श्रीसाईसच्चरित अध्याय १ (भाग ३९ )

अब हम दसवें मुद्दे पर विचार करेंगे और वह है- कार्य का उचित प्रकार से प्रबंध करना। किसी कार्य में हमारे साथ-साथ अन्य श्रद्धावान भी जब शामिल होते हैं, तब उस कार्य का भली-भाँति व्यवस्थापन (मॅनेजमेंट) होना चाहिए, नहीं तो सभी लोग कार्य के प्रत्येक अंग में हस्तक्षेप करने लगे तो वहाँ पर अनेक प्रकार की उलझने पैदा हो जाती हैं । इसी लिए जो जिस कार्य की कुशलता रखता है उसे ही वह कार्य सौंपना चाहिए ।

Saibaba_Dalan- श्रीसाईसच्चरितकार्य को छोटे-छोटे हिस्सों में बाँट देना चाहिए और उनके अलग-अलग विभाग बना देने चाहिए और उन विभागों का परस्पर समन्वय (कोऑर्डिनेशन) कायम रखना भी ज़रूरी है । इसके अलावा हर एक कार्य के लिए दूसरा विकल्प तैयार रखना चाहिए। जैसे कि यदि कोई व्यक्ति नहीं आता है, तो वह काम उसके बिना रुकना नहीं चाहिए । उस काम को दूसरा व्यक्ति कर सके और यदि कोई साधन-सामग्री कम पड़ जाये तो उसके बदले में अन्य व्यवस्था करके रखी गई हो। इससे समय की बरबादी नहीं होगी । कोई भी कार्य सामूहिक प्रयासों के बिना पूरा नहीं होता है । इस बात का ध्यान हमें सदैव रखना चाहिए ।

साईनाथ ने जब उन चारों स्त्रियों को खूंटा सौंपा, वहीं से उनका कार्य सामूहिक रुप में आरंभ हो गया । यहीं पर बाबा ने अपने आचरण के माध्यम से सामूहिक कार्य व्यवस्थापन का दिग्दर्शन किया है । किसी भी समूह के हाथों कोई भी कार्य सौंपने से पहले हमें इस बात का विचार कर लेना चाहिए कि वह समूह उस कार्य को करने के लिए सक्षम है या नहीं । बाबा को इन स्त्रियों पर पूरा विश्वास था कि वे यह काम कर सकेंगी, इसी लिए उन्होंने उनके हाथों में खूंटा सौंप दिया ।

इन चारों के मन में होनेवाला साईनाथ का प्रेम ही उनके सामूहिक प्रयासों को बल देनेवाली महत्त्वपूर्ण बात थी । वे चारों ही आनंदपूर्वक साईनाथ की लीलाओं का गुणसंकीर्तन करते हुए गेहूँ पीस रही थीं और परस्पर सामंजस्य के साथ उनके काम को जितनी गति के साथ आगे बढ़ना आवश्यक था वैसे वह बढ़ रही थीं । इन बातों की ओर साईबाबा का ध्यान है ।

जब गेहूँ पीसकर आटा तैयार हो जाता है, तब उन चारों के मन में उस आटे को हिस्सों में बाँटने का विचार आता है, लेकिन इस गलत विचार के उनके मन में आते ही, कार्य को गलत दिशा में ले जानेवाले विचार को बाबा वहीं पर रोक देते हैं और उन चारों के ही हाथों उस आटे को गाँव की सीमा पर डलवा देते हैं और उस कार्य को सफलतापूर्वक पूरा करवा लेते हैं ।

हमें यहाँ पर एक महत्त्वपूर्ण बात सीखनी चाहिए कि सामूहिक रूप में कार्य करते समय अंतिम पड़ाव तक कार्य में सहभागी होनेवालों के मन में कार्य के फलित होने के समय ऐसी कल्पनाएँ आ सकती हैं । सामान्य मानव होने के कारण ऐसे विचार तो आयेंगे ही, परन्तु उसी समय उनकी गलती का एहसास कराकर उस कार्य को उचित दिशा में पूर्णत्व की ओर ले जाना चाहिए ।

