श्रीसाईसच्चरित : अध्याय-२ (भाग-१९)

साईनाथ ही मेरे सिर पर स्वयं अपना हाथ रखकर स्वयं ही अपनी कथा लिखवा रहे हैं, यह हेमाडपंत का दृढ़ भाव हमने देखा। बाबा ही मुझे अपनी लेखनी बनाकर हर एक अक्षर लिख रहे हैं, मुझे तो केवल निमित्तमात्र बना रखा है, इस बात का हेमाडपंत को पूरा विश्‍वास है। ‘कर्ता-करवानेवाले’ ये मेरे साईनाथ ही हैं, यह हेमाडपंत का पक्का भरोसा है। पूर्ण रूप से साईसमर्पित, साईशरण में रहने वाले हेमाडपंत यह साईसच्चरित लिख रहे हैं और उसमें उनका निरहंकारी भाव पूर्णत: प्रकट हुआ है। जिसने बाबा का प्रत्यक्ष दर्शन किया है और फ़िर भी बाबा के प्रेमवश बाबा का अधिक से अधिक गुणसंकीर्तन करने की, बाबा को निहारने की जिसके हृदय में पिपासा है, उसे इस साईसच्चरित के द्वारा बाबा का माहात्म्य श्रवण करके, लीलाओं का अनुभव करके अधिकाधिक आनंद तो मिलता ही है, परन्तु इसके साथ ही जिन भोले भाविकों को साई का प्रत्यक्ष दर्शन न हो सका अथवा बाबा के शरीर छोड़ने के पश्‍चात् वाले समय के जो भक्त होंगे, ऐसे भक्तों को भी इस श्रीसाईसच्चरित के माध्यम से प्रत्यक्ष रूप में मिलने की अनुभूति प्राप्त होगी, इसलिए ही हेमाडपंत ने इस साईसच्चरित की विरचना करने का निर्धार किया।

बाबा ने स्वयं भी अनेक कथाएँ कही हैं, अनेक महत्त्वपूर्ण बातें बताईं हैं, जिनसे श्रद्धावानों को विशेष मार्गदर्शन प्राप्त होता है। इन सभी का संग्रह करने के लिए हेमाडपंत के मन में श्रीसाईसच्चरित लिखने की इच्छा उप्तन्न हुई। विशेष तौर पर स्वयं हेमाडपंत को दिन-रात साईनाथ की, उनके प्रेम की जो अनुभूति प्राप्त होती रहती थी, उन स्व-अनुभवों के कारण ही उनके इस निर्धार को बल प्राप्त हुआ। दिन-रात अनुभव लेना इसका अर्थ हेमाडपंत के लिए क्या था? हेमाडपंत के लिए दिन-रात यह द्वंद्व भी अब नहीं रह गया था, उनके लिए सब कुछ उनके साईनाथ ही बन गये थे। साईकृपा से ही हेमाडपंत को यह द्वंद्वातीतता प्राप्त हुई थी। इसी साईकृपा के कारण ही हेमाडपंत को जो अनुभव प्राप्त हुए थे उनका परिशीलन करके स्वयं की तरह ही अन्य लोगों को भी शांतिप्राप्त हो, मन को चैन मिले इसी उद्देश्य से श्रीसाईसच्चरित लिखने की इच्छा उनके मन में और भी अधिक उत्कट हो गई थी।

अनुभव प्राप्त करते हुए दिन-रात। वृत्तांत लिखूँ यह ठान लिया मन में।
जिसके परिशीलन से शांति। मन को विश्राम मिलेगा॥

इसी स्वानुभव के साथ साथ साईनाथ के ऐसे अनुभव जिन जिन भक्तों को आये, उनके उन अनुभवों का यहाँ पर संग्रह हेमाडपंत ने किया। बाबा के अनुभव सुनते समय कितना उत्कट भाव उनके मन में जाग उठा था, यह बात इस पंक्ति से हमारी समझ में आती है।

इन कथाओं का जो संकीर्तन करता है। और सच्चे दिल से जो इन्हें सुनता है।उसके मन को मिलती है विश्रांति। पाता है वह शांति पूर्णत:॥

