श्रीसाईसच्चरित : अध्याय-३ (भाग-३६)

साई ही स्वयं लिखने-लिखवाने। भक्त कल्याण हेतु।
कैसे बजेगी बंसी या पेटी। बजानेवाला चिंता न करे।
यह कला तो उस बजानेवाली की। हम व्यर्थ ही कष्ट क्यों करें।

साईबाबा, श्रीसाईसच्चरित, सद्गुरु, साईनाथ, हेमाडपंत, शिर्डी, द्वारकामाईवाद्य से कौनसा सुर निर्माण करना है, कौनसा राग निकालना है, इस बात का विचार वाद्य को नहीं करना होता है, बल्कि उसकी सारी ज़िम्मेदारी वादक के अर्थात वाद्य बजानेवाले के इच्छा पर ही निर्भर करता है। हेमाडपंत कहते हैं कि किस अध्याय में क्या लिखना है, कौन सी कथा कहनी है इस बात का निश्‍चय करनेवाला मैं कौन होता हूँ? मैं तो स्वयं उस वाद्य के ही समान हूँ और उसे बजानेवाले स्वयं साईनाथ ही हैं। इसीलिए कितना अध्याय लिखना है। उन कथाओं को लिखते समय उनमें उपकथाएँ एवं गौण कथाएँ कौन सी होंगी यह सर्वथा बाबा ही निश्‍चित करनेवाले हैं। कलम यदि लिखने का काम करती है फिर भी क्या लिखना है यह कलम निश्‍चित नहीं करती हैं। यह तो लिखनेवाला ही निश्‍चित करता है। मेरी भूमिका भी इसी तरह वाद्य एवं कलमके समान ही है।

फिर यदि कोई पुछता है कि यह लिखते समय तुम्हारे हर एक पंक्ति से हर एक अक्षर से जो प्रेमरस स्त्रवित (प्रवाहित) होनेवाला यह प्रेमरस तो आपका ही होगा? पर नहीं। हेमाडपंत इस बात का श्रेय भी स्वयं लेने के लिए तैयार नहीं हैं। ‘मैं भगवान पर, साईनाथ पर प्रेम करता हूँ’ ऐसा भी वे कहना नहीं चाहते हैं क्योंकि वे जानते हैं कि भक्त के हृदय में प्रवाहित होनेवाला प्रेमरस यह भी साईनाथ के ही प्रेमसागर का ही अंश है। साईनाथ का भक्त पर होनेवाला प्रेम ही भक्त के हृदय में प्रवाहित होते रहता है। मुझमें बाबा के प्रति होनेवाला प्रेम यह भी इस प्रेमस्वरूप साईनाथ के प्रेम का ही एक अंश है, फिर इसे भी मैं अपना कैसे कहूँ? मेरे हृदय में साईनाथ के प्रति उठनेवाला, हिलोरेखानेवाला प्रेम भी साईनाथ के ही प्रेम की मेरे लिए रखी गई धरोहर है। और वह साईनाथ के ही कारण हिलोरे खा रही हैं।

चंद्रकांत से जो स्त्रवित होता है। क्या वह उसके अंदर होनेवाला अमृत हैं।
वह तो उस चंद्र की करामतहै। चंद्रनिर्मित चंद्रोदय के समय॥

अथवा सागर में आये जो ज्वार। क्या वह उसकी है निजकृति।
वह भी चंद्रोदय की ही करामत। सागर की करामत नहीं वह॥

चन्द्रकान्त मणि में से रात्रि चन्द्रोदय होने पर जो प्रकाश स्त्रवित होता है, वह चन्द्रकान्त मणि का प्रकाश न होकर वह तो केवल चन्द्र की ही करामत होती है। उसी प्रकार ये पंक्तियाँ, ये संपूर्ण साईसच्चरित यदि मेरे द्वारा लिखते हुए दिखाई देता है, फिर भी इसे कोई मैंने निर्माण नहीं किया हैं बल्कि यह साईनाथ की ही रचना है। चन्द्रोदय होने पर समुद्र में जो ज्वार उठता है, वह कोई उस सागर की कृति नहीं होती है, बल्कि वह चन्द्र के गुरुत्वाकर्षण बल के कारण ही होता है। उसी प्रकार बाबा के कारण ही मेरे हृदय में प्रेम हिलोरे खा रहा है, परन्तु उसे निर्माण करनेवाला, मैं न होकर ये साईनाथ ही हैं। मेरे अन्त:करण में उठनेवाली प्रेमरस की बुहार साईनाथ की ही कृति है। यही बात स्पष्टरूप में हेमाडपंत हमें बता रहे हैं। हेमाडपंत के पास होनेवाला निरहंकारी भाव, पूर्णत: साईसमर्पित होनेवाला भाव हमें यहाँ पर दिखायी देता है। हमें भी हेमाडपंत के इस बोल को ध्यान में रखना चाहिए तथा हमें भक्तिसेवा कार्य का कर्तृत्व साईनाथ का ही है यह विश्‍वास दृढ़ रखना चाहिए।

