श्रीसाईसच्चरित : अध्याय-३ : भाग- ७५

दिन हो अथवा रात, द्वारकामाई हो अथवा चावड़ी, रोहिला उच्च स्वर में ईश्‍वर का गुणसंकीर्तन करने लगा। हमने इनमें से दो मुद्दों का अध्ययन किया। अब हम तीसरे महत्त्वपूर्ण मुद्दे के बारे में अध्ययन करेंगे। रोहिला गुणसंकीर्तन कैसे करता है, इस बात का वर्णन इस पंक्ति में हेमाडपंत ने काफ़ी सुंदर तरीके से किया है।

दिवस हो अथवा रात्रि। मस्जिद में हो अथवा चावड़ी।
कलमें पढ़ता उच्च स्वर में। अति आवेश में स्वच्छंद॥
(दिवस असो वा निशी। मशिदीसी वा चावडीसी। कलमे पढे उंच स्वरेसी।अति आवेशी स्वच्छंद॥)

यानि इसका अर्थ हमें भी दिन-रात जोर-जोर से चिल्लाकर गुणसंकीर्तन करना चाहिए क्या? मध्यरात्रि के समय में पास-पड़ोस के लोग गहरी नींद में सो रहे हो ऐसे में झांझ, मृदुंग लेकर जोर-जोर से भजन आदि गाना चाहिए क्या? नहीं। इस पंक्तियों का यह उद्देश्य नहीं है निश्‍चित ही ऐसा नहीं करना हैं। यहाँ पर उच्च स्वर, अतिआवेश में एवं स्वच्छंद ये तीनों ही बातें मन:पूर्वक होनी चाहिए।

नहीं तो मुँह से जोर-जोर से भजन गाना और मन कही और ही हो तो इसका क्या लाभ? यहाँ पर इन पंक्तियों के माध्यम से हमें गुणसंकीर्तन मन:पूर्वक कैसे करना चाहिए इस बात का बोध हमें लेना चाहिए। इसके लिए मन का उच्चस्वर, मन का आत्यंतिक आवेश एवं स्वच्छंदता ये तीनों ही बातें महत्त्वपूर्ण हैं।

तो फिर मन की ये तीनों बातें अर्थात क्या और इससे ये गुणसंकीर्तन आखिर करना भी है तो कैसे? मन की ये तीनों बातें इस प्रकर हैं –
१) मन का उच्चस्वर – उत्कटता
२) मन का अतिआवेश – तन्मयता, तल्लीनता
३) मन की स्वच्छंदता – पूर्ण आनंदमयता।

श्रीसाईनाथ का गुणसंकीर्तन करते समय मन का उच्च स्वर होना चाहिए अर्थात पूर्ण उत्कटता होनी चाहिए। मान लो, बाबा की ऐसी ही कोई कथा को हम मन में याद करते हैं, तो उस कथा में बाबा का गुणसंकीर्तन करते समय मन अत्यत्न उत्कट होकर वह कथा मन में उभर आनी चाहिए। बाबाने किसी भक्त की रक्षा की इसकथा में बाबा का गुणसंकीर्तन करते समय प्रेम से ओत-प्रोत हो जाना चाहिए कि मेरे साईनाथ भक्त की खातिर कैसे दौड़कर गए। बाबाने कैसे भक्त को बचाया। बाबा भक्तों की खातिर कितना कष्ट उठाते हैं। कितने प्रेमी हैं ये मेरे साईनाथ, इस प्रकार का उत्कट भाव हमारे मन में होना चाहिए। इसके लिए दो मार्ग हैं। ये उत्कटता मन में आए इसके लिए हमें दो बातें करनी चाहिए।

प्रथम यह कि मैं ही वह भक्त हूँ, मैं ही संकट में फँसा हूँ, विकट परिस्थिती मुझ पर ही आयी है, मैं ही बाबा कि बुला रहा हूँ, उन्हें पुकार रहा हूँ। इसी भावना के साथ उस कथा का अनुभव करना। फिर वह उस भक्त का अनुभव न होकर मेरा ही अनुभव है ऐसा मुझे प्रतीत होगा और वह उत्कटता अपने-आप ही मुझमें आ जायेगी। क्योंकी मनुष्य जब इस भाव के साथ कथा पढ़ता है कि संकट स्वयण उसी के जान पर आ पड़ा है। उस समय अपने-आप ही उसकी तीव्रत बढ़ जाती है। मैं स्वयं ही उस कथा का भक्त बन जाता हूँ और उत्कटता सहज ही बढ़ जाती है।

