बीकानेर भाग – २

थर के रेगिस्तान के इस शहर का जिस तरह ऊँट के साथ गहरा रिश्ता है; उसी तरह खानपानसंबंधित अन्य दो बातों के साथ भी इस शहर का काफ़ी गहरा संबंध है। बीकानेर कहते ही याद आते हैं, बीकानेरी पापड और बीकानेरी भुजिया।

१५वी सदी में स्थापित हुए बीकानेर में, भारत के आज़ाद हो जाने तक स्थानीय राजाओं का शासन था। तो फिर इस शहर में इन शासकों के राजमहलों, बड़ी बड़ी हवेलियों तथा क़ीलों का होना यह स्वाभाविक ही है। आइए, अब हम सैर करते हैं, इन राजमहलों और हवेलियों की, जो उस ज़माने से बीकानेर की ख़ूबसूरती और शान हैं।

दर असल बीकानेर के संस्थापक बीका ने इस शहर की स्थापना करने के बाद यहाँ पर ‘राती घाटी’ इस क़ीले का निर्माण किया था, इस इतिहास को तो हम पिछले लेख में पढ़ ही चुके हैं।

बीकानेर

आगे चलकर बीकानेर के शासकों ने बीकानेर को विकसित करने के साथ साथ यहाँ पर क़ीलों तथा महलों का निर्माण भी किया।

इनमें सबसे पहला नाम आता है, ‘जुनागढ़ क़ीले’ का। कहा जाता है कि विदेशी शत्रु कभी भी इस क़ीले को जीत नहीं पाये। भव्य, विशाल और सुंदर इन तीन शब्दों में इसका वर्णन किया जा सकता है। कुछ लोगों की राय में दुश्मन सिर्फ़ एक दिन के लिए ही इस क़ीले पर कब्ज़ा करने में कामयाब हुआ था।

दर असल राजस्थान कहते ही आँखों के सामने आ जाते हैं, सफ़ेद संगेमर्मर से बनाये गये राजमहल। लेकिन बीकानेर के इस क़ीले में हमें लाल और सफ़ेद ये दोनों रंग दिखायी देते हैं। लाल रंग के वालुकाश्म पत्थर और सफ़ेद संगेमर्मर इनका अनोखा मिलाप यहाँ पर है।

साधारण रूप से क़ोई भी कीला किसी पहाड़ पर बनाया गया होगा, ऐसा हम सोचते हैं। लेकिन जुनागढ़ का क़ीला इसके लिए अपवाद है। इसे किसी पहाड़ी पर नहीं, बल्कि समतल ज़मीन पर बनाया गया है।

लगभग एक हज़ार यार्ड के विशाल भूभाग पर बसे इस क़ीले के चारों ओर खंदक भी है। इस क़ीले में बीकानेर के विभिन्न शासकों द्वारा बनाये गये विभिन्न महल हैं। इस क़ीले का निर्माण १६वीं सदी में बीकानेर के शासक राजा रायसिंह ने सर्वप्रथम किया। यह कार्य लगभग पाँच वर्ष तक चल रहा था।

यह क़ीला पहले ‘चिंतामणि’ इस नाम से जाना जाता था। आगे चलकर २०वीं सदी के पूर्वार्ध में ‘लालगढ़’ पॅलेस के निर्माण के बाद बीकानेर के शासक इस पॅलेस में रहने लगे। तब इस चिंतामणि क़ीले को जुना क़ीला कहा जाने लगा।

राजा रायसिंह ने उनके भारतभ्रमण के दौरान देखी हुई भारत की कई ख़ूबसूरत वास्तुओं तथा क़ीलों से प्रेरित होकर इस क़ीले के निर्माण में विभिन्न शैलियों का उपयोग किया।

क़ीले में प्रवेश करने के लिए जो दरवाज़ें हैं, उन्हें ‘पोल’ कहा जाता है। क़ीले में कुल ३७ महल और कई मन्दिर हैं।

