श्रीसाईसच्चरित : अध्याय-२ (भाग- २६)

बाबा ये अण्णासाहब कहते हैं। आपका चरित्र यथामति लिखूँ।
ऐसी इच्छा हो रही है उनके चित्त में। यदि आपकी अनुमति हो तो॥

हेमाडपंत की इच्छा को बाबा के समक्ष प्रस्तुत करने हेतु माधवराव ने बाबा से कहा, ‘बाबा, आपका चरित्र यथामति लिखूँ’ यह प्रेरणा हेमाडपंत के चित्त में प्रबल हो उठी है। अत: ‘आपकी अनुमति प्राप्त होते ही इस कार्य का आरंभ करूँगा’, यही अण्णासाहब की दिले इच्छा है।’ माधवराव ने जब हेमाडपंत के समक्ष ही उनकी इच्छा को साईनाथ के सामने स्पष्ट रूप में व्यक्त किया, उस वक्त हेमाडपंत के मन में कितने भाव उभर आये होंगे ना! उसी क्षण उनके मन में उत्सुकता जाग उठी होगी कि अब बाबा क्या जबाब देंगे।

हेमाडपंत की इच्छा

हेमाडपंत को ऐसा प्रतीत हो रहा था कि बाबा शायद यह भी कहेंगे कि ‘अरे, मैं ठहरा फ़कीर। भिक्षा माँगते हुए इस दरवाजे से उस दरवाजे पर घूमता फ़िरता रहने वाला। रुखी-सूखी रोटी खाकर, जो कुछ भी मिल जाये उसे खाकर गुजर-बसर करनेवाला। ऐसा हूँ मैं! फ़िर मेरी कथा किस लिए?

हेमाडपंत ने सोचा कि बाबा में जरा सा भी अहंकार नहीं है; ना तो उनमें किसी कर्तृत्व की बड़ाई है और ना ही उन्हें किसी से कोई अपेक्षा है। इसी कारण बाबा अपना चरित्र लिखे जाने के बारे में पूछे जाने पर शायद ऊपर दिए गए उद्गार ही प्रस्तुत करेंगे। परन्तु पुन: हेमाडपंत के चित्त ने कहा, ‘‘बाबा! मेरी कथा क्यों, मेरा चरित्र-लेखन क्यों’, ऐसा मत कहिए, कृपया ऐसा मत कीजिए। हीरे को जिस तरह किसी धातु में जड़ दिया जाता है, उसी तरह इस साई भगवान को भी इस चरित्ररूपी धातु में जड़ देना चाहिए।

हेमाडपंत कितनी सुंदर उपमा प्रस्तुत करते हैं यहाँ पर! हीरा अवश्य ही बहुत मूल्यवान है, मग़र फ़िर भी हम उसे धारण कैसे करेंगे? इसीलिए उस हिरे को सोने आदि अन्य धातुओं में जड़ दिया जाता है, तब ही जाकर हम उसे अंगूठी आदि के रूप में धारण कर सकते हैं। जिस तरह मूल्यवान हिरे को भी किसी धातु में जड़े बगैर धारण नहीं किया जा सकता, उसी तरह उस भगवान को हम जैसे सामान्य मानव ‘भगवान की कथारूपी धातु में’ जड़ कर ही धारण कर सकते हैं। अन्य किसी भी मार्ग से इस भगवान को सहजता से धारण नहीं किया जा सकता है। क्योंकि जहाँ पर श्रुति ही ‘नेति नेति’ कहकर चुप हो गई, वहाँ हम जैसे सामान्य मानवों की क्या कथा? परन्तु इस भगवान के भक्तिमार्ग में कथारूपी धातु में इस भगवानरूपी हीरे को जड़कर सामान्य से सामान्य भक्त भी अपने हृदय में इसे सहज रूप में धारण कर सकता है। ‘इस साईनाथ को धारण करने का सहज एवं आसान मार्ग है यह साईसच्चरित और इस साईसच्चरित की कथाएँ’, इसी सत्य को हेमाडपंत यहाँ पर उजागर कर रहे हैं।

