श्रीसाईसच्चरित : अध्याय-३ : भाग-८०

शिरडी में आनेवाला रोहिला सचमुच निरपेक्ष प्रेम से आया था, बाबा के गुणों से मोहित होकर वह आया था और उसने स्वयं को बाबा के चरणों पर अर्पित कर दिया था।

शिरडी में आया एक रोहिला। वह बाबा के गुणों से मोहित हो गया।
वहीं पर काफ़ी दिनों तक रहा। प्रेम लुटाता रहा बाबा के चरणों पर॥
(शिरडीसी आला एक रोहिला। तोही बाबाचें गुणांसी मोहिला। तेथेंचि बहुत दिन राहिला। प्रेमें वाहिला बाबांसी॥)

मेरा मन अर्थात यह रोहिला जब साईनाथ से कुछ भी न माँगने के लिए अर्थात साईसे भक्त साई को ही माँगने के लिए जब भक्ति करने लगता है। उस वक्त सहज ही उस मन के पास कामनारूपी, मोहरूपी, लोभरूपी रोहिली रह ही नहीं सकती है। हमारे मन के साथ हमेशा रहनेवाली मन की पत्नी अर्थात यह लोभवृत्ति, मोहवृत्ति कहलानेवाली रोहिले की पत्नी रोहिली।

जब मन सकाम भक्ति न करके, कुछ प्राप्त करने की इच्छा से भक्ति करने से नकार देकर निरपेक्ष प्रेम से भक्ति करने लगता है उस वक्त मन की यह सहचरी कहलानेवाली रोहिली उसके पास रह ही नहीं सकती है और वह इस मनरूपी रोहिले को छोड़कर चली जाती है।

रोहिला = फलाशा का पूर्णविराम हो चुका मन।
ऐसे रोहिले के पास न रह सकने वाली रोहिली = फलाशा।

और फिर यह फलाशा पुन: इस प्रगति करनेवाले रोहिले एवं श्रीसाईनाथ के बीच आने की कोशिश बारंबार करते रहती है। जब भक्त की निरपेक्ष प्रेमसे, वेगपूर्ण प्रगति होने लगती है उस वक्त यह रोहिली पुन: घुसने की कोशिश करती है। अर्थात प्रगति पथ पर होनेवाले एवं निरपेक्ष भक्ति करनेवाले भक्त के मन में यह फलाशा पुन: घुसने की कोशिश करती है। मैंने इतनी भक्ति की तो उसके ‘बदले’ में मुझे यह अमुक-अमुक फल मिलना चाहिए। मैंने साईनाथ की भक्ति की, इतने समय तक मैंने बिना किसी अपेक्षा के ईश्‍वर का गुणसंकीर्तन किया, फिर अब बाबा को मुझे ‘मेरी इच्छानुसार’ जो माँगू वह देना ही चाहिए, इतना तो मुझे मिलना ही चाहिए।

भक्तिमार्ग पर चलते समय निरपेक्ष भाव रखकर जब हम चलने लगते हैं इस दौरान कुछ समय पश्‍चात इसीप्रकार के विचार पुन: मन में घुसने की कोशिश करने लगते हैं। मैंने इतनी भक्ति की, आज इतने समय के अन्तर्गत मैंने बाबा से कुछ भी नहीं माँगा, भक्तिसेवा में सदैव सब कुछ झोकता रहा फिर अब तो कम से कम इतना मुझे बाबा से प्राप्त करने में कोई हर्ज नहीं, इससे भी आगे बढ़कर फलाशा मन से कहती है कि यह प्राप्त करना तो तुम्हारा अधिकार ही है, इस प्रकार का विचार बारंबार जब आने लगता है तो यह जान लेना चाहिए कि यह रोहिली पुन: घर में घुसने की कोशिश कर रही है। यह मेरे और मेरे परमात्मा के बीच आने की कोशिश कर रही है। यहीं पर इसी बिंदू पर ही रोहिले कथा हमें मार्गदर्शन करती है। यदि इस विचार के आते ही हमने निरपेक्ष भक्तिमार्ग के प्रवास को रोक दिया अर्थात रोहिले ने गुणसंकीर्तन करना रोक दिया है। तो अब यह रोहिली पुन: घुसनेही वाली है। हमारे प्रवास में इस रोहिली की तकलीफ पुन: पुन: होने पाये, अर्थात इस फलाशा का झंझट पुन: मेरे पिछे न लगने पाये, यदि हम ऐसा चाहते हैं तो रोहिले को गुणसंकीर्तन शुरु ही रखना होगा। उसे रूकना नहीं है अर्थात मन में फलाशा का विचार आते ही, मिथ्या कल्पनारूपी रोहिली के घुसने की कोशिश करते ही और भी अधिक जोर-शोर के साथ गुणसंकीर्तन करना चाहिए।