बाबा की कथा जो कहते हैं वे और जो उसे सुनते हैं वे भी उत्कट प्रेम में डूब जाते हैं और जहाँ पर बाबा का प्रेम इस तरह भरभराकर प्रवाहित होता है वहाँ पर अशांति, अतृप्ति हो ही नहीं सकती, वहाँ पर तो मन को पूर्ण शांति एवं तृप्ति ही मिलती है। हम भी जब इस साईनाथ की कथा कहते हैं, सुनते हैं, तब हमारे मन को पूर्ण शांति-तृप्ति मिलती है। ऐसी ही कथाएँ हेमाडपंत ने भी अनेक भक्तों से सुनी और उन्हें सुनते समय हेमाडपंत की मन:स्थिति उन्मन हो गई। हेमाडपंत का अन्त:करण साईप्रेम से भरकर लबालब होकर प्रेम से प्रवाहित होने लगा है। पहली मुलाक़ात में ही साईनाथ की चरण-धूलि में लोटने वाले हेमाडपंत के यहाँ पर इस प्रकार प्रेमरसभरी कथा सुनते समय अष्ट-भाव जागृत हो उठे हैं और वे कहते हैं कि सचमुच अंहकाररहित होकर, किसी भी प्रकार का दिखावा न करते हुए मन:पूर्वक इस तरह से साई-कथा गाने वाले, उनका वर्णन करने वाले भक्त भी इतने पवित्र होते हैं कि मुझे ऐसा प्रतित होता है कि उनकी चरणधूलि में लोटने से भी मोक्ष सहज ही मिल जायेगा। ऐसे साईभक्तों की चरणधूलि अर्थात साईभक्ति के मार्ग पर प्रवास करते हुए उन भक्तों के मन को होनेवाला प्रेम-भरा स्पर्श, प्रेम का कण। बाबा का अनुभव लेते समय उस भक्त के मन को मिलनेवाली स्निग्धता के कारण शारण्य का जो भाव उनके अंत:करण में दृढ़ हो जाता है वही धूलिकणों की तरह होता है। ‘श्रीसाईनाथ-शरणं मम’ इस निर्धार के मन:पूर्वक किये गये उद्घोष का एक कण ही वह धूलिकण है। ऐसे भक्तों के इस शारण्यरूपी धूलिकण को हमें अपने मन पर इन्हीं कथाओं के द्वारा चिपका लेना चाहिए।

ऐसी कथाएँ जो अहंकाररहित होकर । गायेगा, वर्णन करेगा साई को याद कर।
राह में उन भक्तों की पद रज में लोटते ही। मोक्षप्राप्ति हो जायेगी सहज ही॥

साईभक्तों की कथाओं का प्रस्तुतीकरण । उसमें भाव का उन्मीलन॥
तल्लीन होकर सुनेंगे श्रोतृगण। सुख-संपूर्ण होंगे सभी॥

सुनते ही साई की कथाएँ कानों से। अथवा दर्शन लेते ही नयनों से॥
मन हो जाता है उन्मन। और सहज ध्यानमग्न भी ॥

बाबा की बातें सुनने के लिए जिस तरह कान उत्सुक रहते हैं, बाबा के दर्शन करने के लिए जिस तरह आँखें आतुर रहती हैं, उसी तरह इन साईकथाओं के कारण मन अपने आप ही उन्मन हो उठता है और सहज ही हम ध्यानमग्न हो जाते हैं। वैसे तो ध्यान लगाने पर भी नहीं लगता, मन में अनेक प्रकार के विचार आने लगते हैं, मन एकाग्र हो ही नहीं पाता। परन्तु बाबा की ये कथाएँ ‘सहज ध्यान’ प्रदान करती हैं और जो बातें सहज अर्थात पवित्र परमेश्‍वरी नियमों के अनुसार उत्स्फूर्त रूप में होती हैं, वे ही संपूर्ण होती हैं। इसीलिए अन्य किसी तरह ध्यान लगाने की अपेक्षा भक्तिमार्ग का सहज-ध्यान यह सबसे अधिक आसान एवं अंतिम ध्येय की प्राप्ति करवाने वाला रास्ता है। अन्य मार्ग से ध्यान लगाने से यूँ ही जबरदस्ती ध्यान लगाने पर भी वह लग नहीं पाता, वहीं, भक्तिमार्ग में वह अपने-आप ही लग जाता है। सहजता केवल परमात्मा की मर्यादाशील भक्ति से ही प्राप्त होती है।