क़ीले के प्रवेशद्वारों के नाम हैं- करण पोल, सूरज पोल, दौलत पोल, चाँद पोल और ङ्गतेह पोल। पूर्वाभिमुख प्रवेशद्वार में से उगते हुए सूरज के दर्शन होते हैं और इसीलिए उसे सूरज पोल कहा जाता हैं।

इस क़ीले में विभिन्न शासकों ने उनके अपने शासनकाल में महल बनवाये। उनके नाम हैं- करण महल, चांद्र महल, फूल महल, रंग महल, विजय महल, गंगा निवास आदि।

हर एक महल की भीतरी सजावट अपने आप में ख़ास है। महलों की भीतरी सजावट में उस समय शीशों तथा आइनों का इस्तेमाल किया जाता था और कुछ महलों की दीवारों पर पेंटिग्ज भी बनाये जाते थे।

करण महल का निर्माण विदेशियों पर प्राप्त की हुई विजय के प्रतीक के रूप में किया गया; वहीं अनूप महल में स्वर्ण के रंग में रंगे पत्र भी हैं। बादल महल नाम की वास्तु अपने नाम को सार्थक करती है। राजस्थान के रेगिस्तान में आकाश में बादलों का जमावड़ा होकर धुवाँधार बारिश होना इस घटना के प्रति काफ़ी आकर्षण रहना स्वाभाविक ही है; क्योंकि ऐसा तो यहाँ पर कभीकभार ही होता होगा। शायद इसीलिए यहाँ के राजाओं ने बादल महल की दीवारों पर काले घने बादल चित्रित किये होंगे।

इस क़ीले के प्रत्येक महल को देखते हुए उस महल का निर्माण करनेवाले शासक से भी उनकी प्रतिमा द्वारा हमारा परिचय होता है। बीकानेर के शासकों की कई चीज़ों को यहाँ के म्युझियम में जतन किया गया है।

बीकानेर

जुनागढ़ के क़ीले को देखकर अब हम ‘लालगढ़ पॅलेस’ की ओर चलते हैं।

‘लालगढ़’ यह इसका नाम ही इसके रंग से हमें परिचित कराता है। लाल वालुकाश्मों से बने इस महल का निर्माणकार्य शुरू हुआ, २०वीं सदी के प्रारम्भ में यानि कि १९०२ में। महाराजा गंगासिंहजी ने उनके पिता महाराज लालसिंहजी की स्मृति में इसे बनवाया। सर स्विंटन जेकब नामक वास्तुविशारद ने इसका डिज़ाइन बनाया।

बीकानेर के शासकों से संबंधित वस्तुएँ, उनकी प्रतिमाएँ और साथ ही कुछ ख़ास पेंटिग्ज भी यहाँ की म्युज़ियम में रखे गये हैं। इस लालगढ़ पॅलेस की अपनी एक ख़ास लायब्ररी है और यह दुनिया की सबसे बड़ी लायब्ररियों में से चौथें नंबर की लायब्ररी मानी जाती है। इस लायब्ररी में कई मूल दुर्लभ संस्कृत हस्तलिखितों का संग्रह किया गया है और उन हस्तलिखितों को धातुओं (मेटल्स) की पट्टियों पर लिखा गया है, ऐसा कहा जाता है। इस लालगढ़ पॅलेस के कुछ हिस्से का रूपांतरण हेरिटेज हॉटेल में किया गया है।

आज का बीकानेर बसा और विकसित हुआ है, जुनागढ़ क़ीले के ईर्दगिर्द। जुनागढ़ क़ीले को बीचों बीच रखकर ही इस शहर का विस्तार होता रहा।

