श्रीसाईसच्चरित : अध्याय-३ : भाग-१०५

एक दिन दोपहर की आरती के पश्‍चात् साईबाबा ने भक्तों से क्या कहा, इसी के संबंध हेमाडपंत ने हमें इस अध्याय की कुछ ओवियों में बताया है। हम सभी के लिए बाबा का हर एक शब्द (बोल) मौलिक मार्गदर्शन करनेवाला होने के कारण हमें उनके बोलों को अपने हृदय में अंकित करके रखना चाहिए। लगभग सौ वर्षों पहले के ये बोल केवल उसी समय तक के लिए ही सीमित नहीं थे, यह त्रिकालाबाधित सत्य है और इसी लिए केवल आज ही नहीं बल्कि इसके आगे भी सदैव बाबा के बोल महत्त्वपूर्ण हैं और रहेंगे भी।

श्रीसाईसच्चरित की कथाएँ लगभग सौ वर्षों पूर्व घटित हुई हैं, इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि वे पुरानी अथवा कालबाह्य हो गयी हैं। हम देखते हैं कि सौ वर्षों पूर्व टाईप-रायटर था और टंकलेखन (टाइपिंग) के सारे काम टक-टक आवाज करनेवाले उस टाईप-रायटर पर ही होते थे। अब कम्प्यूटर युग चल रहा है, और टायपिंग का सारा कार्य संगणक पर ही होता है। इससे टाईप-रायटर कालबाह्य हो गया। परिवर्तन संसार का नियम है। इस संसार की हर एक ची़ज़ हर समय के साथ-साथ बदलती ही रहती है। परन्तु एकमात्र हमारे इन परमात्मा साईनाथ के हर एक अवतार का मार्गदर्शन, कर्तृत्व यह सब कुछ कभी भी कालबाह्य नहीं हो सकते हैं; क्योंकि काल के भी काल होनेवाले साईनाथ काल-दिशा आदि सब से परे हैं।

साईबाबा, श्रीसाईसच्चरित, सद्गुरु, साईनाथ, हेमाडपंत, शिर्डी, द्वारकामाईइसी लिए सौ वर्षों पूर्व की ये कथाएँ, उस वक्त के बाबा के वचनों को पढ़कर आज इससे क्या मिलेगा? ऐसा प्रश्‍न यदि कोई उपस्थित करता है, तो वह सर्वथा अनुचित ही है। बाबा की कथाएँ, बाबा का मार्गदर्शन, बाबा की लीलाएँ ये सभी बातें त्रिकालबाधित सत्य हैं। जब तक मनुष्य है, तब तक उसके पास उसका मन भी रहेगा ही और मन है तो प्रारब्ध भी तो होगा ही। चूँकि मन है तो मनुष्य का गलती करना भेए स्वाभाविक है।

जिसे अपने स्वयं के अपूर्णत्व का, गलतियों का अहसास होने के कारण वह भगवान की भक्ति करते हुए स्वयं का जीवनविकास करने की इच्छा रखता है, उसका हर प्रकार से मार्गदर्शन ‘श्रीसाईसच्चरित’ यह ग्रंथ करेगा ही। सौ वर्ष ही क्या, हजारों वर्ष होने के पश्‍चात भी श्रीसाईसच्चरित का स्थान अवश्य स्थिर रहेगा। श्रीसाईसच्चरित, श्रीमद्पुरुषार्थ ग्रंथराज, श्रीरामरसायन इन जैसे ग्रंथ त्रिकालाबाधित हैं और भक्तों को भी काल को मात देने का सामर्थ्य प्रदान करनेवाले हैं।

हेमाडपंत ने बाबा के मधुर वचनों का ग्रन्थ के हर एक पड़ाव पर उल्लेख किया है और उनका अध्ययन करके उन्हें अपने आचरण में उतारने का प्रयास हमें करना ही चाहिए। हेमाडपंत अपने स्वयं के आचरण के द्वारा हमें यह बता रहे हैं।

ऐकूनि बाबांची मधुर वाणी। निर्धार केला मीं निजमनीं।
येथूनि पुढें नरसेवा त्यागुनीं। गुरुसेवनींचि असावें॥
(हेमाडपंत कहते हैं कि साईबाबा की मधुर वाणी सुनकर मैंने अपने मन में ही यह निश्‍चय कर लिया कि अब इसके आगे किसी भी मनुष्य की नौकरी न करके केवल इस साईनाथ की ही दास्यता करूँगा।)