‘ज्ञानात् ध्यानं विशिष्यते’ इस तरह ध्यान की महिमा स्वयं भगवान श्रीकृष्ण भगवद्गीता में कहते हैं। साई के सगुणरूप का ध्यान करना यह हम श्रद्धावानों के लिए सर्वश्रेष्ठ है। साई की कथाएँ सुनते समय मन में अपने आप ही श्रीसाई की सगुण आकृति अर्थात प्रत्यक्ष श्रीसाईनाथ ही प्रतिष्ठित हो जाते हैं और मन के सामने केवल साईनाथ के अलावा और कुछ बाकी ही नहीं रह जाता है। हर एक कथा में साईनाथ का ही सहजध्यान मन में अपना स्थान अपने-आप ही बना लेता है और बारंबार यही स्थिति कथा-वाचन-श्रवण-मनन-चिंतन इस प्रक्रिया के द्वारा भक्त अनुभव करता है। ऐसे में श्रीसाईनाथ का सहज ध्यान अपने-आप ही लगने लगता हैं। इस सगुण ध्यानावस्था में ही मन में परमात्मा के नव-अंकुर-ऐश्‍वर्य प्रवाहित होते रहते हैं और अधिक से अधिक मन:सामर्थ्य प्राप्त होता है, ओज-संपन्नता प्राप्त होती है।

श्रीसाईनाथ की कथाएँ यही सहज आसान रास्ता क्यों हैं? तो मूलत: एक बात ध्यान में रखनी चाहिए कि बिलकुल बाल्यावस्था से ही हर एक मनुष्य के मन में इन कथाओं का आकर्षण होता है। बिलकुल बाल्यावस्था में जब अन्य कुछ भी समझ में नहीं आता है, तब भी बालमन का आकर्षण इन कथाओं की ओर बना रहता है। दादा-दादी से (नाना-नानी से) अथवा अन्य किसी से भी कहानियाँ सुनने का आकर्षण हर किसी के मन में आरंभ से ही होता है।

अन्य बातों के प्रति पसंद-नापसंद हर किसी के मन में भिन्न-भिन्न प्रकार से होती है, परन्तु ‘कहानियाँ’ सुनने का शौक हर किसी के मन में होता ही है। आगे चलकर बड़ा हो जाने पर भी उपन्यास, चलचित्र(फ़िल्में), नाटक आदि में मन रमने का भी मूल कारण उनमें होनेवाली कथाएँ यही है। अर्थात हर एक मनुष्य के मन में कथाओं के प्रति झुकाव होना यह बात तो सामान्य रूप में होती ही है। इसीलिए परमात्मा का ध्यान करने के लिए भी मन पर अन्य मार्गों से दबाव डालने पर अनेक मुसीबतें, अड़चनें आती ही रहती हैं, परन्तु भक्तिमार्ग में भगवान की कथाओं में मनुष्य का मन अपने-आप ही रम जाता है और वे कथाएँ सुनते-सुनते मन के सामने भगवान की आकृति सहज ही दृढ़ हो जाती है, सहज ही ध्यान आकर्षित होने लगता है। अन्य साधनाओं में मन ऊब जाता है क्योंकि एक ही कार्य अधिक समय तक करते रहने से उसी बात को दोहराना यह मन को तकलीफ़देह लगने लगता है, वहीं कथाओं में मन कभी भी ऊबता नहीं हैं, क्योंकि भगवान की कथाएँ भी भगवान की तरह ही नित्य-नूतन हैं, सदैव नयी एवं सदाबहार रहनेवाली हैं। हर बार कथा सुनते समय, पढ़ते समय, मनन करते समय भगवान की लीलाओं का नया-नया पहलु खुलते रहता है और इस प्रक्रिया का कोई अंत नहीं है और इसीलिए बार बार उन कथाओं को सुनकर भी मन ऊबता नहीं है। अब रामकथा को ही देख लीजिए, हजारों वर्षों से बारंबार सुनकर, देखकर भी हम सभी के लिए आज भी वह उतनी ही रुचिपूर्ण है। है ना!

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