श्रीसाईसच्चरित : अध्याय- २ (भाग-१७)

हेमाडपंत के गुणविशेष हम पहले ही देख चुके हैं। हेमाडपंत स्वयं पूर्णत: सर्तक थे। साथ ही श्रीसाईसच्चरित पढ़ने से, सुनने से भक्त में यह सावधानता आ सकती है, इस बात पर उन्हें पूरा भरोसा था । हेमाडपंत पूर्णत: विनयशील थे और ‘इस संपूर्ण चरित्र के कर्ता एवं करवाने वाले मेरे सद्गुरु श्रीसाईनाथ ही हैं’ इस बात का पूरा-पूरा एहसास उन्हें था।

हेमाडपंत को सत्य का एहसास और वास्तविकता का ध्यान अच्छी तरह था। भौतिक धरातल पर हेमाडपंत ने अपने स्वयं के हाथों में लेखनी लेकर यह चरित्र-लेखन का कार्य किया। यह बात भौतिक धरातल पर भले ही वास्तविक लगे परन्तु हेमाडपंत बारंबार इस सत्य का उद्घाटन करते रहते हैं कि ‘मैं इस चरित्र का कर्ता नहीं हूँ बल्कि इसके कर्ता स्वयं साक्षात् साईनाथ ही हैं।’ इसी लिए हर किसी के मन में यह सत्य दृढ़ हो और जो कोई भी सद्गुरु का, परमात्मा का गुणसंकीर्तन करता है, उसका सारा भार वे ही उठाते हैं, यह भी हेमाडपंत बार-बार याद दिलाते रहते हैं। हेमाडपंत की सच्चाई एवं वास्तविकता इन दोनों ओर देखने की दृष्टि कितनी स्वच्छ थी यही बात इस कथा के माध्यम से हम समझ सकते हैं।

व्यावहारिक तौर पर जब हम अपनी जिन्दगी जीते हैं, तब व्यवहार में वास्तविकता का ध्यान रखे बिना काम नहीं चलता है और वास्तविकता का यह एहसास न होकर भी हमारा कार्य नहीं चलता। सत्य और वास्तविकता का यथार्थ ज्ञान होने के लिए ज़रूरत होती है- सदसद्विवेकबुद्धि (सत्-असत्-विवेकबुद्धि) की। जिस पल मनुष्य अनन्य-भाव-सहित एकचित्त होकर इस परमात्मा की शरण में आता है, उसी क्षण से उसकी सदसद्विवेकबुद्धि को ये परमात्मा पूर्णत: सक्रिय कर देते हैं और उसी क्षण से मनुष्य सत्य एवं वास्तविकता को अच्छी तरह से जानने लगता है।

हेमाडपंत ने भी बिलकुल यही किया। नानासाहब चांदोरकर के आग्रह करने पर हेमाडपंत शिरडी जाने के लिए निकल तो पड़े, परन्तु रास्ते भर उनके चंचल मन में अनेक प्रकार की कल्पनाएँ उठती रहीं। जिस यवन ने उन्हें दादर न जाकर सीधे बोरीबंदर से गाड़ी पकड़ने की सलाह दी, उसे देखते ही हेमाडपंत को वह अपशकुन कराने वाली बात लगी। इस प्रकार का संकल्प-विकल्प करते वे शिरड़ी जा पहुँचे। ताँगे से उतरते ही बाबा के दर्शन की उत्सुकता उनके मन में उठने लगी थी।

‘ताँगे से उतर जाने पर। दर्शन की उत्सुकता उमड़ पड़ी मन में।
कब चरणों पर सिर रखूँगा। आनंद लहरें उछलने लगीं॥

परंतु उनके मन की लहर यहीं पर खत्म नहीं हुई, बल्कि तात्यासाहब नूलकर के कहेनुसार वे बाबा की चरणधूलि-भेंट लेने गए और जिस क्षण बाबा के चरणों में उन्होंने लोटांगण किया, यहीं पर हेमाडपंत का संपूर्ण समर्पण भाव साईचरणों में जुड़ गया और ‘यहीं से मेरे नये जीवन का आरंभ हुआ’ ऐसा हेमाडपंत स्पष्ट रूप में कहते हैं।

 हेमाडपंत‘सुनकर यह बात शीघ्रता के साथ। दौड़ पड़ा मैं बाबा थे जहाँ।
धूलि में किया लोटांगण साईचरणों में। आनंद ना समा पाये मन में॥

साईनाथ का दर्शन करने की उत्सुकता उमड़ पड़ी। हेमाडपंत बाबा की चरणधूलि-भेट के लिए दौड़ पड़े और जो कुछ भी सुना था उससे कहीं अधिक उन्होंने पा लिया। वह भी इतना कि उन्हें अपना जीवन धन्य लगने लगा।

‘नानासाहब ने जो भी था बताया। उससे भी बढ़कर प्रत्यक्ष अनुभव किया।
दर्शन पाकर मैं धन्य हो गया। सङ्गल हो गया जीवन॥

यहाँ पर पुन: एक बार, हम जिसके बारे में अध्ययन कर चुके हैं वह ‘सुनने’ का मुद्दा आता है। ‘सुनना’ इस शब्द का अर्थ है- ‘उसे अपनी कृति में उतारना’। यह कृति हेमाडपंत ने अचूकता से अपनाई। साईबाबा के बारे में नानासाहब चांदोरकर से हेमाडपंत ने सुन रखा था। यह सुनना यहीं पर खत्म नहीं हुआ। बल्कि स्वयं नानासाहब वापस आकर उन्हें शिरडी जाने को कहकर गए। इसके पश्‍चात् हेमाडपंत ने कानों से सुना हुआ दिल में उतार लिया और वे शिरडी के लिए निकल पड़े।