दर असल थर की मरूभूमि में बसे इस शहर में क्या कहीं हरियाली दिखायी भी देती होगी? यह सवाल आप के मन में उठना स्वाभाविक ही है। नहर द्वारा जल की आपूर्ति किये जाने तक इस प्रदेश को जल की क़िल्लत की समस्या का सामना करना पड़ रहा था। बारिश का अल्प प्रमाण यह इसकी वजह तो थी ही और साथ ही गरमी के कारण बारिश का पानी जल्द ही सूख जाता था। लेकिन यहाँ पर नहर बनाये जाने के बाद यह समस्या काफ़ी हद तक हल हुई। बीकानेर और उसके आसपास के इलाक़े में गेहूँ, कपास, बाजरा, राई आदि की खेती होने लगी।

बीकानेर में हस्तकौशल (हँडिक्रा़फ़्ट) की कई चीजें बनायी जाती हैं। विभिन्न प्रकार के कार्पेटस्, सिरॅमिक से बनीं चीजें, यह तो यहाँ की ख़ासियत है ही और साथ ही ‘उस्त आर्ट’ नामक बीकानेर की विशेष कला भी काफ़ी मशहूर है।

जिस ऊँट के सहारे हम बीकानेर की सैर कर रहे हैं, उन ऊँटों का सबसे बड़ा ब्रीडींग फार्म भी यहाँ पर ही है। यहाँ ऊँटों की नयी प्रजातियों का निर्माण किया जाता है और ऊँटों के वंश को आगे बढ़ाया जाता है। ऊँटों का उपयोग भले ही यहाँ पर पहले के ज़माने जितना आज के ज़माने में न भी हो रहा हों, मगर आज भी यहाँ पर ऊँटों को काम में लाया जाता है। बोझ उठाने से लेकर लोगों को सैर करवाने तक के सभी कामों में इन्हें उपयोग में लाया जाता है। बीकानेर के ऊँटों की नस्ल को सबसे बेहतरीन माना जाता है। इन ऊँटों के करतब हम यहाँ के ‘कॅमल फेस्टिव्हल’ में देख सकते हैं।

बीकानेर आये और देशलोक न देखकर लौट गये, तो एक अजूबे को देखना बाकी रह जायेगा। अब आप सोच रहे होंगे कि यह देशनोक क्या है? बीकानेर से ३०-३२ कि.मी. की दूरी पर बसा एक गाँव है, देशनोक।

‘चूहा’ यह शब्द कहते ही हममें से बहुत सारे लोग नाक भौं सिकोड़ लेते हैं। चूहों का मुक्त संचार, चूहों के झुण्ड और जहाँ देखें वहाँ चूहें ही चूहें, ऐसी स्थिति हमें दिखायी देती है, देशनोक स्थित करणीमाता के मन्दिर में।

करणीमाता के अवतरण के बारे में कई कहानियाँ प्रचलित हैं। उनमें से एक कहानी के अनुसार देवीमाता ने मेहोजी नाम के किसी चारण के घर मानवी रूप में जन्म लिया था। इस देशनोक गाँव की स्थापना उन्होंने ही की है ऐसा भी कहा जाता है। राव बीका को इन्हीं के वरदान के कारण राज्यपद की प्राप्ति हुई और करणीमाता बीकानेर के राजवंश की कुलदेवता बन गयी।

देशनोक के इस मन्दिर में स्थित देवीमाता की चतुर्भुज मूर्ति पत्थर से बनायी गयी है। साल की दोनों नवरात्रि में यहाँ पर उत्सवों का आयोजन किया जाता है। लेकिन इस मन्दिर में चूहों का मुक्त संचार रहने के कारण दर्शनार्थियों को ध्यानपूर्वक चलना पड़ता है। यहाँ पर यदि किसी को सफ़ेद चूहा दिखायी दें, तो वह शुभ माना जाता है।

ऊँट के साथ सफ़र की शुरुआत कर हम चूहे जैसे छोटे से प्राणि तक पहुँच गये। कितना बड़ा ऊँट और चूहा कितना छोटा! लेकिन इस विरोधाभास को हम भारत में ही देख सकते हैं। क्योंकि हमारी भारतीय संस्कृति ने चाहे वह इन्सान हो या जानवर, हर एक को उसका एक ख़ास स्थान दिया ही है।

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