श्रीसाईसच्चरित : अध्याय-२ (भाग- २७)

जानकर मेरे मन की इच्छा । कृपा उत्पन्न हुई साई के मन में।
कहा ‘लिख सकोगे भरपूर’ । चरणों में मैंने माथा टेक दिया।
दिया मुझे उदी का प्रसाद। माथे पर रख दिया वरदहस्त।
साई सकल धर्म विशारद। भवापनोद भक्तों के॥

‘हेमाडपंत की भूमिका तैयार है’ यह जानकर साई ने उन्हें चरित्र-लेखन करने की अनुमति प्रदान कर दी। बाबा ने दो शब्दों में ही हेमाडपंत को सब कुछ भरभरकर दे दिया। ‘लहासील मनोरथा’ ये शब्द ही कितने मधुर हैं! ‘तुम्हारा मनोरथ पूर्ण होगा।’ बाबा के मुख से अनुमति-दर्शक शब्द प्रकट हो गये। अत्यन्त सुंदर, अत्यन्त प्रेमपूर्वक, अत्यन्त रसपूर्ण, अत्यन्त कृपावृष्टिकारक, अत्यन्त मज़बूती प्रदान करनेवाले, अत्यन्त आनंदसंपन्न। ‘लिख सकोगे भरपूर’ ये शब्द ही मूलत: कितनी मधुरता प्रदान करने वाले हैं। ‘तुम्हारा मनोरथ पूर्ण होगा ही।’ साथ ही ‘तुम्हारा’ मनोरथ अब ‘तुम्हारा’ न रहकर वह अब ‘मेरा’ हो गया है। अब यह मेरा संकल्प बन गया है, इसीलिए वह पूर्ण होगा ही’ यही साई के बोलों का, उनके शब्दों का मर्म है।

हेमाडपंत का मन साईनाथ के साथ इतना अधिक एकरूप हो गया है कि हेमाडपंत का मनोरथ उनका न होकर अब वह साईनाथ का संकल्प बन गया है। ‘लिख सकोगे भरपूर’ इसके द्वारा बाबा यही कहना चाहते हैं कि अरे, तुम और मैं अब मिल गए हैं, इसीलिए ‘मैं’ सर्वस्वरूप में पूर्णत: तुम में प्रवाहित हो चुका हूँ। ‘तुम और मैं मिलकर असंभव हो ऐसा इस जग में कुछ भी नहीं है। तुम्हारा साईसच्चरित लेखन का मनोरथ तो सुफ़ल संपूर्ण होगा ही। साथ ही ‘साईनाथ पूर्णत: मेरे हो जायें’ यह तुम्हारा मनोरथ भी पूर्ण होगा; तुम लिखोगे और इस तरह से तुम्हारी इच्छा पूरी हो जायेगी।

हेमाडपंत ने जिस क्षण ‘लिख सकोगे भरपूर’ यह वाक्य सुना होगा, उस समय उनके चित्त के प्रेमसागर में कितनी सारी लहरें एक साथ उमड़ पड़ी होंगी। हेमाडपंत ने बाबा के मुख से ‘लिख सकोगे भरपूर’ यहा सुनते ही बाबा के चरणों में लोटांगण किया। ‘चरणों में मैंने टेक दिया माथा’। सच्चे भक्त की पहचान क्या होती है? तो हेमाडपंत के समान अत्यन्त कृतज्ञतापूर्ण भाव सहित बाबा के चरणों को मजबूती पूर्वक पकड़कर हेमाडपंत ने बाबा के चरणों पर माथा टेक दिया। हेमाडपंत का मनोरथ तो बस यहीं पर ‘पूर्णता’ प्राप्त कर गया। बाबा के चरणों से बड़ा और सुंदर भला और क्या हो सकता है? कुछ भी नहीं। हेमाडपंत का मनोरथ तो बस यहीं पर सुफ़ल संपूर्ण हो गया।