यहाँ पर व्यवस्थापन करते समय एक बात को ध्यान में रखना बहुत ज़रूरी है कि ऐसी स्थिति मनुष्य के स्वभाव के कारण हुई है। इस लिए इस बात का एहसास करवाते समय अपनी वाणी में मृदुता का होना ज़रूरी है, नहीं तो हम कहेंगे कि बाबा ने उन चारों की गलती पर डाँटा था इस लिए हम भी गलती करनेवाले को डाँटेंगे। ऐसा करना तो गलती करनेवाले समूह से भी अधिक गलत होगा ।

बाबा के उस एक क्रोध ने हजारों उचित काम किये होंगे। कैसे किये होंगे, इस बात का पता हमें कैसे चलेगा? क्या हम बाबा की बराबरी कर सकते हैं? किसी में दोष निकालने का अधिकार हमें दिया किसने हैं? क्या हमने कभी गलती नहीं की? ‘बाबा, यदि दूसरों की गलती पर क्रोधित होते हैं तो हम भी हो सकते हैं’, यह सोच ही हमारी मूर्खता सिद्ध करती है । बाबा ‘बाबा’ हैं और हम ‘हम’ हैं । यदि ऐसी गलत सोच हम रखते हैं तो हम अपना ही नुकसान करते हैं ।

कार्य की व्यवस्था करते समय हो सके उतना इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि हमारे कारण किसी के भी मन को ठेस न लगने पाये । मनों को जोडकर कार्य को योग्य दिशा में आगे ले जाना चाहिए । गलती करनेवाले व्यक्ति से उस गलती को प्रेमपूर्वक सुधारवाकर व्यवस्थापन के अनुसार जो ज़रूरी हैं, उसी प्रकार उस व्यक्ति से काम में सुधार करवायें। इससे उसका विकास भी होगा और कार्य के विकास के साथ साथ उसके मन में गलती होने का दु:ख न रहकर बल्कि समय रहते ही उसे सुधार लिया गया है इस बात की संतुष्टी रहेगी और इससे उस व्यक्ति की मानसिक वृत्ति सकारात्मक हो जायेगी, जो आगे चलकर उसके लिए तथा भविष्यकालीन सामूहिक कार्यों के लिए भी उपयोगी साबित होगी। साथ ही गलती को सुधारकर उसके लिए अपना स्वयं का मार्ग भी सुस्पष्ट हो जाता है । किसी को भी डाँट-फटकार न लगाते हुए, उसका दिल न दुखाते हुए इस परमेश्वरी कार्य को पूरा करने के लिए अपनी-अपनी गलती को सुधारकर हर किसी को परमेश्वरी मार्ग पर क्रमण करते रहना चाहिए ।

कार्य-व्यवस्थापन का और एक महत्त्वपूर्ण मुद्दा यहाँ पर स्पष्ट होता है, वह है- कार्य के  मूलभूत चार तत्त्वों का ध्यान रखना । किसी भी कार्य को सफलतापूर्वक पूरा करने के लिए चार बातें महत्त्वपूर्ण होती हैं । वे हैं-

१) काल (समय)
२) काम की निरंतरता (कंटिन्युइटी)
३) गति / वेग
४) दिशा

हर कार्य के लिए, निर्धारित समय पर उस कार्य का पूरा होना अत्यन्त आवश्यक होता है । साथ ही उस काम के प्रति ‘कार्य’ की निरंतरता (कंटिन्युइटी) बनाये रखना, उस कार्य की ‘गति’ उचित होना और कार्य की ‘दिशा’ को कायम रखना ये बातें महत्वपूर्ण हैं । हमें सदैव किसी भी कार्य का व्यवस्थापन करते समय इन चारों बातों का ध्यान रखना बहुत ज़रूरी है ।

