श्रीसाईसच्चरित : अध्याय- २ (भाग-१६)

श्रवणार्थियों का कर्मपाश। तोड़ देती हैं ये कथाएँ विशेष।
बुद्धि को देती सुप्रकाश। निर्विशेष सुख सकल॥

श्रीसाईसच्चरित की कथाएँ भाविक श्रोताओं के कर्मपाश तोड़ देती हैं, प्रारब्ध का नाश कर देती हैं। इन कर्मपाशों को यानी कर्मबंधों को ये कथाएँ ‘अशेष’ रूप से तोड देती हैं अर्थात् एक भी पाश को बाकी नहीं बचने देती हैं। ये कथाएँ बुद्धि को सुप्रकाश देती हैं अर्थात् इनके माध्यम से वह वरेण्य भर्ग बुद्धि को प्राप्त होता है। और यह पापदाहक तेज बुद्धि के द्वारा मन में प्रवेश करके पापों के बीजों को जला डालता है। वैसे तो परमेश्‍वरी ‘भर्ग’ इस ऐश्‍वर्य को प्राप्त करना इतना आसान नहीं है; परन्तु श्रद्धावानों के लिए साई की कथाओं का सहज सरल मार्ग ही यह भर्ग प्राप्त करवाने वाला होता है। पापबीज और पापों के परिणाम इस प्रकार के पाप-समुच्चय का नाश इस परमेश्‍वरी भर्ग से ही होता है।

साईनाथ की कथाओं का भावपूर्वक श्रवण करने से यह भर्ग हमें प्राप्त होते रहता है, यह बात हेमाडपंत यहाँ पर पूरे विश्‍वास के साथ बता रहे हैं। हर एक को निर्विशेष सुख, शाश्‍वत सुख अर्थात आनंद की प्राप्ति करवाने वालीं ऐसी ये कथाएँ हैं। इन कथाओं का यह सहज, सुंदर, आसान मार्ग ही हम जैसे सभी सामान्य मानवों के लिए उचित है। हेमाडपंत ने इन कथाओं की महिमा का अनुभव लेकर उन्हें समझकर ही साईसच्चरित की रचना करने का निश्‍चय किया।

मेरे मन में हुई इच्छा उत्पन्न। इस तरह की सुसंग्रह्य कथाएँ हैं अनेक।
गूँथकर चढ़ा दूँ ग्रंथरूपी माला। यही अच्छी उपासना कहलायेगी।

‘उपासना’ का नाम सुनते ही हमें ऐसा लगता है कि जैसे यह कोई बहुत ही मुश्किल काम है। परन्तु हेमाडपंत यहाँ पर अपनी उपासना के बारे में बात कर रहे हैं और वह कितनी आसान एवं सहजसुंदर है इसका पता हमें चलता है। विभिन्न प्रकार के कथा-पुष्पों को माला में पिरोकर बाबा के चरणों में अर्पण कर देना यही हेमाडपंत की उपासना है। हम भी बिलकुल सहज रूप में हेमाडपंत के बतलाए गए इस उपासना-पथ पर अपना मार्गक्रमण कर सकते हैं। बाबा की इन कथाओं का पठन करना, श्रवण करना, मन में उन्हें एक दूसरे के साथ पिरोना, यह करने से हमारा मन कथारूपी पुष्पों की माला ही बन जाता है। मन में इन कथाओं के पुष्प खिलते हैं और पूरा का पूरा मन ही इन पुष्पों का एक-दूसरे के साथ गूँथा जाकर माला बन जाती है और यह माला बड़ी सहजता से ही साईचरणों में अर्पण हो जाती है। मन का ही इस तरह साईकथामाला में रूपांतरण होने के लिए बारंबार इन कथाओं का चिंतन करके उन्हें पिरोते रहना महत्त्वपूर्ण है। साईसच्चरित के, ग्रंथराज श्रीमद्पुरुषार्थ का निरंतर प्रेमपूर्वक वाचन करते रहने से श्रद्धावानों को इस कला का लाभ सहज ही मिल जाता है।

‘कान में पड़ते ही चार अक्षर। तत्काल ही जीवों का दुर्दिन जाये हर।
संपूर्ण कथा सुनते ही सादर। भावार्थी तर जाये भव पार।’

