हृदय एवं रक्ताभिसरण संस्था – १७

हमारे शरीर की रक्तवाहनियों में लगातार रक्तप्रवाह शुरु रहता है। परन्तु इस रक्ताभिसरण का सबसे ज्यादा सार्थक कार्य सूक्ष्म रक्ताभिसरण स्तर पर होता है। यह कार्य है अन्नघटकों को पेशियों तक पहुँचाना और पेशियों में से त्याज्य पदार्थों को पेशीओं से दूर बहाकर ले जाना। छोटी आटिरिओल्स पेशी समूहों को होनेवाले रक्त की आपूर्ति पर नियंत्रण रखती है तथा पेशी समूह का वातावरण आरटिरिओल्स का व्यास कम-ज्यादा करता है। संक्षेप में प्रत्येक पेशी समूह अथवा अवयव अपनी आवश्यकतानुसार व आवश्यक  मात्रा में ही रक्त का उपयोग करता है। कहीं पर भी अनावश्यक जमा करने की वृत्ति नहीं होती।

अवयवहमारे शरीर के विभिन्न अवयवों, पेशीसंस्थाओं के माध्यम से परमेश्‍वर हमें हमारे जीवन में कौन से सिद्धान्त रखने चाहिये, यह उदाहरण के साथ बताते हैं। मानवतावाद, समाजवाद, साम्यवाद, भूतदया, निस्वार्थीपन, दयाबुद्धी, मुसीबत के समय दौड़कर जाना इत्यादि-इत्यादि जो-जो भी अच्छे और इसीलिये शाश्‍वत सिद्धान्त हैं उन सब को हमारा शरीर हमें दिखाता रहता है। कहीं पर भी संकुचित वृत्ती नहीं होती। इसीलिये रक्त के लिये/ प्राणवायु के लिये कभी भी अवयवों में लड़ाई नहीं होती। फेफडों के अवयव कभी ऐसा नहीं कहते कि पेट की ओर जाने वाली रक्त वाहनियाँ हमारे भाग से होकर जाती है अत: वो सब हमें चाहिये। हम उसे पेट के अवयवों को नहीं देंगें। इसीलिये यहाँ पर कभी कावेरी पानी का झगड़ा अथवा कृष्णा-कोरी विवाद नहीं होता!

मुझे इतनी आवश्यकता है मैं उतना ही उपयोग करता हूँ और उतना ही करूँगा। मेरे पास आज आवश्यकता से ज्यादा है अथवा जमा है, उसकी शरीर के अन्य भागों में आवश्यकता है तो मेरे पास से ले जाओ। शरीर के सभी अवयव अपना-अपना कार्य बिना विवाद के किया करते हैं। आलस नहीं और कामचोरी भी नहीं, अहंकार और गर्व तो बिलकुल ही नहीं। अन्य अवयवों से झगड़ा नहीं, ईर्ष्या नहीं बल्कि इसके विपरित एक दूसरे को मदत करने की तैयारी रहती है। श्रावण मास में हम प्रत्येक व्रत की कथा पढ़ते हैं। उसमें एक वाक्य आता है- ‘मर्यादा-उल्लंघन नहीं करेंगें, घमंडी नहीं होंगें, अपना व्रत अधूरा नहीं छोड़ेंगें।’ ठीक इसी प्रकार इन अवयवों के कार्य चलते रहते हैं। तो यह रक्तरूपी ईंधन इन अवयवों को, पेशियों को कुछ भी कम नहीं पड़ने देता। सभी की आवश्यकताओं की आपूर्ति करते समय भेदभाव नहीं करती। जिन अवयवों को अन्य घटकों की ज़्यादा मात्रा में आवश्यकता होती है, उन्हें ज़्यादा मात्रा में अन्न की आपूर्ति करती है। परंतु इसीलिये अन्य अवयवों को भूखा नहीं रखती। सभी की आवश्यकता पूरी करती ही है, बिल्कुल १०८%।

इसीलिये हमारा शरीर अंदर-बाहर से अच्छे गुणों से परिपूर्ण इसीलिये वो सुंदर है। परमेश्‍वर ने बनाया है इसीलिये ये सुंदर है। परन्तु हम परमेश्‍वर के द्वारा दी गयी कर्मस्वतंत्रता का उपयोग करते समय मन एवं बुद्धि का प्रयोग विपरित दिशा में करते हैं और इस सुंदर शरीर को बिगाड़ देते हैं!