वहाँ पहुचने पर, जो कानों से सुना था वह कहाँ तक उचित है, इस बात का सबूत उन्हें साक्षात् मिल गया। नानासाहब चांदोरकर जैसे श्रेष्ठ भक्त की बात सुनने पर हेमाडपंत का पूरा का पूरा जीवन ही बदल गया। इसीलिए कहा गया है कि उचित बात सुनना यह हर मनुष्य के लिए आवश्यक होता है।

इस ‘सुनने’ के कारण ही आगे चलकर हेमाडपंत साईचरणों में समर्पित हो गए। जिस पल हेमाडपंत ने बाबा की चरणधूलि-भेंट ली, उसी क्षण से वे साईचरणों के रज:कण बन गए।

‘कभी देखा ना सुना। मूर्ति देख दृष्टि धन्य हो गई।
भूख प्यास सबका शमन हो गया। तटस्थ हो गयीं इन्द्रियाँ॥

और जिस पल हेमाडपंत पूर्णत: साईबाबा के हो चुके, उसी पल से उनके नये जीवन का आरंभ हुआ।

‘साई का चरण स्पर्श पाते ही। प्राप्त हुआ जो परामर्श।
वही इस जीवन का परमोत्कर्ष। नये जीवन का आरंभ हुआ॥

जिस क्षण से हेमाडपंत के इस नूतन जीवन का आरंभ हुआ। उसी क्षण से सत्य एवं वास्तविकता इन दोनों बातों को उनकी दृष्टि यथार्थ रूप में देखने लगी।

सत्य एवं वास्तव की स्मृति हेमाडपंत के मन में कितनी जागृत है, यह एक बार फिर से हम देख सकते हैं।

‘साधु संत अथवा श्रीहरि। किसी श्रद्धावान का हाथ पकड़कर ।
अपनी कथा स्वयं ही लिखते हैं। अपना हाथ उसके सिर पर रखकर॥

‘निजकर सिर पर रखकर’ (अपना हाथ उसके सिर पर रखकर) इस बात का अनुभव हेमाडपंत को अच्छी तरह स हो चुका था। जब तक उस साईनाथ का हाथ मेरे सिर पर है, तब तक मेरी लेखनी चलती रहेगी। केवल लेखनी ही नहीं बल्कि मेरा हाथ, मन एवं बुद्धि इन्हें भी वे ही चलानेवाले हैं; इसीलिए ‘सद्गुरु साईनाथ का मेरे सिर पर रहनेवाला हाथ’ यही इस चरित्र-लेखन की सच्चाई है।

यहाँ पर हम सबको याद आती है, संत ज्ञानेश्‍वरजी की कथा। परमात्मा का निज-कर (अपना हाथ) कैसे होता है, यह बात वह कथा हमें बताती है। संत ज्ञानेश्‍वरजी का उपहास करना चाहनेवाले कुछ लोगों ने ज्ञानेश्‍वर को उन्हीं के नाम का भैंसा दिखलाकर ‘इसका नाम भी ज्ञाना है, तो क्या यह भैंसा वेदमंत्रों का उच्चारण कर सकेगा?’ इस प्रकार का प्रश्‍न किया।

ज्ञानेश्‍वरजी ने अपनी कृति से ही उन्हें उत्तर दिया। जिस पल उस भैंसे के सिर पर ज्ञानेश्‍वरजी ने अपना हाथ रख दिया, उसी क्षण वह भैंसा वेदों की ऋचाओं का पाठ करने लगा। परन्तु यह तब तक ही होता रहा जब तक उस भैंसे के सिर पर संत ज्ञानेश्‍वर का हाथ था। जिस क्षण उन्होंने उस भैंसे के सिर पर से अपना हाथ उठा लिया, उसी क्षण उस भैंसे का बोलना बंद हो गया। यही है उस परमात्मा का निजकर और यह कथा निश्‍चित ही हेमाडपंत को अच्छी तरह से याद थी। इसीलिए साईनाथ ने उनके सिर पर रखे हुए अपने निज-कर का यानी साई के हाथ का हेमाडपंत को सदैव स्मरण रहा।

और यही है उस सत्य एवं वास्तव को देखने की हेमाडपंत की दृष्टि। परमात्मा का निजकर सिर पर पड़ते ही जब भैंसा भी बोलने लगता है, तो वहाँ मनुष्य का बोल सकना यह स्वाभाविक बात है, इसका हेमाडपंत को सदैव स्मरण था और इसीलिए बाबा ने हेमाडपंत से स्वयं का चरित्र लिखवाया।

सामान्य मनुष्य की भौतिक दृष्टि को अर्थात उसकी चर्मचक्षुओं को परमात्मा का यह निजकर प्राय: दिखाई नहीं देता और इसीलिए सामान्य मनुष्य को सत्य एवं वास्तव के बीच गलतफहमी हो जाती है और इसी गलतफहमी के कारण ही फिर अकसर यह भैंसा ही प्रशंसा का, स्तुति का, गुणगान का विषय बन जाता है और स्वाभाविक है कि वह भैंसा यदि अहंकार में डूब जाता है और अपनी मर्यादा को तोड़ अंधाधुंध बर्ताव करने लगता है, उसी क्षण परमात्मा उसके सिर पर से अपना निजकर उठा लेते हैं और देखते ही देखते वह वाचाल भैंसा एकदम चुप्पी साध लेता है। और यदि एक बार यह भैंसा चुप्पी साध लेता है, तब जाकर मनुष्य को याद आता है, ‘उस परमात्मा का निजकर’।

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