‘साईनाथ’ ये चार अक्षर और कथा के चार अक्षर कानों में पड़ते ही तत्काल जीवों का दुर्दिन टल जाता है। अर्थात इस कथा के चार अक्षर कानों में पड़ते ही प्रारब्धभोग अर्थात कठिन काल दूर हो जाता है, प्रारब्ध का अंधकार दूर हो जाता है। दुर्दिन इस शब्द का अर्थ है- दिन के होते हुए भी अंधकारमय स्थिति का हमारे जीवन में होना । इस साईरूपी सूर्य के सामने होते हुए भी हम ही अपने प्रारब्ध के कारण, अपने अहंकार के कारण अपने जीवन में अंधकार उत्पन्न करते हैं। हम मन के सारे दरवाज़े बंद करके, प्रकाश को अपने से दूर कर देते हैं। इस कथा के चार अक्षर कानों में पड़ते ही सारे के सारे दरवाजे अपने आप खुल जाते हैं और प्रकाश के कारण सब कुछ प्रकाशित हो उठता है। फ़िर पूरी कथा सुनने पर अन्य अवरोध भी दूर हो कर साईनाथ के गोकुल में, तेज:लोक में प्रवेश अवश्य ही मिलता है अर्थात भावार्थी भव से पार हो जाता है। सर्वसामान्य जीवात्मा, जो अपना उद्धार चाहते हैं, उनके लिए साईनाथ ने ही भवसागर के पार ले जाने वाले इस मार्ग को हेमाडपंत के माध्यम से प्रकाशित किया है।

‘मुझे बनाकर लेखनी (क़लम)। मेरी वाणीको साई ही प्रेरणा देकर।
मैं तो महज़ हूँ निमित्त कारण। अक्षरों को रहा पन्नों पर उतारता।’

हेमाडपंत के हृदय का सुंदर भाव इन पंक्तियों में प्रकट होता है। हेमाडपंत कहते हैं कि मुझे लेखनी बनाकर बाबा मेरा हाथ घुमाते हैं अर्थात वे स्वयं ही अपना चरित्र लिख रहे हैं, मैं तो केवल निमित्त हूँ, बाबा की आज्ञा के अनुसार अक्षरों को आकार दे रहा हूँ। लिखवाने वाले तो बाबा ही हैं, मैं स्वयं न लिखकर वे ही मुझे लेखनी बनाकर हर एक अक्षर लिख रहे हैं।

यहीं पर हमें हेमाडपंत से एक महत्त्वपूर्ण बात सीखनी चाहिए और वह यह है कि सद्गुरु साईनाथ, तुम अपने कार्य हेतु मेरा उपयोग करो, तुम जैसे चाहते हो उसी तरह मेरा उपयोग करके तुम्हें जो भी साध्य करना है, वह तुम मुझसे साध्य करवा लो। तुम्हारा ‘साधन’ बनने में ही मेरे जीवन की इतिकर्तव्यता है। हमारे मन में यह प्रश्‍न उठता है कि परमार्थ के लिए कौन सी ‘साधना’ करनी चाहिए, अर्थात किस मार्ग का अवलंबन करना चाहिए।

हेमाडपंत यहाँ पर इस मर्म को स्पष्ट करते हुए हमें बता रहे हैं कि कौनसी साधना करनी है इसकी अपेक्षा मैं भगवान का ‘साधन’ कैसे बन सकता हूँ, इस बात का विचार करना अधिक महत्त्वपूर्ण होगा। मुझे कौन से साधन का उपयोग करना है अर्थात नामस्मरण, भजन, कीर्तन, सेवा, उपासना आदि किसी भी साधना का उपयोग करना है इससे अधिक महत्त्वपूर्ण बात यह है कि मैं भगवान का साधन कैसे बन सकता हूँ। मेरा भाव यही होना चाहिए कि ‘भगवान, तुम ही मुझे से जो भी करवाना चाहते हो वह करवा लो।’ यह भाव ही सच्चा साधन है और साध्य भी।

‘अशेष’

