श्रीसाईसच्चरित : अध्याय-३ (भाग-२९)

कोई आगे चलकर बनायेगा मठ। कोई देवालय तो कोई घाट।
हम पकड़ेंगे सीधी बाट (राह)। चरित्र-पाठ श्री साई का।
कोई करता सत्कारपूर्वक अर्चन। कोई करता पादसंवाहन।
उत्कंठित हो उठा मेरा मन। गुणसंकीर्तन करने को॥

साईनाथ का हर एक श्रद्धावान अपनी-अपनी योग्यता के कारण भक्ति की विभिन्न साधनाएँ करता रहता है। साईनाथ की जैसी इच्छा होती है, उसी प्रकार वे विशेष बीज अपने भक्तों के मन में अकुंरित करते रहते हैं और उसी के अनुसार भक्ति एवं सेवा वे करवाते भी हैं।

इसी लिए हम जो कर सकते हैं वह भक्तिसाधना हमें करनी चाहिए और यह नहीं सोचना चाहिए कि लोग क्या करते हैं, किसे बाबा ने क्या सेवा दी, उसे वह कैसे करता है। इस तरह से सोचना गलत हैं। दरअसल हमें यह देखना चाहिए कि बाबा ने मुझे जो काम दिया है, उसे मुझे पूरी ईमानदारी के साथ करना चाहिए। हमें किसी अन्य के साथ अथवा किसी अन्य साधन के साथ भी तुलना नहीं करनी चाहिए, बल्कि अपना कार्य करते रहना चाहिए। यदि ‘भक्तिमार्ग पर कहाँ से और कैसे चलना है’ यह प्रश्‍न मन में उठता है अथवा कोई अन्य कार्य भी करना मेरे लिए असंभव हो ऐसा हमें लगता है तो हमें वहाँ पर हताश होकर बैठने के बजाय, चिंता करने की बजाय या किसी भी प्रकार की हीनभावना (इन्फिरियॉरिटी कॉम्प्लेक्स) मन में लाने की बजाय ‘गुणसंकीर्तन’ मार्ग का अवलंबन करना चाहिए।

यह मार्ग सहज आसान मार्ग है। गुणसंकीर्तन करने के लिए ना तो किसी विशेष गुण की आवश्यकता होती है, ना ही किसी विशेष क्षमता की और ना ही विशेष ज्ञान की। इस मार्ग में किसी भी प्रकार का बंधन भी नहीं होता। गुणसंकीर्तन करने के लिए कोई बहुत बड़ी ताकत की भी ज़रूरत नहीं पड़ती है। शारीरिक, मानसिक एवं बौद्धिक बल कितना है, इस पर भी कुछ निर्भर नहीं करता। हमें अपनी जेब से एक पैसा भी खर्च नहीं करना पड़ता है। श्रीसाईसच्चरित का नित्य पठन, वाचन, श्रवण, मनन, निदिध्यास इन पायदानों का हमने पहले ही अध्ययन कर लिया है। यह मार्ग गुणसंकीर्तन की बुनियाद मजबूत करनेवाला है। पर फ़िर भी ऐसा नहीं सोचना चाहिए कि मैं चिंतन-मनन के पहले पड़ाव पर हूँ और इसलिए मैं गुणसंकीर्तन नहीं कर सकता हूँ। जिस क्षण ‘मैं इस साईनाथ का और ये साईनाथ केवल मेरे ही हैं’ यह निश्‍चय मैं अपने मन में दृढ़ कर लेता हूँ और बाबा के चरण मजबूती से पकड़ लेता हूँ, उसी क्षण से मुझे गुणसंकीर्तन करना शुरू कर देना चाहिए। सच पूछा जाए तो एक सच्चे श्रद्धावान को अपने जीवन में गुणसंकीर्तन यह जानबूझकर नहीं करना पडता, बल्कि वह अपने आप ही होने लगता है। यही गुणसंकीर्तन की सर्वोत्कृष्ट विशेषता है।