सच्चा भक्त ‘मैं भगवान से प्यार करता हूँ’ ऐसा न कहकर ‘मेरे भगवान ही मुझसे कही अधिक प्यार करते हैं।’ ऐसा ही कहते रहता है। ‘मैं सेवा करता हूँ’ यह अहंकार उसके मन में नहीं होता है। उलटे ‘मेरे भगवान ही भक्त की सेवा करते हैं, भक्त के लिए कष्ट करते रहते हैं’ यही उसकी धारणा होती है। हेमाडपंत साईसच्चरित का श्रेय स्वयं रत्ती मात्र भी न लेकर बारंबार यही कहते हैं कि यह सब कुछ साईनाथ का ही है। और मैं भी पूर्णत: साईनाथ का ही हूँ, यही वे दृढ़तापूर्वक कहते हैं। एक हम हैं जो जरासा भी कुछ किया नहीं कि उसका श्रेय स्वयं लेने के लिए हमारी कोशिशें चलने लगती हैं। हमारी कोशिश यही होती है कि हमारा नाम हो; लोग हमारी वाहवाही (तारीफ) करें, हमारी कलाकारी का श्रेय हमें दें, बस् यही हम चाहते हैं। परन्तु अनिरुद्ध बापू कहते हैं उस प्रकार से यह भगवंत हमें इतना सूर्यप्रकाश देते हैं, बारिश देते हैं, अन्न-धान्य देते हैं; परन्तु वे किसी एक भी प्रकाशकिरण पर एक भी पानी की बूँद पर, अनाज के एक भी दाने पर स्वयं का नाम नहीं लिखते हैं और ना ही कभी ये कहते हैं कि यह सब मैंने दिया है, कभी कोई श्रेय स्वयं नहीं लेते हैं फिर हम यदि कही पर भी थोड़ा बहुत दानधर्म करते हैं, सेवा करते हैं, कोई कार्य करते हैं तो हमें इस बात का श्रेय क्यों लेना चाहिए? इसकी अपेक्षा हमें ‘साईनाथार्पणमस्तु इदं न मम’ यह भाव रखकर सब कुछ साईनाथ को ही अर्पण कर देना चाहिए।

आरंभ में हम धीरे-धीरे अपना हर एक कर्म एवं उसका कर्तृत्व, हर एक सेवा, दान एवं उसका श्रेय साईनाथ को ही अर्पण करते रहेंगे। फिर धीरे-धीरे हमारे लिए स्वयं अपने आप को ही साईनाथ को अर्पण करना आसान होता रहेगा। अंत में तो हर किसी को यही साध्य करना है। मुझे स्वयं को पूर्णत: उनके ही चरणों में समर्पित कर देना है। परन्तु यह एक ही समय में हम नहीं कर सकते हैं। इसके लिए हमें हर एक भक्ति-सेवा के कर्म से ही शुरुआत करनी होती है। स्वयं के पास कोई श्रेय न लेते हुए उसे साईनाथ को ही अर्पण करना चाहिए। फिर एक दिन इसी समर्पण के राह पर चलते हुए मैं भी अपने आप ही इस साईनाथ का हो जाता हूँ। हेमाडपंत का यह समर्पण का मार्ग हमारे लिए काफ़ी आसान है और साईसच्चरित यह हमारे लिए बहुत ही सुंदर मार्गदर्शक है और उसमें होनेवाली हर एक कथाएँ दीपस्तंभ के समान हैं।

समुद्र से प्रवास करते समय नौका को उचित मार्ग दिखलाने का काम जिस तरह दीपस्तंभ करते हैं। बिलकुल वैसे ही इस भवसागर में हमारे जीवन का प्रवास भी सुंदर एवं उचित दिशा में हो इसीलिए स्वयं साईनाथ ने हेमाडपंत को निमित्त बनाकर इस साईसच्चरित की निर्मिती की है। जिन मार्गों पर दीपस्तंभ हैं, वह सागरी मार्ग प्रवास के लिए आसान हैं क्योंकि उन मार्गों पर जहाजों आदि के टकराकर टूटने, डूबने आदि का भय नहीं होता। अन्य स्थानों पर मात्र दीपस्तंभ न होने के कारण जहाजों का पाषाणों आदि से टकराकर टूट जाने का डर सदैव बना रहता है। इस साईसच्चरित का मार्ग अर्थात हमारे जीवन नौका के लिए भवसागर में होनेवाले प्रेमप्रवास के लिए होनेवाला दीपस्तंभ का मार्ग।

Leave a Reply

Your email address will not be published.