अब हम यह देखेंगे कि शरीर में मायक्रो-सरक्युलेशन कैसे होता है, कौन से कार्य करता है। सूक्ष्म रक्ताभिसरण मुख्यत: केशवाहनियों और वेन्युल्स में चलता है। हमारे शरीर की केशवाहिनियाँ अत्यंत सूक्ष्म होती हैं। इनकी बाहरी दीवार एकदम पतली होती हैं यानी एन्डोथेलिअल पेशी की एक पर्त की बनी हुयी होता है। यह पेशी अन्नघटकों का आदान-प्रदान करने में काफी मात्रा में सहकार्य करती हैं। इसीलिये इन्हें परमिएबल पेशी कहते हैं। हमारे शरीर में कुछ दस अरब यानी एक हजार करोड़ केशवाहनियाँ होती हैं। इन केशवाहनियों का क्षेत्रफल लगभग ५०० से ७०० चौ.मी. होता है।

प्रत्येक अवयव का सूक्ष्म रक्ताभिसरण का जाल उसकी आवश्यकता नुसार बनता है। परन्तु सर्वसाधारण रचना इस प्रकार की होती है। प्रत्येक अवयव की अन्न ले जानेवाली एक मुख्य आर्टरी होती है। उसे अन्नदात्री आर्टरी (Nutrient Artery) कहते हैं। इस मुख्य आरटरी के पाँच छ: विभाजनों के बाद छोटी आरटिरिओल्स तैयार होती हैं। इन आरटिरिओल्स का अंदरुनी व्यास (डायमीटर) साधारणत: २० मायक्रोमीटर होता है। इस आरटिरिओल्स का फिर दो से पाँच बार विभाजन होता है। इस सूक्ष्म आरटिरिओल्स का अंदरुनी व्यास ५ से ९ मायक्रोमीटर होता है। इन्हें मेटॅआरटिरिओल्स कहते हैं। इससे आगे चलकर केशवाहनियाँ निकलती हैं। इन केशवाहनियों के जाल पूरे अवयवों में फैलते हैं और ये केशवाहनियाँ वेन्युल्स में एकत्रित आ जाती हैं। आरटिरिओल्स की दीवारों में स्नायुपेशियाँ होती हैं, जिनके कारण इनका अंदरुनी व्यास कम-ज़्यादा होता रहता है। मेटाआरटिरिओल्स में सूक्ष्म स्नायु के पट्टे बीच-बीच में होते हैं। मेटाआरटिरिओल्स से केशवाहनियाँ शुरु होती हैं। उनके स्थान पर ऐसे स्नायुओं के पट्टे होते हैं। ये स्नायु आकुंचित प्रसरित होकर केशवाहनियों में होनेवाले रक्तप्रवाह पर नियंत्रण रखते हैं। पेशियों की आवश्यकता के अनुसार केशवाहिनियों में रक्त प्रवाह कम-ज्यादा किया जाता है। केशवाहिनियों की दीवारों में सूक्ष्म रिक्त स्थान होते हैं। इन रिक्तस्थानों को pores कहते हैं। इन पोअर्स में से पेशी व रक्त में विभिन्न घटकों का आदान-प्रदान हुआ करता है। प्रत्येक अवयव में केशवाहनियों के ये पोअर्स उसकी आवश्यकतानुसार कार्य करते रहते हैं।

उदाहरणार्थ:

– मस्तिष्क की केशवाहनियों के पोअर्स अत्यंत सूक्ष्म होते हैं एवं इन में से सिर्फ पानी, प्राणवायु एवं कार्बन डाय ऑक्साईड के परमाणु ही अंदर-बाहर जा सकते हैं।

– यकृत के पोअर्स का़ङ्गी बड़े होते हैं। इनमें से रक्त के सभी विद्राव्य घटक, यहाँ तक कि रक्त का प्लाझा भी बाहर निकलता हैं।

– मूत्रपिंड में थोड़ी अलग रचना होती है। यहाँ की केशवाहिनियाँ सूक्ष्म लंबवर्तुल आकार की खिड़कियाँ होती हैं। इन्हें फेनेस्ट्री कहते हैं। इनमें से बड़ी मात्रा में रक्त के सूक्ष्मकण अंदर-बाहर आते-जाते रहते हैं।

(क्रमश:)

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