बाबा ने भी हेमाडपंत को उदी का प्रसाद देकर अपना वरदहस्त उनके माथे पर रख दिया। हेमाडपंत ने यहाँ पर बहुत ही महत्त्वपूर्ण बात बताई है और वह है- उदी एवं वरदहस्त। साईसच्चरित में सर्वप्रथम उदी का उल्लेख आता है, वह यही पर। उदी की अनेक कथाओं का उल्लेख आगे चलकर किया ही गया है। परन्तु सर्वप्रथम उदी की कथा है वह यहीं पर ही। बाबा ने स्वयं अपने हाथों से हेमाडपंत को उदी का प्रसाद दिया अर्थात उनके माथे पर उदी लगायी और उनके हाथों में भी दी। बाबा के द्वारा दी गई उदी ने अपना प्रभाव दिखाया और हेमाडपंत से साईसच्चरित-लेखन का कार्य पूरा करवाया। साईसच्चरित यह ग्रंथ प्रकट करवाने वाली यह उदी ही है। बाबा के द्वारा स्वयं उनके हाथों से प्रसादरूप में दी गई उदी यह थी बाबा की पूर्ण कृपा। साथ ही हम पढते हैं कि बाबा ने हेमाडपंत के सिर पर केवल हाथ ही नहीं रखा, बल्कि ‘वरद’ हस्त रखा। साईनाथ का हाथ ही वरदहस्त है। अन्य कोई सिर पर हाथ रखकर उस समय आशीर्वाद दे देगा।’ परन्तु वरदहस्त सिर पर रखनेवाले केवल बाबा ही हैं ‘वरदहस्त’ अर्थात् हमेशा के लिए सिर पर हाथ, जो सदैव भक्त का कवच बनकर रहता है, उसका छत बनकर रहता है और साथ ही उसका उद्धार करने के लिए सदैव उसके सिर पर रहता है।

बाबा के द्वारा हेमाडपंत के सिर पर रखा गया लौकिक हाथ तो बाबा ने कुछ देर बाद भले ही निकाल लिया होगा परन्तु उनका वरदहस्त तो सदैव हेमाडपंत के सिर पर प्रतिष्ठित रहा होगा और उसी ने हेमाडपंत से अपना कार्य पूरा करवाया होगा। वरदहस्त अर्थात् जीती जागती ‘हस्तमुद्रा’। इस साईनाथ की चिरंतन हस्तमुद्रा हेमाडपंत के माथे पर प्रतिष्ठित हो गयी और इससे हेमाडपंत का जीवन धन्य हो उठा। यहाँ पर यह ‘वरदहस्त’ क्योंकि यह वरदहस्त लौकिक देह तक के लिए सीमित होने वाला न होकर यह जीवात्मा को प्राप्त हो चुका होता है। यह साई का वरदहस्त अर्थात् सुदर्शन चक्र, जो सदैव भक्त का छत्र बनकर उसका कवच बनकर सदा-सर्वदा भक्त का उद्धार, उसका संरक्षण करने वाला होता है। साई की उदी अर्थात् साईकृपा यह भगवान की आह्लादिनी शक्ति है, जो मर्यादाशील भक्तिस्वरूपिणी है।

साईनाथजी का हेमाडपंत को उदी-प्रसाद देना और उनके माथे पर वरदहस्त रखना यह क्रिया आल्हादिनी एवं आदिशेष को हेमाडपंत के जीवन में प्रवाहित करने को दर्शाती है। यह साईराम ही इस भक्तिस्वरुपिणी उदी एवं ओजरुपी वरदशक्ति को भक्तों के जीवन में प्रवाहित करने वाला है। कृपाहस्त एवं वरदहस्त इन दोनों का ही हमारे जीवन में प्रवाहित होना महत्तवपूर्ण माना गया है। हेमाडपंत से चरित्रलेखन कार्य पूरा करवाने के लिए ही साईनाथ ने कृपारुपी उदी एवं शेषशक्ति रुपी वरदहस्त हेमाडपंत को प्रदान किया। सीता एवं लक्ष्मण के बिलकुल बिचो-बीच ही ये राम सदैव प्रतिष्ठित हैं। और इसीलिए हमारे जीवन में भी प्रतिष्ठित होने के लिए इस साईराम की उदी एवं उनके वरदहस्त के अलावा अन्य कोई मार्ग नहीं है। ‘लिख सकोगे भरपूर’ इस अनुज्ञा के साथ ही उसके लिए आवश्यक रहनेवाला सामर्थ्य भी साई ने हेमाडपंत में प्रवाहित कर दिया।