साईनाथ इस गेहूँ पीसनेवाली कथा में इन चार बातों का पूरा ध्यान रखते हैं । बाबा ने गेहूँ पीसने के लिए जितना समय निर्धारित किया था, उतने ही समय में पीसाई का कार्य पूरा करवाया, उसमें शामिल होनेवालीं महिलाओं को काल का अपव्यय नहीं करने दिया और उचित समय पर ही उसे ले जाकर गाँव की सीमा पर उनसे डलवाया ।

इसी प्रकार बाबा की काम की जो निरंतरता (कंटिन्युइटी) अपेक्षित थी, उसे भी उन स्त्रियों ने कायम रखा । जिस उत्साह के साथ उन्होंने पीसना आरंभ किया, उसी उत्साह को अन्त तक बनाये रखा । ‘वेग / गति’ इस तत्त्व की भी उचित निरंतरता उन चारों ने बनाये रखी । वे बाबा की लीलाओं का गुणगान कर रहीं हैं इसीलिए उनके पीसने की गति में कोई कमी हुई, ऐसा बिलकुल भी नहीं हुआ । उलटे साईनाथ के वहाँ पर उपस्थित होने से, महिलाओं के द्वारा सद्गुरु-गुणसंकीर्तन किये जाने से जो सामर्थ्य उन्हें प्राप्त हुआ, उससे काल, काम एवं गति का तालमेल और भी अच्छी तरह से बैठ गया और उनकी निरंतरता भी बनी रही । गति के बढ़ने के कारण अपेक्षित समय से पूर्व ही उनका पीसाई का काम पूरा हो गया ।

सबसे महत्त्वपूर्ण मानी जानेवाली बात है- दिशा । बाबा ने इस दिशातत्त्व का व्यवस्थापन भी अचूक किया है । जब वे चारों स्त्रियाँ उस आटे को चार हिस्से में बाँट रही थी, तब तक बाबा ने कुछ भी नहीं कहा, क्योंकि उस आटे को उन चारों के द्वारा ही गाँव की सीमा पर ले जाकर डालना बहुत ज़रूरी था । लेकिन जब वे चारों उस आटे के हिस्से को घर ले जाने की योजना मन ही मन बनाने लगीं, तब ‘दिशा गलत हो रही है’, यह जानकर बाबा ने उन्हें खरी-खरी सुनाई और फिर कार्य को उचित दिशा प्रदान की।

आखिरकार जिस हेतु से कार्य का आरंभ हुआ था, वह हेतु सिद्ध हुआ, उन्हीं के हाथों आटे को गाँव की सीमा पर डलवाकर बाबा ने महामारी का नाश किया । महामारी का नाश करना यही तो बाबा के कार्य का मूल उद्देश्य है ।

इस तरह काल, काम (निरंतरता), गति और दिशा इन चारों का उचित समन्वय करके बाबा ने कार्य संपन्न किया । हमें भी इन चारों के महत्त्व को जानकर अपने जीवन के हर एक कार्य को सुसंपन्न करना चाहिए ।

‘महामारी का नाश करना’ यही बाबा की दिशा (हेतु) है और इस दिशा का ध्यान सदैव रखना यही बाबा के द्वारा हमें यहाँ पर दी गई दीक्षा है । महामारी का समूल नाश करना यह बाबा का ध्येय था और उसके लिए कार्य के छोटे-छोटे विभाग बनाकर अपने उद्देश्य का ध्यान रखते हुए बाबा ने अपना ध्येय साध्य किया ।

श्रीमद्पुरुषार्थ ग्रंथराज द्वितीय खंड में कार्य के अचूक व्यवस्थापन के लिए एवं उसकी सिद्धता के लिए ध्येय एवं उद्देश्य के मर्म को श्रीअनिरुद्धजी ने अत्यन्त सुंदर ढंग से स्पष्ट किया है । उन मुद्दों के आधार पर गेहूँ पीसनेवाली कथा में बाबा के कार्य के व्यवस्थापन के बारे में हम विचार करेंगे और उसे अपने जीवन में उतारकर इससे स्वयं अपना समग्र विकास साध्य करेंगे ।

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