आगे चलकर हेमाडपंत एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण बात बता रहे हैं कि बाबा आपकी अनुज्ञा अर्थात आपकी अनुमति ही इसे अनुबद्ध करवा लेने वाली है। अर्थात इस भगवान की कृपा ही इस भगवानरूपी हिरे को चरित्ररूपी धातु में अनुबद्ध करनेवाली है। बाबा की अनुज्ञा से ही यह कार्य होने वाला है। बाबा की सहायता के बगैर यह कार्य हो ही नहीं सकता है। बाबा के चरण ही इन सारी रुकावटों को दूर कर इस लेखन-कार्य को पूरा करवाने वाले हैं। बाबा के चरण ही यह सब कुछ कर सकते हैं, साई के इन चरणों में ही सारा सामर्थ्य समाया हुआ है। बाबा के चरण जहाँ पर हैं, वहाँ पर अपाय हो ही नहीं सकता है। यहाँ पर इस महत्त्वपूर्ण सिद्धांत के बारे में हेमाडपंत हमें बता रहे हैं। हमारे जीवन में अनेक प्रकार के अपाय हमें घेरे रहते हैं, इसका प्रमुख कारण है साईनाथ के चरण कमलों का विस्मरण। ‘बाबा के चरण ही उन सभी अपायों को दूर भगाकर इस चरित्र को लिखवाकर लेंगे’, इस बात का हेमाडपंत को होने वाला पूरा विश्‍वास ही हमें इस महत्त्वपूर्ण मर्म को स्पष्ट करके बतलाता है।

आपकी अनुज्ञा हो जाने पर। आपकी सहायता मिलने पर ।
लिखेंगे आप ही के चरण। अपाय को दूर भगाकर।

हमारा अपने सद्गुरु पर कितना पक्का विश्‍वास होना चाहिए यह बात यहाँ पर हेमाडपंत की इस पंक्ति द्वारा उजागर होती है। हमें सदैव केवल इस साईनाथ के ही चरणों का ध्यान रखना चाहिए और इसके लिए हमें बाबा के चरणों का ध्यान करना यही एकमेव मार्ग है। मेरे घर पर होने वाली तसवीर यह प्रत्यक्ष रूप में मेरे साईनाथ ही हैं, इसी भाव के साथ इस साईनाथ के चरणों का ध्यान करना हमारे लिए अति आवश्यक एवं महत्त्वपूर्ण है। आरंभ में आँखें खुली रखकर ही बाबा के चरणों को निहारते रहना चाहिए। इसके पश्‍चात् धीरे-धीरे आँखें बंद कर लेने पर भी बाबा के चरण हमारी नज़रों के सामने रहेंगे ही। दिनभर में भी बाबा के चरणों के प्रति निरंतर ध्यान बनाये रखना चाहिए। हमारे मन में ऐसा भाव होना चाहिए कि हम बाबा के चरणों पर जल अर्पण कर रहे हैं तथा बाबा के चरणों पर अपना माथा टेककर सब कुछ समर्पित कर रहे हैं, इस प्रकार की मानस-पूजा करने में कोई हर्ज़ नहीं है। यदि हम हर दिन नियमित रूप में बाबा के चरणों का इसी तरह ध्यान करते रहे, तब सचमुच कोई भी अपाय हमारे आसपास भी न आने पायेगा। हेमाडपंत के द्वारा बताया गया यह मार्ग सचमुच श्रेयस्कर है।