जैसे-जैसे मैं इस साईनाथ के चरणों में अनन्य होता जाता हूँ और साथ ही मुझे बाबा की कृपा, प्रेम, आशीर्वाद आदि का अनुभव होने लगता है और साथ ही श्रीसाईसच्चरित के अनुभवों के साथ साथ वर्तमान समय में भी भक्तों को प्राप्त होनेवाले अनुभव श्रद्धावानों के सत्संग में मुझे पता चलने लगते हैं, वैसे ही मेरे साईनाथ के प्रति होनेवाला प्रेम, श्रद्धा, सबूरी भी बढ़ने लगती है और फ़िर अपने-आप ही साईनाथ का प्रेम मुख के द्वारा गुणसंकीर्तन के रूप में बाहर निकलते रहता है। जैसे कली से फ़ूल बनता है, कली के खिलते ही उसकी सुगंध अपने-आप ही प्रकट हो जाती है, इसी तरह साई के प्रेम से मन की कली खिलने के साथ ही गुणसंकीर्तन भी होते ही रहता है, अपने आप ही, सहज रूप में।

गुणसंकीर्तन कैसे किया जाता है यह सीखने की आवश्यकता नहीं पड़ती और ना ही सिखाना पड़ता है। यह तो प्रेमवश सहज होनेवाली क्रिया है। इसीलिए मुझे कुछ नहीं आता, मैं कुछ नहीं कर सकता यह कहकर मन को निराश न करते हुए गुणसंकीर्तन की शुरुआत कर देनी चाहिए। यह गुणसंकीर्तन करते करते अपने आप ही अपने विकास का मार्ग दिखायी देने लगता है, साथ ही इस मार्ग पर चलने का बल भी प्राप्त होते रहता है, दिशा भी मिलती रहती है और प्रेमप्रवास होते रहता है। जो गुणसंकीर्तन करता है, उसके साथ स्वयं ये साईनाथ सदैव होते ही हैं। इस संबंध में बाबा के द्वारा दी गयी गवाही हमने इस अध्याय के आरंभ में ही देखी है।

फ़िर जो भी गायेगा उलटे-सीधे। मेरा चरित्र, मेरे पवाड़े (यशगान)।
उस के आगे-पीछे, चारों ओर। होता ही हूँ मैं खड़ा ॥

इसीलिए हेमाडपंत ‘गुणसंकीर्तन’ इस मार्ग को ‘सरल मार्ग’ कहते हैं। श्रीसाईसच्चरित यह साईनाथ ने स्वयं हमें प्रदान की हुई, स्वयं साईनाथ के द्वारा निर्माण की गयी आसान राह है, जिस पर से हर एक श्रद्धावान आराम से प्रवास कर सकता है। तो फ़िर ऐसे इस साईनाथ के गुणसंकीर्तन का आसान मार्ग सामने होने पर भी यदि हम अन्य शॉर्ट कट यानी चोर रास्ता ढूँढ़ते बैठते हैं, तो वह हमारी गलती है। साईसच्चरित में होनेवाले भक्तो के अनुभव, आज भी बाबा के भक्तों को आनेवाले अनुभव इस साईनाथ की लीलाएँ, जो भी हो, जैसे भी हो, जितना भी मैं जानता हूँ, उसी के आधार पर मुझे साईनाथ का गुणसंकीर्तन करते रहना है। गलत मार्ग ढूँढ़ने की कोशिशें करने की अपेक्षा प्रेम भरी सीधी राह का स्वीकार करना ही अधिक श्रेयसकर होगा। क्योंकि शॉर्ट कट का पैदल रास्ता अन्त में गलत राह पर ही ले जाता है और वह रास्ता हमें बर्बाद कर देता है।

‘गलत कोशिशों का रास्ता अंतत: बरबादी की ओर ही जाता है’ ये श्रीकृष्णशास्त्री इनामदार के बोल को हमें हमेशा याद रखने चाहिए। हेमाडपंत ने भी बाबा की आज्ञा से इसी गुणसंकीर्तन के आसान मार्ग पर से प्रवास करने का निर्धार किया और इस पर चलने का कर्तृत्व मेरा नहीं है बल्कि यह साईनाथ की ही कृपा है, वे चलानेवाले हैं, इस बात का ध्यान भी उन्होंने सदैव रखा। बाबा का चरित्र लिखने की ताकत किसी भी मनुष्य में नहीं है यह बात वे भलीभाँति जानते थे।

