले बा़जारों में जानवरों से लेकर फ़ल-फ़ूलों तक किसी भी जरूरी ची़ज की खरीदारी लोग कर सकते हें। यहाँ पर गुलाब के फ़ूल का़फ़ी बड़ी मात्रा में मिलते हैं और यहाँ के लोगों को वे पसन्द भी हैं। इस शहर में अनाज से लेकर सभी जरूरत की ची़जों का विपुल मात्रा में संग्रह किया हुआ है।

सारांश, उस जमाने में हंपी यह एक अत्यधिक खुशहाल, सम्पन्न शहर होने के साथ साथ ही अप्रतिम कलासौंदर्य का ख़जाना भी था।

विदेशी सैलानी इस शहर की सम्पन्नता के साथ साथ वहाँ के अप्रतिम वास्तुओं का वर्णन भी करते हैं, जिनमें प्रमुख हैं, मंदिर। उस जमाने में ये मन्दिर अच्छी स्थिति में थे और वहाँ नित्य पूजन-अर्चन भी होता था। लेकिन आज हंपी के मंदिरों में इस प्रकार पूजन-अर्चन होता नहीं है। इसका पहला कारण है – समय का असर। १४ वी सदी से लेकर १६ वी सदी तक यानि की लगभग ३०० साल विद्यमान इस साम्राज्य में भिन्न भिन्न राजाओं ने उनके शासनकाल में कई मंदिर बनवाये। उनमें से कुछ मंदिरों के निर्माण में हंपी में पाये जानेवाले विशिष्ट पत्थर का इस्तेमाल किया गया, तो कुछ मंदिरों के लिए बाहर से कुछ विशिष्ट स्थानों से वहाँ की विशेषता होनेवाले पत्थर मँगवाये गये। इसी कारण हंपीस्थित वास्तुएँ पत्थर से ही निर्मित थीं। इसी कारण यहाँ के हर एक पत्थर को अपना एक इतिहास है। इतने अरसे में धूप, बारिश, ते़ज हवाएँ और सर्दी इनके निरन्तर परिणाम के कारण इनमें से कई मंदिर आज अच्छी स्थिति में नहीं हैं। लेकिन विरूपाक्ष मंदिर जैसे कुछ गिनेचुने मंदिरों की स्थिति आज भी का़फ़ी अच्छी है। दूसरी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि आज इनमें से कई मंदिरों में उपास्य देवता की मूर्ति भी नहीं हैं। इसका कारण समय के असर के साथ साथ विजयनगर के साम्राज्य पर हुआ आक्रमण यह भी है। क्योंकि विजयनगर की पराजय के बाद इस नगरी के वैभव को बुरी तरह लूटा गया, जिसमें से ये मूर्तियाँ भी नहीं छूटीं। विजयनगर की पराजय के बाद आक्रमक कई महीनों तक इस शहर को लूटते रहे।

इससे हम समझ सकते हैं कि किसी जमाने में यह विजयनगर की राजधानी – हंपी सम्पन्न तथा धार्मिक नगरी हुआ करती थी।

‘बार्बोसा’ नामक एक सैलानी यहाँ के राजाओं का वर्णन करते हुए लिखता है कि यहाँ के राजाओं के मन में अन्य धर्मों के प्रति भी अत्यन्त आदर था।

यहाँ की और एक विशेषता है – उस जमाने की जलआपूर्ति व्यवस्था। पहाड़ों से आनेवाला पानी शहर के तालाबों तक लाने की उत्तम व्यवस्था यहाँ थी। हाल ही में हंपी में किये गये उत्खनन में एक विशेष तालाब सामने आया है। इस विशाल तालाब में प्रवेश करने के लिए चहुँ ओर से विशेष रूप से सीढ़ियों का निर्माण किया गया था। इस प्रकार की रचना होनेवाले तालाब मुख्यतः राजस्थान तथा गुजरात में पाये जाते हैं। इन तालाबों या कूओं को ‘वाव’ कहा जाता है।

विजयनगर का साम्राज्य जब वैभव के शिखर पर था, उस जमाने की हंपी की पहचान जिस तरह उस समय वहाँ आये हुए सैलानियों द्वारा लिखे गये वर्णन के द्वारा होती है, उसी तरह आज वहाँ पर चल रहे उत्खनन से प्राप्त वास्तुओं के द्वारा भी उस जमाने की हंपी हमारे सामने साकार होती है। इन वास्तुओं के निर्माण में जिनका महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है, उन कृष्णदेवराय नामक सम्राट का हंपी के साथ का़फ़ी गहरा रिश्ता है; दरअसल विजयनगर = कृष्णदेवराय ऐसा उस समय समीकरण ही बन चुका था। इसी समीकरण को सुलझाते हैं, अगले भाग में।

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