हेमाडपंत मन ही मन बाबा के साथ संवाद करते हुए कहते हैं कि ‘बाबा, आपके आशीर्वाद के बगैर, आपकी कृपा के बगैर यह लेखन कार्य भला कैसे निर्विघ्न रूप में चलता रहेगा। इसीलिए आपकी अनुमति अति-आवश्यक है। इसके बिना यह कार्य पूरा नहीं है पायेगा।’ हेमाडपंत के चित्त में उठने वाला प्रेमभाव जिस तरह हमें यहाँ पर विदित होता है, बिलकुल उसी प्रकार बाबा के प्रति होने वाला पक्का विश्‍वास भी। मैं यदि एक सामान्य मानव हूँ और साईसच्चरित-लेखन-कार्य यह अति विशाल कार्य है, जो मनुष्य के सामर्थ्य के, उसकी योग्यता के बस के बाहर की बात है, फ़िर भी मेरा यह साईनाथ सर्वसमर्थ है ही और वे ही इस कार्य को पूरा करवा लेने में पूर्ण समर्थ हैं, यह दृढ़विश्‍वास हेमाडपंत के चित्त में हैं।

बाबा ने जिस भूमिका के लिए हेमाडपंत का चुनाव किया था उसे प्रत्यक्ष रूप में साकार करने के लिए हेमाडपंत सिद्ध हो चुके हैं, यह देख बाबा ने हेमाडपंत को चरित्र लिखने की अनुमति प्रदान की। शिष्य की भूमिका तैयार होने पर सद्गुरु-सिद्धि के लिए देर नहीं होती, सद्गुरु तो एक पैर पर तत्पर होते हैं। शिष्य की भूमिका यदि तैयार नहीं होगी तो फिर वे भला क्या कर सकते हैं? वे मेरी भूमिका तैयार करने के लिए जो कुछ भी करना आवश्यक है वह सब कुछ अवश्य करते ही हैं, परन्तु मेरी भूमिका तो मुझे ही तैयार करनी होती है।

हमारे मन में अकसर यह प्रश्‍न उठते रहता है कि हम कोई कार्य यदि निश्‍चित करते हैं फ़िर भी उसे पूरा करने के लिए अनेक प्रकार की कठिनाइयाँ राह में निर्माण होती रहती हैं, अनेक रुकावटें आती हैं, ऐसा क्यों? उसका कारण यही है कि उस कार्य के लिए हमारी तैयारी नहीं होती है। हम जल्दबाज़ी में कोई कार्य आरंभ करते हैं और फ़िर ‘मुसीबतें क्यों आयी’ इस प्रकार का प्रश्‍न भी बाबा से पूछते हैं।

सर्वप्रथम मुझे स्वयं से यही प्रश्‍न पूछना चाहिए कि इस कार्य के लिए आवश्यक होने वाली भूमिका क्या मैंने तैयार की है? इस बात का विचार मुझे शांतिपूर्वक करने आना चाहिए।

मान लो मुझे एक महिने के बाद रेल्वे यात्रा करके शिरडी पहुँचना है तो इसके लिए मैंने अपनी भूमिका तैयार रखी है क्या? ऑफ़िस से छुट्टी लेने से लेकर रेल्वे टिकट आरक्षण करवाने तक, योग्य समय पर अपने सामान को बैग में भरने से लेकर सही समय पर स्टेशन पहुँचने तक सभी तैयारियाँ क्या मैंने ठीक से कर रखी हैं? क्या श्रीसाईसच्चरित साथ में लिया है?

हम क्या करते हैं? तो हम सोचते हैं कि अभी तो एक महीना बाकी है, क्या जल्दी है? मुझे अपनी आदत के अनुसार ऐन मौके पर यहाँ-वहाँ भागदौड़ करनी पड़े तब हजारों मुसीबतें तो सामने आयेंगी ही। व्यवहार हो अथवा परमार्थ, मुझे जो कार्य करने की इच्छा है, उसके लिए मुझे अपनी भूमिका तैयार करना अति-आवश्यक ही है और फ़िर मान लो कि मेरी भूमिका तैयार होने पर भी ऐन मौके पर कुछ अप्रिय घटना घटित हो जाती है तो उसमें से रास्ता निकालने के लिए मेरा साईनाथ तो समर्थ है ही। परन्तु भूमिका बाबा तैयार करें और मैं हाथ-पैर पसारे बैठा रहूँ, यह सोचना उचित नहीं है। हेमाडपंत ने स्वयं की भूमिका तो तैयार की ही है और यह सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण बात है।

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