दूसरी बात यह है कि हम पर भी कभी न कभी इस प्रकार संकट आ चुके होते हैं। बाबू की तरह मैं भी परिक्षा में डर चुका होता हूँ, शामा की तरह मुझे भी प्रचंड वेदना का सामना करना पड़ा था, दाभोलकर की तरह मैं भी वितण्डवाद का आहार बन चुका हूँ मिरीकर की कथा के समान कभी मृत्यु को मेरे भी सामने मुँह खोले खड़ा मैंने देखा है। आंबेडकर के समना मैं भी कभी अपनी पारिवारिक समस्याओं से परेशान होकर अपनी जीवनलीला को समाप्त करने का विचार कर चूका हूँ। इस प्रकार के अनेक प्रसंगों से साईनाथ ने उस विशेष अवसरों पर अद्भुत लीला करके मेरी भी रक्षा की है और वह घटना भी हमेशा मुझे याद रहती है। इसके साथ ही बाबा को सर्वप्रथम देखा होता है और उसी याद को मन में उतार लिया होता है। प्रथम शिरडी की मुलाकात हेमाडपंत के समान बिलकुल उनके समान उच्चकोटी की भले ही ना हो, फिर भी मेरे जीवन में अत्यन्त आनंददायी ऐसी घटना अकसर मेरे स्मरण में होती ही है। इसीप्रकार से स्वयं से संबंधित घटनाओं का स्मरण वे विशेष कथाएँ उनका पठन करते रहने से स्वयं के अनुभवों को उस समय याद करते रहने से ही उत्कटता बढ़ती है।

दुसरा मुद्दा है तन्मयता, तल्लीनता। साई का गुणसंकीर्तन करते समय मन पूर्णरूपेण तल्लेन हो जाना चाहिए। आरंभ में यह कठिन लगेगा, परन्तु लगातार अभ्यास करने से अपने-आप ही यह घटित होने लगता है। बाबा का गुणसंकीर्तन करते समय किसी भी भात को उस वक्त मन में नहीं आने देना चाहिए। मन को पूर्णरूपेण बाबा के गुणसंकीर्तन में तल्लीन कर देना चाहिए। गुणसंकीर्तन करने के लिए बैठते समय सभी काम खत्म करके, संभवत: कोई भी रूकावट न आने पाए इन सभी बातों का ध्यान रखकर ही गुणसंकीर्तन करने के लिए बैठना चाहिए। विशेषत: आरंभ में ये सभी बातें आवश्यक हैं। सामने श्रीसाईनाथ की तस्वीर होनी चाहिए और मन में जो भी कथा आये वही कथा लेनी चाहिए। आँखों से बाबा की तस्वीर को निहारते रहना है साथ ही बाबा का गुणसंकीर्तन भी करते रहना है। बाबा द्वारकामाई में कैसे बैठते होंगे, भक्तों को वे उदी कैसे प्रदान करते होंगे, कैसे बातचीत करते होंगे, भक्तों को वे उदी कैसे प्रदान करते होंगे, कैसे बातचीत करते होंगे, चावड़ी की पालकी यात्रा कैसे होती होगी, बाबा हंडी में प्रसाद कैसे पकाते होंगे, बाबा ने पानी से दीपक कैसे प्रज्ज्वलित किए होंगे आदि बातों के बारे में ही हमें विचार करते रहना चाहिए। इससे मन उसमें ही रम जाता है। हर एक कथा में बाबाने क्या और किस तरह से किया वह प्रेमभाव के साथ आँखों के समक्ष लाते रहना है।

तिसरा मुद्दा अर्थात शुद्ध आनंद। उस गुणसंकीर्तन में जो निष्प्रेम आनंदरस भरभराकर उत्पन्न होता रहता है। उसमें अगवाहन करना। चावड़ी की पदयात्रा के संबंध में साईसच्चरित में पढ़ना चाहिए इसके पश्‍चात् उसे याद करते रहना है। आँखों के समक्ष उसी प्रसंग को बार-बार लाते रहना है। चांदोरकरजी के बेटी के प्रसूति के समय बाबा की लीला को भी इसीतरह से याद करना है। बाबा को निहारते और आनंद के महासागर में दिल चाहे उतनी बार गोते लगाते रहना चाहिए। प्रथम दो मुद्दों के बारे में अभ्यास करके उसका अंगीकार करते हुए इस तीसरे पायदान पर अपने-आप ही हर एक श्रद्धावान चढ़ता ही है। और वह स्वानुभवगम्य ही है। ‘आनंदाचे डोही आनंद तरंग’ इस स्थिति का हर एक श्रद्धावान को अनुभव करना है।

प्रथम मुद्दा मेरे इसमें के ‘मैं’ को श्रीसाई के गुणसंकीर्तन में कथा में समरस कर देनेवाला है। इसमें मेरा ‘मैं’ अलग न रहकर साईचरणों में एक रस हो जानेवाला है। दूसरा मुद्दा साईनाथ को ही कर्ता बनाकर मेरे मन में समा देनेवाला है। और तीसरा मुद्दा मुझे अपने-आप को पूर्णरूप से भूलाकर केवल इस श्रीसाईनाथ को ही मेरे मन के आकाश के कॅनव्हॉस पर पूर्णरूप से प्रकाशित, चित्रित एवं सक्रिय कर देनेवाला है।

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