श्रीसाईसच्चरित : अध्याय-३ : भाग-७६

रोहिले की कथा का अध्ययन करते समय हमने अब तक निम्नलिखित मुद्दों से बोध प्राप्त किया।

१) बाबा के गुणों से मन मोहित होकर शिरडी जाना।
२) अन्य सभी मार्ग को छोड़कर शिरडी अर्थात भक्तिभूमि को चुनना (का चुनाव करना)
३) साई के सामीप्य में रहना।
४) साई के प्रति समर्पित हो जाना।
५) साई की कृपासे ही बाबा का हाथ सिर पर है इसीलिए शिरडी में आ सका, ईश्‍वर का गुणसंकीर्तन कर सका इस बात का ध्यान रखना।
६) साईकृपा से मन:सामर्थ्य प्राप्त होना।
७) किसी भी विरोध की परवाह किए बगैर ईश्‍वर का गुणसंकीर्तन करते रहना।
८) स्वयं की ज़रूरतें कम से कम करना, लालच छोड़ देना।
९) द्वारकामाई अर्थात गुरुस्थान का आश्रय लेना वहीं पर ईश्‍वर का गुणसंकीर्तन करना।
१०) किसी भी द्वंद्व की परवाह किए बगैर ही जिस स्थिति में भी रहें उसी स्थिति में ईश्‍वर का गुणसंकीर्तन करते रहना।
११) उपासना स्थल पर एवं व्यवहार में ही गुणसंकीर्तन करते रहना।
१२) उत्कटता के साथ गुणसंकीर्तन करना।
१३) तन्मयता के साथ समरस होकर गुणसंकीर्तन करना।
१४) स्वानंद के लिए, आनंदमय होकर गुणसंकीर्तन करना।

साईबाबा, श्रीसाईसच्चरित, सद्गुरु, साईनाथ, हेमाडपंत, शिर्डी, द्वारकामाई

१५ वां अत्यन्त महत्त्वपूर्ण मुद्दा कथा के अंत में हेमाडपंत हमसे कहते हैं, उस मुद्दे पर पहले हम विचार करेंगे इसके पश्‍चात् हम पुन: कथा की ओर अपना ध्यान आकर्षित करेंगे क्योंकि यह पंद्रहवा मुद्दा अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। यह रोहिला रात दिन उच्चस्वर में, अत्यन्त आवेश में स्वच्छंद रूप से ईश्‍वर का गुणसंकीर्तन करता था। यह करते समय वह स्वयण को पूर्णरूप से ईश्‍वर के गुणसंकीर्तन में झोक देता था अर्थात गुणसंकीर्तन में ‘होशोहवास’ खो बैठता था और यही अत्यन्त महत्त्वपूर्ण मुद्दा है।

जब तक मैं ईश्‍वर के गुणसंकीर्तन में स्वयं को १०८% झोककर उसी में लिप्त नहीं हो जाता हूँ, तब तक मेरा अगला प्रवास मैं तीव्रगति के साथ नहीं कर सकता हूँ। तब तक मेरा अगला प्रवास मैं तीव्रगति के साथ नहीं कर सकता हूँ। किंबहुना यह रोहिला तो एक रूपक ही है। अपने होशोंहवास खो बैठने का। बाबा के गुणो से मोहित होकर शिरडी में अपना अड्डा जमाकर बैठ अखंड ईश्‍वर का गुणसंकीर्तन करनेवाला यह रोहिला अर्थात होशोंहवास खो बैठना। रोहिला अर्थात आरोहण करनेवाला, ऊर्ध्व दिशा में प्रवास करनेवाला और वह भी तीव्रगति के साथ।  हमारा मन जब साई के गुणों से मोहित हो जाता है, तब उस पर अपने इस ईश्‍वर की ‘धुन’सवार हो जाती है और वह अपने होशोहवास खोकर ऊँची-ऊँची उड़ाने भरने लगता है, चिदाकाश में रहनेवाले इस साई की ओर। यही उड्डान अर्थात गुणसंकीर्तन, श्रीसाईनाथ का गुणसंकीर्तन हमें ऊँची उड्डान भरकर श्रीसाईनाथ की दिशा में, नौवे मिती की ओर ले जानेवाले है। यह नौवा जिस नौवी मिती में रहता है वहाँ उड्डान करके जाने का बल इस नित्यनूतन, नित्यनवीन श्रीसाईनाथा गुणसंकीर्तन ही देता है।

जब हमारा मन इस प्रकार से होशोहवास खो बैठता है, तब ही वह रोहिला बनता है। और ऊँची-ऊँची उड्डाने भरने लगता है। हर पड़ाव पर और भी अधिक उत्साह के साथ अधिक ऊँचा उड़ता चला जाता है।

उडू मैं लगाकर पंख। अपने सावले से मिलूँ॥

आद्यपिपादादा की यह पंक्ति हमें रोहिले की अर्थात हमारे भक्ति में पूर्णत: रम जाने की, होशोहवास खो बैठने की एक निशानी बतलाते हैं।इस कथा में भी रोहिला होशोहवास के खो बैठने का रूपक है। ङ्गिर ऐसा यह रोहिला अर्थात भक्तिमय मन जब मस्त होकर चिदाकाश में उड्डान भरने लगता है, ऐसे में रोहिली इस मन की पत्नी अर्थात हमारी पारिवारिक समस्या बीच में रूकावट पैदा करने लगती है। क्योंकि उसे इस भक्ति का बेगानापन अच्छा नहीं लगता। ङ्गिर वह हमारे श्रद्धास्थान को ही डगमगाने की कोशिश में लग जाती है अर्थात हम जिनकी भक्ति करते हैं उस भगवान पर होनेवाली हमारी श्रद्धा को ठेस पहुँचाने की कोशिश करने लगती है। बाबा कहते हैं उसी के अनुसार यह सदैव किटकिट करनेवाली चिंतावृत्ति उन्हें जकड़ने की कोशिश करती है।