समर्थ साई की निजस्थिति। यथार्थ वर्णन कौन कर सकता है।
वे स्वयं ही भक्त पर कृपा करते हैं। और वे ही लिखवाते हैं स्वयं ही॥

बाबा ने स्वयं ही हेमाडपंत को बस्ता रखने की आज्ञा दी और साई यह भी कहते हैं ‘मेरी कथा मैं ही वर्णन करूँगा। हेमाडपंत को केवल अहंवृत्ति को मिटा देना है।’

‘मैं ही अपनी कथा कहूँगा’ यह भी साई ने स्पष्ट कर दिया था। हेमाडपंत ने साईनाथ की आज्ञा एवं वचन हमेशा ध्यान में रखा। इसीलिए वे कहते हैं कि जिस क्षण बाबा की आज्ञा से बाबा का चरित्र-लेखन कार्य करने के लिए मैंने कलम उठाये, उसी क्षण बाबा ने मेरे ‘अहंकार’ को मेरे ‘मैं’ को हर लिया। मेरे अंदर के ‘मैं’ को मिटा दिया और स्वयं ही स्वयं की कथा कहनी आरंभ कर दी।

गुणसंकीर्तन का निर्धार (निश्‍चय) जो भक्त करता है और बाबा के कर्तृत्व का स्मरण करके अपना कार्य पूरी ईमानदारी के साथ करता है, प्रथम कदम उठाने की तैयारी मनसा-वाचा-कर्मणा से एकचित्त होकर करता है, उसी क्षण बाबा उसके अहंकार को दूर कर स्वयं कर्ता बनकर उसके जीवन में प्रकट हो जाते हैं और जहाँ पर साई हैं, वह जीवन तो धन्य होगा ही इसमें कोई शक नहीं है। हमारी सारी ज़िम्मेदारी साईनाथ स्वयं अपने ऊपर ले लेते हैं और वे मेरा परिपालन करते हैं। इसीलिए गुणसंकीर्तन यह सबसे आसान एवं सब से शक्तिमान मार्ग है। गुणसंकीर्तन यह साईराम का अमोघ बाण है इसीलिए हमें सारी शंकाएँ, हीनभावना, भय आदि को छोड़कर इस साईनाथ का गुणसंकीर्तन करना चाहिए।

अकसर हम उपासना करते समय डरते हैं कि कहीं कोई गलती हो गई तो क्या होगा? परन्तु यहाँ पर गुणसंकीर्तन में बाबा स्वयं ही गवाही देते है कि उलटे-सीधे, सही-गलत शब्दों में मेरा यशगान यदि तुम गाओगे और तुम्हारा भाव पवित्र रहेगा, तो मैं तुम्हारे भाव को जानकर तुम्हारे चारों ओर अवश्य ही खड़ा रहूँगा। कहने का तात्पर्य यह है कि गुणसंकीर्तन करते समय यदि मेरा उच्चारण गलत भी हो जाता है, शब्द भी आगे-पीछे हो जाते हैं, यदि मैं ठीक से नहीं कह पाता हूँ आदि किसी अन्य कारणवश कुछ गलतियाँ हो भी जाती हैं, तब भी डरने की कोई ज़रूरत नहीं है। इस तरह का आसान रास्ता सामने होते हुए भी आखिर हमें और चाहिए भी क्या? नि:शंक होकर, बगैर हिचकिचाये इस गुणसंकीर्तनरूपी सेतु पर से चलते हुए हम प्रेमप्रवास करेंगे। हेमाडपंत के कहे अनुसार जो गुणसंकीर्तन का निर्धार करता है उसके अहंकार को, उसके ‘मैं’ को दूर करके, उसके प्रारब्ध भोग को खत्म करनेवाली हरिकृपा उस श्रद्धावान के जीवन में प्रवाहित करने के लिए साईनाथ समर्थ हैं ही।

उठायी जब हाथ में कलम। बाबा ने हर लिया मेरे ‘मैं’ को।
लिखी अपनी कथा स्वयं ही। जिसका आभूषण उसी को शोभा देता है ॥

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