हेमाडपंत के ‘साईबाबा, तुम मुझे अपनी ‘लेखनी’ बना लो,’ इस भाव में ही यह बात छिपी है कि हेमाडपंत ने स्वयं को साईनाथ का साधन कैसे बनाया। मैं कुछ परमार्थ की साधना करूँ इसकी अपेक्षा बाबा ही मुझे अपनी लेखनी बनाकर मेरा उपयोग करें एवं अपना चरित्र लिखवाने का कार्य पूरा कर लें, यही उनका श्रेष्ठ भाव है। हमें भी ऐसा ही भाव रखना चाहिए। बाबा, तुम मुझे ‘झाडू’ बनाकर अपने स्वच्छता के कार्य को पूरा करवा लो; यह भावना रखकर मुझे स्वच्छता अभियान में शामिल होना चाहिए। मैं अपनी क्षमता के अनुसार इस साईनाथ के किस कार्य में सहभागी हो सकता हूँ, इस बात का विचार करके फ़िर साईनाथ के साधन के रूप में उस कार्य में सम्मिलित होना चाहिए। इससे हमारी अहंकारी प्रवृत्ति कम होती है। ‘बाबा मेरा उपयोग करें, मैं बाबा का साधन बनूँ’ यही सच्ची साधना है और यही साध्य भी है।

हेमाडपंत के कहेनुसार, ‘मैं भी बाबा का साधन कैसे बन सकता हूँ’ इस बात की लगन होनी चाहिए। हेमाडपंत आगे कहते हैं कि मेरी उम्र के साठ साल पूरे हो चुके हैं और ‘बुद्धि सठिया गई है’, यूँ ही चिकित्सा आदि व्यर्थ के ऊहापोह में गूँथी हुई है। इसके साथ ही वाचाल भी है। परन्तु इस ‘वाचलता’ के अलावा इस उम्र में यदि और कुछ मैं नहीं कर सकता हूँ तो कम से कम इस मुख से इस वाचालता का उपयोग मैं साई के लिए कर सकूँ यही मेरी इच्छा है। इस मुख से मैं और कुछ कहने सुनने की अपेक्षा साई के अनुभवों की कथा तो कह सकता हूँ। साई के अलावा अन्य बातों में व्यर्थ समय गँवाना सर्वथा निरर्थक ही है और इसीलिए साईगुण संकीर्तन करना ही उचित है। यहाँ पर हमें इस बात का पता चलता है कि हमें भी अपनी क्षमता के अनुसार, हमसे जो हो सकता है उसी के अनुसार हम साई की सेवा अधिक से अधिक कैसे कर सकते हैं, इस बात का विचार कर कृति करनी चाहिए। ‘मुझसे यह नहीं होगा, वह नहीं होगा’ आदि नकारात्मक विचार करने की अपेक्षा मैं जो कुछ भी कर सकता हूँ, उसी के अनुसार बाबा की सेवा कैसे कर सकता हूँ इस बात का विचार मुझे करना चाहिए।

मैं घर से बाहर भी नहीं निकल सकता हूँ ऐसी स्थिति यदि मेरी है तो मैं घर बैठे ही बहुत कुछ कर सकता हूँ। चरखा, चारा, गुदड़ी सिलाना, विद्या-प्रकाश योजना के लिए मोमबत्ती-माचिस देना, अन्नपूर्णा योजना के लिए अन्न-धान्य आदि भेजना, स्वेटर बूनना, साई की कथाओं के संदर्भ में अपने विचार लिखना आदि जैसे कार्य तो सहज ही हम कर सकते हैं। रामनाम बही लिखना, प्रत्यक्ष में होनेवाले जप लिखना, प्रार्थना करना, चित्र रंगना, लेख पढ़कर दूसरों को उसमें होने वाले विचार बताना इतना तो हम कर ही सकते हैं। और सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण कार्य हैं- इस साईसच्चरित की कथाएँ, साईसच्चरित के अनुभव, साईलीलाएँ आदि का गुनगान करना, जो भी हमसे मिले उन्हें बताना। इतना तो हम कर ही सकते हैं। श्रीमद्पुरुषार्थ जैसे ग्रन्थों का पाठ, पारायण, अध्ययन करके दूसरों को भी भक्ति की प्रेरणा हम दे सकते हैं।

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