इस भगवान की भक्ति करके हमारा पेट कैसे भरेगा? इस भगवान की भक्ति में होशोहवास खो बैठने से हमारे जीवन का कारोबार कैसे चलेगा? इसीलिए वह रोहिली हमारे जीवन में विभिन्न प्रकार की समस्यायें उत्पन्न करने की कोशिश करने लगती है। यही किटकिट करनेवाली वृत्ति मेरे एवं मेरे भगवान के बीच एक दीवार बनने की कोशिश करती है। यही मुझे मेरे भगवान से दूर करने की कोशिश करती है। यही मेरे और भगवान के बीच दरारें पैदा करती है। यह मेरा बुद्धी-भेद करके मुझे मेरे साईनाथ से दूर ले जाने की कोशिश करती है। श्रीसाईनाथ को कष्ट पहुँचाती है अर्थात? श्रीसाईनाथ को तकलीङ्ग कब होती है? जब भक्त अपने भगवान से दूर चला जाता है तब ही बाबा को तकलीङ्ग होती है। यह रोहिली इसी तरह से घर में घुसनेवाली है, उसे यदि बाहरनिकाल दिया तब भी वह बाबा एवं रोहिले के बीच आकर विभक्ति करने की कोशिश करती है।

हमारे जीवन में भी यह कथा यूँ ही घटित होती है। हमारा मन जब कभी भी भक्ति में मग्न होकर ईश्‍वर के गुणसंकीर्तन में रम जाता है उसी वक्त हमारे मन में पारिवारिक कलह-क्लेश प्रवेश करने लगते हैं। वैसे ये हमारे साथ नहीं होते हैं। इसीतरह पारिवारिक चिंताएँ भी हमारे मनमें प्रवेश कर हमारा रास्ता रोकने की कोशिश करने लगती है। हम इसकी परवाह किए बगैर जितना अधिक भक्ति में डूब जाने की कोशिश करते हैं उतनी तेजीसे ये चिंताएँ हमें घेरने लगती हैं। हम जितना अधिक अपने मन को ईश्‍वर के मन में डूबों देना चाहते है, उतनी ही तेजी के साथ यह रोहिली हमारे मन में घुसकर संशय, शंका, कुतर्क, विकल्प आदि निर्माण करके हमें हमारे भगवान से दूर करने लगती है। इन्हीं सभी बातों से बाबा अधिक त्रस्त्र होंगे यह बात वह भली-भाँति जानती है। यहाँ पर एक बात का हमें ध्यान रखना होगा कि रोहिली यदि हमें तकलीङ्ग दे रही है इसीलिए हम बाबा के गुणसंकीर्तन को नहीं छोड़ेंगे। क्योंकि हमें यह बात भलीभाँति ज्ञात होनी चाहिए कि अंतत: यह रोहिली हमारे गुणसंकीर्तन से ही हमेशा के लिए हद्दपार हो जाती है। इसीलिए जब तक यह रोहिली अर्थात हमारी चिंतावृत्ति पुन:पुन: हमारे पास आती रहती है तब तक हमें अपनी भक्ति को अधिकाधिक बढ़ाते हुए ईश्‍वर का गुणसंकीर्तन और भी अधिक तेजी के साथ करते रहना है।

घरेलु, समस्याएँ किसके जीवन में नहीं होते। नामदेव, गोरोबाकाका, चोखोबा, सावतामाली, सेनामहाराज, एकनाथ इन सभी संतों के चरित्र से भी हमें इस रोहिले की कथा से सीख मिलती है। ये सभी नामी संत गृहस्थाश्रमी ही थे और वे अपने नित्यनैमित्तिक पारिवारिक कार्य पूरा करते ही थे।परन्तु उन्होंने कभी भी अपनी इस पारिवारिक क्लेश को अपने-अपने विठ्ठल के बीच नहीं आने दिया। उलटे समस्यायें चाहे कितनी भी क्यों न आयी उन्होंने अपनी भक्ति और भी अधिक बढ़ा दी और विठ्ठल का गुणसंकीर्तन वे करते ही रहे।

आद्यपिपा, चौबल आजोबा, मीनावैनी, साधनाताई इन सभी को तो हमने प्रत्यक्षरूप में देखा भी है। ऐसे थे ये सभी महानभक्त। इन लोगों की भी गृहस्थी कभी भी इनके भक्ति के आड़े नहीं आयी। उलटे उनकी भक्ति से उनकी गृहस्थी भी सुखदायक ही रही। जब इन सभी भक्तों के भक्ति के बीच किसी भी समस्या के कारण रूकावट नहीं आयी। ङ्गिर हमारे ही जीवन में ऐसा क्यों? यह असंभव क्यों है? आद्यपिपा की अगली पंक्ति के अनुसार हमें भी रोहिले के समान उच्च स्वर में नामसंकीर्तन को बढ़ाते ही जाना है। ङ्गिर यह रोहिली हमेशा के लिए चली जायेगी।

‘उडू में उड़ते ही रहूँ। 
अपने सावले से मिलूँगा।’

Leave a Reply

Your email address will not be published.