मेरे मन में यह विचार कहाँ से आया, क्यों आया इन सभी झमेलों में पड़ने की अपेक्षा मुझे अपना गुणसंकीर्तन और भी अधिक जोरदार रूप में शुरु रखना चाहिए। पुन: पुन: मेरी राह में घुसना यह तो रोहिली का कारस्थान होगा ही, इसीलिए मेरे द्वारा भगा दी जानेवाली रोहिली पुन: कैसे आयी इन व्यर्थ की बातों में समय बर्बाद नहीं करना चाहिए। बल्कि हमें अपने साईनाथ का गुणसंकीर्तन शुरु ही रखना चाहिए।

इस रोहिले की पत्नी जबरी है। उसके साथ वह पल भी रहने नहीं पाती॥
(या रोहिल्याची बाईल घरघुशी। नांदूं न घटे तयापाशीं॥)

यह फलाशा ऐसे ही जबरी है। जबरीपना करना यह उसका स्वभाव ही है। निरपेक्ष प्रेम करनेवाले मन के सातह वह रह ही नहीं सकती है। ईश्‍वर का गुणसंकीर्तन मदहोश होकर करनेवाले मन के साथ वह रह ही नहीं सकती है। इस बा का ध्यान हमें सदैव रखना चाहिए और वह पुन: न आने पाये इसके लिए हमेशा गुणसंकीर्तन करते ही रहना चाहिए।

इस बेशर्म के पास कोई लिहाज नहीं है। लाजलज्जा सब छोड़ दी है।
बाहर निकाल देने पर भी। जबरन घर में घुसी जाती है॥
(नाही रांडेला पडदापोशी। लाजलज्जा लाविली वेशीं। हांकूनि बाहेर घालितां तिजसी। बलात्कारेंसी घर घुसे॥)

फलाशा को मैंने भगा दिया, निर्धारानुसार निरपेक्ष प्रेमपूर्वक साईनाथ का गुणसंकीर्तन शुरु कर दिया फिर भी वह पुन: आयी ही कैसे? इस प्रश्‍न का उत्तर हमें ऊपर्युक्त पंक्तियों द्वारा प्राप्त होता है। जिसे हकाल दिया, फिर भी वह जबरन पुन: पुन: घर में घुसने की कोशिश में लगी रहती है। ऐसी है यह फलाशा नामक राक्षसी मन में घुसने की ताक में है। हमारे मन में भी यह इच्छा उत्पन्न होती है कि कुछ तो प्राप्त हो। परन्तु यहाँ पर हमें घबराने की अथवा कुछ तो गलत हुआ है, ऐसा विचार करके मन को दु:खी करने की कोई जरूरत नहीं। क्योंकि हम सामान्य मनुष्य हैं, हम कोई संतपुरुष नहीं है, यह रोहिली पुन: पुन: हमारे मन में घुसने की कोशिश करेगी ही। हमें क्या करना चाहिए? तो हमें बगैर डगमगाये, रोहिली की ओर गलती से भी न देखते हुए श्रीसाईनाथ का गुणसंकीर्तन करते ही रहना है।

श्रीसाईनाथ के गुणसंकीर्तन का यही एक सबसे बड़ा प्रभाव है कि यह गुणसंकीर्तन ही इस फलाशा को पूर्णविराम देता है। फलाशा को पूर्णविराम देने के लिए इससे भी अधिक आसान मार्ग और क्या हो सकता है? इसीलिए बाबा कहते हैं कि रोहिली घुसना चाहती है, तो उसे चाहने दो, कोई बात नहीं, परन्तु इस रोहिले को रूकने मत दो। मनरूपी रोहिले को मदहोश होकर गुणसंकीर्तन करने दो। क्योंकि यह गुणसंकीर्तन जब तक चलता रहेगा, तब तक हमारा एक बाल भी बाँका नहीं होने पायेगा।

Leave a Reply

Your email address will not be published.