हेमाडपंत ने उसी क्षण अपने मन में निश्‍चय दृढ़ कर लिया। हमें भी हेमाडपंत के इस गुण को अपनाना चाहिए। हम भी बाबा की वाणी बारंबार सुनते रहते हैं। कोई कह सकता है कि बाबा को आज हम कैसे सुन सकेंगे? उसका उत्तर है – श्रीसाईसच्चरित यह बाबा की मधुर वाणी ही है।
श्रीसाईसच्चरित का पठन, श्रवण आदि ये सब कुछ बाबा की मधुर वाणी सुनने के समान ही है।

बाबा के बोल हम पल-पल सुनते रहते हैं। ‘तुम्हारी कृतियों की पूरी की पूरी खबर मुझे मिल ही जाती है’ यह हमने इसी अध्याय में पढ़ा। परन्तु बाबा की मधुर वाणी सुनकर क्या हम उसके अनुसार अपने-आप में बदलाव लाते हैं? क्या हम बाबा की वाणी सच में सुनते हैं?

‘वाह! बाबा कितना अच्छा बोलते हैं! बाबा कितनी सुंदर कथा सुनाते हैं! बाबा कितने आसान तरीके से समझाते हैं!’ ऐसा कहकर हम उस वक्त खुशी का प्रदर्शन करते हैं; परन्तु क्या सचमुच हम बाबा के बोल ‘सुनते’ हैं ?’ कानों से तो सुनते हैं पर क्या मन से भी सुनते हैं?

हम एक कान से सुनते हैं और दूसरे कान से वह निकल जाता है। बस सुनकर छोड़ देते हैं।

कान से सुनना यानी ‘टू हियर’ और मन से सुनना यानी ‘टू लिसन’। वी ओन्ली हियर, वी डोंड लिसन।’

बाबा जो कहते हैं, उसे सुनकर उसी के अनुसार अपने आप को सुधारना और यही सही मायने में ‘सुनना’ कहलाता है, ‘अपना लेना’ कहलाता है। लोहे को पारस का स्पर्श हो जाते ही जैसे उसका सोना बन जाता है, बिलकुल वैसे ही बाबा के बोलरूपी पारस का स्पर्श होते ही मेरे जीवन का सोना बन जाता है।

हमें स्वयं का अथवा दूसरों का सुनने की अपेक्षा अपने श्रीसाईनाथ का सुनना चाहिए, क्योंकि अपने हित को जितना अधिक मैं अथवा अन्य लोग नहीं जानते हैं, उससे कहीं अधिक एवं सर्वथा ये साईनाथ ही जानते हैं। कोई भी मनुष्य मुझे पूर्णत्व प्रदान नहीं कर सकता है; क्योंकि जो स्वयं ही अपूर्ण है, वह भला मुझे पूर्णत्व कैसे प्रदान कर सकता है?

केवल एकमात्र ये परमात्मा ही ‘पूर्णपुरुष’ हैं, स्वयमेव परिपूर्ण हैं और मुझे भी पूर्णत्व प्रदान करने वाले हैं। इसी लिए किसी भी मनुष्य की सुनने की अपेक्षा, किसी की भी हाँ जी हाँ जी करने की अपेक्षा अपने इस साईनाथ की दास्यता करना ही हर एक के लिए श्रेयस्कर है।

हेमाडपंत ने बाबा के बोल सुनकर छोड़ नहीं दिए, बल्कि उन्होंने उसी क्षण से अपने-आप को बदलना भी शुरू कर दिया। साईनाथ को ‘प्रतिसाद’ देना (रिस्पाँज़ करना) अर्थात् हेमाडपंत के आचरण का अनुसरण करना।

हमें हमारे भगवान की कृति को, बोलों को प्रतिक्रियात्मक उत्तर न देकर प्रतिसादात्मक उत्तर देना चाहिए यानी रिअ‍ॅक्ट न होकर रिस्पाँड करना चाहिए। हेमाडपंत के इस आचरण से हमें यही सीखना चाहिए। बाबा आत्मीयता के साथ हमसे हितकारी बातें कहते रहते हैं, तो फिर हमें भी उन्हें उतनी ही तीव्रता के साथ प्रतिसाद देना चाहिए। है ना!

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