उदी का अर्थ विवेकपूर्ण वैराग्य भी है और साथ ही ‘वरद’ का मतितार्थ भी श्रद्धा और सबूरी है क्योंकि श्रद्धा और सबूरी यही सही मायने में वरदायिनी शक्तियाँ हैं। हेमाडपंत को उदी का प्रसाद दिया अर्थात् विवेक और वैराग्य इन दो तत्त्वों को उनके जीवन में साईबाबा ने प्रवाहित कर दिया। उनके माथे पर वरदहस्त रखकर बाबा ने उन्हें श्रद्धा एवं सबूरी से परिपूर्ण कर दिया। साईसच्चरित की विरचना करने के लिए विवेक, वैराग्य, श्रद्धा एवं सबूरी ये चतुष्टभक्ति को हेमाडपंत के जीवन में साईनाथ ने भरभराकर प्रवाहित कर दिया।

यहाँ इस कथा के घटना द्वारा साईनाथ की उदी एवं वरदहस्त का महात्म्य का रहस्य उद्घाटित होता है। हमें भी बाबा का उदी-प्रसाद एवं वरदहस्त मिल जाये इसके लिए हेमाडपंत का आचरण मार्गदर्शक है। हेमाडपंत ने कृतज्ञभाव-सहित एकनिष्ठतापूर्वक, अनन्यता से, दृढ़विश्‍वास के साथ साई चरणों में लोटांगण किया, यह हम देखते हैं; वैसी ही कृति जब मेरी भी होगी, तभी साई की उदी एवं साई का वरदहस्त मुझे भी प्राप्त होगा ही। यहाँ पर हमें यही सीखना है कि मुझे केवल इस साईनाथ के चरणों में ‘लोटांगण’ स्थिति में रहना है बस! श्रीमद्पुरुषार्थ के ‘आनंदसाधना’ इस तृतीय खंड में ‘लोटांगण’ के बारे में विस्तारपूर्वक बताया गया है। मुझे इस लोटांगण स्थिति में साईचरणों में रहना है। बस! इतना ही मुझे करना है। ये साईनाथ अपने प्रत्येक भक्त को उदी का प्रसाद देने के लिए एवं उसके सिर पर वरदहस्त रखने के लिए सदैव तत्पर तो है ही। मुझे वह प्राप्त करने के लिए केवल लोटांगण करना है।

हम नियमित रूप में इस साईनाथ को लोटांगण अवश्य करेंगे। बाबा की इस उदी को आनंदपूर्वक, पूर्ण विश्‍वास के साथ धारण करेंगे। साथ ही उदी लगाते समय यह भाव भी मन में दृढ़ करेंगे कि मेरे साईनाथ का वरदहस्त मेरे सिर पर है ही। इसके बाद हे हेमाडपंत के समान हमें भी साईनाथ आशीर्वाद देंगे ही- ‘लिख सकोगे भरपूर’।

हमारा भी मनोरथ पूर्ण होगा, ये साईनाथ संपूर्णत: हमें प्राप्त होंगे ही। बाबा के ये बोल ‘लिख सकोगे भरपूर’ सुनते ही हमें भी पुन: पुन: लोटांगण करते ही रहना है। बाबा के चरणों पर बारंबार लोटांगण करते रहना यही हमारे जीवन की इतिकर्तव्यता है। क्योंकि लोटांगण यह केवल शरीर से संबंधित नहीं है; बल्कि ‘अपने संपूर्ण अस्तित्व को ही साईचरणधूलि में झोंक देना’ यही लोटांगण है। बाबा के चरणों में लोटांगण करते ही बाबा की चरणधूलि अर्थात् ‘उदी’ मुझे प्रसादरूप में प्राप्त होगी और मेरे बाबा अपना वरदहस्त मेरे माथे पर रखेंगे ही, मैं हमेशा के लिए अपने साई का ही होने वाला हूँ।

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